एक पाती, हामिद अंसारी के नाम

एक पाती, हामिद अंसारी के नाम

बलबीर पुंज

एक पाती, हामिद अंसारी के नामउपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी

नमस्कार हामिद अंसारी जी,

हाल ही में आपने एक बार फिर से भारत/हिंदू विरोधी वक्तव्य दिया। मैं इस पर हैरान तो नहीं, परंतु दुखी अवश्य हूं। भले ही मेरा बतौर राज्यसभा सांसद, (दूसरा कार्यकाल 2008-14) और आपका बतौर राज्यसभा सभापति, (2007-17) संबंध कुछ वर्षों का हो, परंतु आपकी वास्तविक विचारधारा को मैं दशकों से जानता हूं। जब पूरा देश 73वां गणतंत्र दिवस मना रहा था, तब आपने अपने चिंतन के अनुरूप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वैचारिक-राजनीतिक घृणा के फलस्वरूप भारत और उसकी सनातन संस्कृति के विरुद्ध विषवमन किया। आपने कहा “हाल के वर्षों में हमने उन प्रवृत्तियों और प्रथाओं के उद्भव का अनुभव किया है, जो नागरिक राष्ट्रवाद के सुस्थापित सिद्धांत पर विवाद खड़ा करती हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक नई एवं काल्पनिक प्रवृति को बढ़ावा देती हैं। वह नागरिकों को उनके मजहब के आधार पर अलग करना चाहती हैं, असहिष्णुता को हवा देती हैं, और अशांति-असुरक्षा को बढ़ावा देती हैं।”

महोदय, रोग के लक्षणों को लेकर मैं आपसे सहमत हूं, परंतु इसके कारणों और उसके निदान पर मेरा मत भिन्न है। मैं भी मानता हूं कि देश में असहिष्णुता बढ़ी है और राष्ट्रवाद की नई परिभाषा के चलते देश में विभाजनकारी शक्तियां न केवल बलशाली हो गई हैं, बल्कि उन्होंने इस देश के टुकड़े करने में भी सफलता पाई है। मैं अपनी बात कुछ घटनाओं (हालिया सहित) से शुरू करता हूं।

गुजरात में अहमदाबाद स्थित धंधुका में इस्लाम के नाम पर किशन भरवाड की गोली मारकर हत्या कर दी गई। किशन का अपराध क्या था? उस अभागे ने सोशल मीडिया में इस्लाम पर टिप्पणी की थी। दशकों से हिंदू देवी-देवताओं, उनकी परंपराओं और आस्थाओं पर फिल्मों से लेकर नुक्कड़-नाटकों (स्टैंडअप कॉमेडी सहित) में तरह-तरह से निरंतर प्रहार होते रहे हैं। क्या मजहब पर किसी भी अस्वीकार्य टिप्पणी का जवाब- गोली है? क्या आपने इसकी निंदा की? क्या आपकी और आपके वामपंथी-जिहादी-सेकुलर-इवेंजिल कुनबे की चुप्पी, इस हत्याकांड का मौन समर्थन नहीं है?

किशन की हत्या कोई एकमात्र ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं है। इसी वर्ष 17 जनवरी को दिल्ली में सुल्तानपुरी स्थित दलित हीरालाल की निर्मम हत्या कर दी गई थी। परिजनों ने हत्या का आरोप पड़ोस में रहने वाले उस इरफान सिद्दीकी पर लगाया है, जो पहले हीरालाल की बहन से बलात्कार के आरोप में जेल जा चुका था। बीते वर्षों में इस प्रकार के ढेरों मामले सामने आए हैं- चाहे वह बल्लभगढ़ में ‘लव-जिहाद’ में विफल तौसिफ द्वारा निकिता तोमर की हत्या हो या मुस्लिम लड़की से प्रेम करने पर दिल्ली के अंकित सक्सेना की जान लेना हो, कासगंज में तिरंगा यात्रा निकालने वाले चंदन गुप्ता को गोली मारना हो, प्रतिबंधित कट्टरपंथी इस्लामी संगठन तब्लीगी जमात की निंदा करने वाले लोटन निषाद को प्रयागराज में मौत के घाट उतारना हो या फिर घर में पूजा के दौरान शंख-घंटी बजाने पर दिल्ली के रोशन पाठक को दानिश द्वारा धमकाना हो- इन सभी में हिंसा करने वाले मुस्लिम, तो इसके शिकार हिंदू हैं।

हाल ही में तमिलनाडु में हिंदू छात्रा लावण्या ने आत्महत्या करके अपनी जीवनलीला इसलिए समाप्त कर ली, क्योंकि चर्च प्रेरित स्कूल उसे मतांतरण के लिए वर्षों से प्रताड़ित कर रहा था। आत्महत्या से दो दिन पहले लावण्या का वीडियो- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। संभवत: चर्च के दबाव में पुलिस द्वारा मामले में लीपापोती करने से खिन्न मद्रास उच्च-न्यायालय ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपी है। क्यों अखलाक, जुनैद, पहलू आदि की दुर्भाग्यपूर्ण मौतों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बवाल मचता है, कैंडल मार्च निकलता है, तख्तियां पकड़े लोग आंदोलन करते हैं, विद्रोह के स्वर उठते हैं और लावण्या, किशन, हीरा, चंदन, अंकित आदि लोगों के मामले में दो आंसू तक भी नहीं बहाए जाते। दुखद है कि हमारे लोकतंत्र में अपराध की गंभीरता और उस पर प्रतिक्रिया- हिंसा करने वाले और उसके शिकार की मजहबी पहचान से होती है।

हामिद अंसारी जी, भारतीय उपमहाद्वीप पिछले 1300 वर्षों से विचारधारा-मजहब के नाम पर असहिष्णुता का शिकार है। इस दौरान लोगों को उनकी आस्था के आधार पर न केवल प्रताड़ित किया गया है, साथ ही उनके मानबिंदुओं (पूजास्थल सहित) को ध्वस्त भी किया गया है। शताब्दियों लंबे कालखंड में यदि एक विवादित बाबरी ढांचे को छोड़ दें, तो कितनी मस्जिदों और चर्चों को यहां के मूल संस्कृति में विश्वास रखने वालों ने ध्वस्त किया है? विडंबना देखिए कि एक इस्लामी आक्रांता के विजयी स्मारक को जमींदोज करने पर आपके कुनबे ने जितना शोर मचाया है, उतनी ही गहरी चुप्पी आपने कश्मीर में दसियों मंदिरों को तोड़ने या भ्रष्ट करने पर अब तक साधे रखी है।

माननीय, कश्मीर का मजहबी संकट और पाकिस्तान- उसी ‘काफिर-कुफ्र’ प्रेरित इस्लामी राष्ट्रवाद का विषाक्त फल है, जिसका सूत्रपात आपके आदर्श सैयद अहमद खां के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ और अलगाववादी ‘खिलाफत आंदोलन’ ने किया था। हजारों वर्ष पहले जिस भूखंड पर वैदिक ऋचाओं का सृजन हुआ था, वहां इस्लाम के नाम पर न केवल उसकी मूल बहुलतावादी सनातन संस्कृति की हत्या कर दी गई है, बल्कि उसमें विश्वास रखने वाले नगण्य लोगों को आज भी ढूंढ-ढूंढकर निशाना बनाया जा रहा है। कश्मीर में जिहादियों द्वारा हाल के दिनों में चुन-चुनकर गैर-मुस्लिमों और भारतप्रेमी मुस्लिमों की हत्या- इसका प्रमाण है। क्या इसका कारण कश्मीर का वह इस्लामी ‘इको-सिस्टम’ नहीं, जिसमें 1989-91 के कालखंड में हिंदुओं का नरसंहार और उनकी महिलाओं से बलात्कार हुआ, तो भारतीय सुरक्षाबलों पर पथराव, मस्जिदों से भारत/हिंदू विरोधी नारे लगाए और पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते रहे है? यह स्थिति तब थी, जब धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण होने से पहले दशकों तक जम्मू-कश्मीर में प्रति व्यक्ति को उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य की तुलना में 10 गुना अधिक केंद्रीय अनुदान मिल रहा था। स्पष्ट है कि इस मजहबी असहिष्णुता का वस्तुनिष्ठ और निर्णायक निदान आर्थिक सहायता, रोजगार और समेकित विकास आदि नहीं है।

सच तो यह है कि देश की एकता, संप्रभुता और अखंडता के समक्ष खतरा इतना विकराल हो चुका है कि जिन विदेशी शक्तियों ने भारत का रक्तरंजित विभाजन किया और जिस वैचारिक नींव पर पाकिस्तान खड़ा है, उस मानसिकता से देश के असंख्य भारतीय पासपोर्टधारक आज भी ग्रस्त हैं। प्रश्न उठता है कि यह सब विश्व के इसी भू-भाग में ही क्यों होता है? इसका उत्तर गांधीजी के विचारों में मिलता है। खिलाफत आंदोलन के दौरान इस्लाम के नाम पर हिंदुओं को प्रताड़ित करने की घटनाओं पर गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में 29 मई 1924 को लिखा था, “…मुसलमान अपने घिनौने आचरण का बचाव नहीं कर सकते… किंतु एक हिंदू होने के नाते मैं हिंदुओं की कायरता पर अधिक शर्मिंदा हूं… लूटे घरों के मालिक अपनी संपत्ति की रक्षा के प्रयास में क्यों नहीं मरे? जब बहनों का बलात्कार हो रहा था, तब उनके परिजन कहां थे? मेरी अहिंसा खतरे के समय अपनों को असुरक्षित छोड़ कर भागने को स्वीकार नहीं करती। हिंसा और कायरता के बीच, मैं हिंसा को कायरता के स्थान पर प्राथमिकता दूंगा।” यदि देश में असहिष्णुता और मजहबी हिंसा को समाप्त करना है, तो गांधीजी की 100 वर्ष पुरानी सलाह के अनुसार, हिंदुओं को सशक्त होना ही होगा।

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