एक बिटिया का उपनयन संस्कार
एक बिटिया का उपनयन संस्कार
उदयपुर। पिछले दिनों उदयपुर में एक बिटिया का उपनयन संस्कार हुआ। आज जब लोग पश्चिमीकरण की अंधी दौड़ में अपने संस्कारों से कटने लगे हैं, यह समाचार बहुत सुकून देने वाला है। यह बिटिया है महेश और रुचि श्रीमाली की। जॉब के चलते परिवार लम्बे समय तक भारत से बाहर रहा है। लेकिन उनका भारत, भारतीयता और जड़ों से जुड़ाव अप्रतिम है। बिटिया के उपनयन संस्कार का विचार कैसे आया, पूछने पर बिटिया मिशा के पिता महेश श्रीमाली कहते हैं, एक दिन पूरा परिवार साथ बैठा था, अन्यान्य विषयों पर चर्चा चल रही थी, तभी मिशा ने पूछा, “पापा उपनयन संस्कार क्या होता है? क्या यह संस्कार केवल बालकों के लिए ही है? क्या लड़कियों का उपनयन संस्कार (जनेऊ / यज्ञोपवीत) नहीं हो सकता?” महेश कहते हैं, सच कहूं तो इन प्रश्नों के लिए हम पति-पत्नी बिल्कुल तैयार नहीं थे। हमने उससे कुछ समय माँगा और पता करने का निश्चय किया।
कई दिनों तक हम दोनों उहापोह में रहे, इस संस्कार के बारे में कहॉं बात करें, किससे बात करें, रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया क्या होगी आदि आदि। साथ ही हम बातें करते छोटी सी मिशा कब बड़ी हो गयी, पता ही नहीं चला। जब वह 6 वर्ष की थी, तो कैसे हनुमान चालीसा सुनाती थी, जो तब भी उसे पूरा कंठस्थ था। 10 वर्ष की आयु में शिव तांडव स्त्रोत पर नृत्य करने लगी थी। कैसे उसका आचरण उसे सबका दुलारा बना देता था। इन यादों के बीच समय बीत रहा था। इस बीच मैंने उपनयन संस्कार के बारे में जानने के लिए कई अनुभवी व्यक्तियों से संवाद किये, रुचि ने इंटरनेट पर सर्च किया, पुस्तकें खंगालीं। इससे निकल कर आया कि –
1. वर्तमान में कहीं कहीं लड़कियों का उपनयन संस्कार होता है, लेकिन चलन में नहीं है। संभवतया मध्यकाल से बंद हुआ होगा।
2. प्राचीन भारत में शिक्षा अर्जन के लिए गुरुकुल व्यवस्था बालक, बालिकाओं दोनों के लिए थी और शिक्षा हेतु जाने से पहले उपनयन संस्कार होता था दोनों ही का।
3. महाभारत (अनुसाशन पर्व अध्याय 46) सहित कुछ हिन्दू धर्म पुस्तकों में कन्या उपनयन संस्कार का सन्दर्भ आता है।
4. कुछ मंदिरों में देवियों की मूर्तियों को यज्ञोपवीत पहने दर्शाया गया है, जिनमें माँ सरस्वती कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम तमिलनाडु, गायत्री मंदिर पुष्कर राजस्थान इत्यादि कुछ उदाहरण हैं।
5. प्राचीन काल की ऋषियों को भी यज्ञोपवीत धारण किये हुए चिन्हित और वर्णित किया गया है।
वह आगे बताते हैं कि, इस सब खोजबीन से विषय की जानकारी तो मिली, लेकिन अभी भी हम स्पष्ट मत पर नहीं पहुँच पाए। हमारे पारिवारिक संपर्क में आर्य समाज संस्था के साथ जुड़ी एक बहुत अनुभवी और ममतामयी पुरोहित हैं सरला जी, हमने उनसे संपर्क किया और अपनी जिज्ञासा समाधान का आग्रह किया। उन्होंने बताया की आर्य समाज के मतानुसार, बालिकाओं का उपनयन संस्कार होना चाहिए। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है गुरु के पास ज्ञानार्जन के लिए जाना। जनेऊ के तीन धागे हम पर जो तीन ऋण हैं, का स्मरण करवाते हैं – देव ऋण (आध्यात्मिक उत्थान), ऋषि ऋण (ज्ञानार्जन) और पितृ ऋण (पारिवारिक जिम्मेदारी और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा)। जनेऊ के तीन धागों का एक और अर्थ भी लिया जा सकता है, वह है जीवन में सत्य का पालन करना, न्याय के साथ खड़ा रहना और ज्ञान प्राप्ति। इस सारे संवाद में मिशा भी सम्मिलित थी।
उसकी बारहवीं के परीक्षा हो चुकी थी और उसे कुछ अच्छे कॉलेजों में प्रवेश के ऑफर भी थे। उसने अपना मत रखते हुए कहा कि कॉलेज की पढ़ाई के लिए घर छोड़ कर जाना गुरुकुल में जाने के समान ही है। अतः मेरा उपनयन संस्कार होना ही चाहिए। हमने अनुभव किया कि यह उसका हठ मात्र नहीं था, बल्कि पक्का विश्वास था। अब तक हम भी मन बना चुके थे कि बिटिया का उपनयन संस्कार करेंगे, उसकी तीव्र इच्छा ने इसे निश्चय में बदल दिया था।
परिवार की क्या प्रतिक्रिया रही, पूछने पर उन्होंने बताया कि जैसा अक्सर होता है, कुछ का समर्थन मिला तो कुछ बिना पूरी बात सुने ही विरोध में रहे और कुछ संशय में भी थे। हमने सभी को आदरपूर्वक आमंत्रित किया। मिशा के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए हमने सरला जी से विनती की और वह सहर्ष तैयार हो गयीं। मिशा का दृढ़ निश्चय देखकर उन्होंने पूरी व्यवस्था का जिम्मा भी अपने ऊपर ही ले लिया। यज्ञ की सामग्री, सजावट, चित्र, मन्त्र पुस्तिकाएं, स्पीकर इत्यादि उन्होंने ही उपलब्ध करवाया।
महेश फिर यादों में खो गए और बोले, अब वह दिन आ गया था, मिशा के उपनयन का दिन। पुरोहित जी के कहे अनुसार एक दिन पूर्व मिशा ने पूर्ण रूपेण उपवास रखा – संस्कार के दिन नहा धोकर जब वह भगवा वस्त्रों में यज्ञ की वेदी के पास आकर बैठी, तो उसके लिए आशीर्वाद स्वरूप हमारी आँखों से स्नेह की अश्रुधारा बह निकली। उस दिन हमने अनुभव किया की बेटियां माँ-बाप की सम्मान वाहक होती हैं, उनका सिर गर्व से ऊँचा कर देने का सामर्थ्य रखती हैं। वेद मंत्रों के उच्चारण और पवित्र अग्नि के सम्मुख यज्ञ और मिशा का उपनयन संस्कार सम्पन हुआ।
सभी आगन्तुकों के साथ ही हम पति – पत्नी के लिए भी यह पहला अवसर था जब किसी कन्या का यज्ञोपवीत संस्कार होते हुए देखा। मिशा ने अपने सभी मित्रों / सखियों को भी आमंत्रित किया, उसके लिए भी यह एक सुनहरा अवसर था सबके सामने हिन्दू संस्कृति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने का। यह कोई शर्माते हुए या छुपाकर करने वाला कार्य नहीं था। वहां उपस्थित युवा पीढ़ी की उत्सुकता प्रेरणादायक रही। यह इस बात का द्योतक है कि यदि हम पूर्ण विश्वास के साथ युवा पीढ़ी को संस्कार देने का प्रयत्न करें तो वे उसे सहजता से समझने व अपनाने का प्रयास करते हैं।
महेश बताते हैं, छोटे – बड़े सभी आयु वर्ग के आगन्तुकों ने बहुत उत्साह से इस आयोजन में भाग लिया और इस अनूठी लेकिन तर्कसंगत शुरुआत के साक्षी बने। इसे फेयरवेल कहें अथवा मिशा के गुरुकुल जाने से पहले का उत्सव, पूरा आयोजन सभी के लिए अत्यंत आनंददायक रहा। सरला जी की सहजता से प्रभावित होकर कुछ अतिथियों ने कन्या यज्ञोपवीत संस्कार को लेकर उनके साथ अपनी जिज्ञासा का समाधान किया। सभी प्रश्नों का सरला जी ने बड़े ही धैर्य के साथ उत्तर दिया।
मिशा के मित्रों ने इसे कैसे लिया पूछने पर वह गम्भीर हो गए और बोले अत्यंत समावेति है हमारी हिन्दू संस्कृति, इसमें ज्ञान है, शास्त्रार्थ है, उल्लास है, सकारात्मकता है, परस्पर सम्मान है और मानवता का कल्याण भी निहित है। इसका अनुभव तब होता है, जब हम इसमें डूबते हैं। उस दिन सरला जी ने जब उपनयन संस्कार का महात्म्य बताया, तो लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। एक और कन्या ने भी अपने पिता से अपने उपनयन संस्कार का आग्रह कर दिया।
तभी आंखों में एक नई चमक के साथ वह बोले, इसके बाद मैंने अपनी गलती भी सुधारी। मेरा यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका था, लेकिन मैं सदैव जनेऊ नहीं पहनता था। अगले ही दिन मैं अपने लिए जनेऊ लेकर आया और गायत्री मन्त्र के उच्चारण के साथ उसको धारण किया। सही अर्थों में मेरी बिटिया ने ही मुझे अपनी परम्परा का ध्यान करवाया। हम दोनों बाप-बेटी जनेऊधारियों ने अपनी एक सेल्फी ली और ईश्वर के आशीर्वाद की कामना की।