ऑटिज्म: दिमागी बीमारी का मां की वाणी से होगा इलाज

ऑटिज्म: दिमागी बीमारी का मां की वाणी से होगा इलाज

प्रमोद भार्गव

ऑटिज्म: दिमागी बीमारी का मां की वाणी से होगा इलाज

भारतीय सनातन संस्कारों में शिशुओं को लोरी सुनाकर सुलाना अब बीते समय की बात हो गई है। एक समय था, जब रोता बच्चा लोरी सुनकर न केवल सो जाता था, बल्कि दर्द भी भूल जाता था। अब स्वलीनता अर्थात ऑटिज्म या ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर (एएसडी) जो दिमागी बीमारी है, उसके सिलसिले में नए शोधों से ज्ञात हुआ है कि सोते हुए बच्चे के फंक्शनल मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एफएमआरआई) तकनीक से मां की बोली के प्रति इस बीमारी से पीड़ित बच्चों का तंत्रिका-तंत्र प्रतिक्रिया स्वरूप सक्रिय होता है, जो इस दिमागी बीमारी को दूर कर सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क में ध्वनि और भाषा की प्रक्रिया के समय प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले हिस्से सुपीरियर टेंपोरल कॉर्टेक्स में मां की सुरीली आवाज तथा भावनात्मक दुलार के प्रति ऑटिज्म पीड़ित बच्चों को लाभ मिलता है। इसकी पुष्टि के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ सैन डिएगो स्कूल ऑफ मेडिसिन के शेधकर्ताओं ने पाया कि इस नई पहुंच से यह जानने में सहायता मिलेगी कि ऑटिज्म पीड़ित बच्चों में मस्तिष्क कैसे विकसित हो रहा है। क्योंकि पीड़ित और सामान्य रूप से विकसित होने वाले बच्चों में मां की बोली का विशेष महत्व है। यह शोध न्यूरो साइंस के प्रोफेसर एरिक कौरचेस्ने के नेतृत्व वाली टीम ने किया है। इसमें आई ट्रैकिंग तकनीक के माध्यम से मां तथा अन्य महिलाओं की बोली और कंप्युट्रीकृत साउंड व इमेज के प्रति प्रभाव का आंकलन किया गया है। नतीजतन ऑटिज्म रोगियों के इलाज की नई आशा जगी है।

कहने को तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहा जाता है कि स्वास्थ्य बुनियादी मानवाधिकार है। पर सच्चाई यह है कि आम भारतीय के लिए इस अधिकार को प्राप्त करना आसान नहीं है। देश में कई तरह की पहल और नीतिगत बदलाव के बावजूद स्वास्थ्य लाभ हासिल कराने के परिप्रेक्ष्य में एक ऐसी लोकनीति बनाने की आवश्यकता है, जिससे जन्मजात अशक्तों को सहायता मिल सके। क्योंकि पर्याप्त संस्थागत तंत्र के सहयोग के अभाव में अभी भी मानसिक रूप से अशक्त लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं। शारीरिक, मानसिक और अन्य जन्मजात विकारों से ग्रस्त लाचारों के लिए अखिल भारतीय स्तर पर कई योजनाएं लागू हैं। अनेक पीड़ितों को लाभ भी मिल रहा है। किंतु बच्चों के प्राकृतिक रूप से विकास में बाधा डालने वाले विकारों में ऑटिज्म नामक मानसिक रोग एक ऐसा रोग है, जिसका न तो आसानी से उपचार स्वास्थ्य केंद्रों पर उपलब्ध है और न ही इस रोग के बाबत अभी पर्याप्त जागरूकता है। जबकि एक अनुमान के अनुसार देश में लगभग 80 लाख बच्चे इस रोग की असामान्य पीड़ा से जूझ रहे हैं।

​ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों के स्वास्थ्य सुधार की दिशा में पहल करते हुए नौ प्राथमिक कार्यों को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिन्हित किया है। हालांकि अब ऑटिज्म रोग चिकित्सा क्षेत्र के लोगों के लिए कोई अनजाना नहीं है। रोग की पहचान और निदान से जुड़े कई अध्ययन, खोजें व तकनीकें सामने आ गईं हैं। जरूरत है रोग की पहचान व उपचार की एक व्यावहारिक योजना बनाकर उसे देश भर में अमल में लाने की, जिससे ऑटिज्म से प्रभावित बच्चों व उनके परिजनों में समझ व जागरूकता पैदा हो और वे रोगी को भगवान व भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ें। दरअसल ऑटिज्म, एक मानसिक बीमारी है, जिसमें बच्चे या तो किसी बात पर ध्यान नहीं लगा पाते अथवा लंबे समय तक किसी एक ही चीज में उलझे रहते हैं। कुछ मामलों में बच्चों में स्वयं को हानि पहुंचाने की प्रवृत्ति भी पनपते देखी गई है। ये बच्चे दीवार से सिर पीटते अथवा घरेलू धारदार औजारों से हाथ-पैर काटते देखे गए हैं। इसीलिए इस बीमारी को मानसिक विकृति भी माना जाता है। ऐसे बच्चों के उपचार की दृष्टि से कई प्रकार की दवाईयां दिए जाने के बावजूद कोई लाभ नहीं मिलता। मिलता भी है तो लंबे समय तक असरकारी नहीं रहता। ऐसे में यदि बच्चे में स्वयं को नुकसान पहंचाने की प्रवृत्ति पनप गई है तो अभिभावकों को यह बड़ी चिंता का कारण बन जाती है। अनुसंधानों से पता चला है कि दिमाग का तंत्रिका-तंत्र यदि किसी दुर्घटना का शिकार हो जाता है तो ऑटिज्म की बीमारी पनप सकती है। गर्भवती महिलाओं को उचित पोषाहार नहीं मिलने पर भी नवजात शिशु इस रोग से ग्रस्त हो सकता है।

​​नए अध्ययनों से पता चला है कि ऑटिज्म कृमि संक्रमण की देन है। इसी दृष्टि से ऑटिज्म पीड़ित बच्चों पर प्रयोगशालाओं में इस कृमि संक्रमण को दूर करने के लिए कृमि उपचार भी किया जा रहा है। इस रोग के निदान के लिए टाइचुरिस सुइस नामक कृमि की भूमिका पर अनुसंधान चल रहा है। ऐसे ही एक प्रयोग के अंतर्गत ऑटिज्म से ग्रस्त बच्चे को प्रयोगशाला में कार्यरत चिकित्सकों की सलाह पर टाइचुरिस सुइस के 2500 अण्डे प्रति सप्ताह देने का क्रम शुरू किया गया। कुछ ही दिनों में इस बच्चे के आचरण एवं रोग संबंधी लक्षणों में अकल्पनीय सुधार देखने में आया। उसके अतिवादी आचरण और स्वयं को हानि पहुंचाने की प्रवृत्ति में आश्चर्यजनक परिवर्तन देखने में आया।

​​चिकित्सा क्षेत्र में कृमियों द्वारा उपचार किए जाने की दिशा में आयोवा विश्वविद्यालय में बड़े पैमाने पर शोध किए जाकर इलाज की नई-नई तकनीकें आविष्कृत की जा रही हैं। लेकिन भारत समेत अन्य विकासशील देशों में ऐसे दुर्लभ चिकित्सा अनुसंधान नहीं हो रहे हैं। इसके उलट हमारे चिकित्सा महाविद्यालयों एवं अनुसंधान केंद्रों में उपचार के लिए लाए गए बच्चों पर गैर कानूनी तरीके से चिकित्सा परीक्षण करके उन्हें तिल-तिल मरने को भगवान भरोसे छोड़ा जा रहा है। दरअसल हम जिस लोक मान्यताओं और व्यवहार वाले समाज में रहते हैं, उसमें सामान्य रूप से स्वस्थ और बौद्धिक रूप से समृद्ध व्यक्ति को ही समाज की सहज स्वीकार्यता मिलती है। मामूली सी शारीरिक या मानसिक विकृति वाले लोगों को आसानी से उपहास का पात्र मान लिया जाता है। इसलिए ऐसे लोगों को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना एक साथ झेलते रहने की लाचारी से गुजरना होता है।

इस सामाजिक भेदभाव के कारण कई माता-पिता ऐसे बच्चों के लालन-पालन पर उचित ध्यान नहीं देते। जाहिर है, ये बच्चे जीवन की दौड़ में उपेक्षित किए जाने से पिछड़ जाते हैं। साफ है, यह विडंबना समाज और कानून दोनों ही स्तरों पर बरकरार है। ऐसे निशक्तों के लिए कारगर नीतियां बनाना और उनको व्यवहार में लाना सरकार की प्राथमिकताओं में सबसे निचले पायदान पर है। इस लिहाज से आवश्यक है कि स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ी लोकनीतियां अशक्तों के लिए तो बनें ही, आर्थिक रूप से उन कमजोरों के लिए भी बनें, जो धनाभाव के चलते अनजाने में ही दवा परीक्षण के शिकंजे में आ जाते हैं। यदि ऐसा होता है तो देश के अशक्तों की समाज में सुविधा व सम्मानजनक स्थिति बन सकती है।

(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)

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