औपनिवेशिक शक्तियों की कठपुतली कृत्रिम देश पाकिस्तान

बलबीर पुंज
औपनिवेशिक शक्तियों की कठपुतली कृत्रिम देश पाकिस्तान
पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रम ने कई अनकहे और कटु सत्य को उजागर कर दिया। पहला— पाकिस्तान कोई राष्ट्र नहीं, अपितु औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने निहित स्वार्थ हेतु जनित एक कृत्रिम इकाई है। दूसरा— विश्व के जिस मानचित्र पर पाकिस्तान है, वहां के अधिकांश लोग इस्लाम के नाम पर न ही देश का विभाजन चाहते हैं और न ही पाकिस्तान की अवधारणा का समर्थन करते थे और कई आज भी उसके विरोधी हैं। तीसरा— इस्लाम के नाम पर वैश्विक मुस्लिम सहयोग-एकता को बल देता ‘उम्माह’ केवल किताबी बात है, इसका व्यवहारिकता से कोई लेना-देना नहीं। चौथा— रमजान की गरिमा को सर्वाधिक क्षति पहुंचाने वाले मुसलमान ही हैं।
गत दिनों पाकिस्तानी फौज को निशाना बनाते हुए बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) के दो अलग-अलग बड़े हमलों (11 मार्च और 16 मार्च) में 300 से अधिक लोगों के मारे जाने का दावा है। बलूचिस्तान की जिस धरती पर यह हमले हुए, उसका हजारों वर्ष पुराना वैदिक इतिहास है। यह क्षेत्र बौद्ध परंपरा का भी एक प्रमुख केंद्र रहा था। सातवीं सदी में जब मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर मजहबी हमला किया, तब यहां पर इस्लाम का प्रभाव बढ़ा। यहां पर हिंदुओं की प्रमुख शक्तिपीठ में से एक— हिंगलाज माता मंदिर आज भी विद्यमान है। जब भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रितानी शासन था, तब बलूचिस्तान पर कलात रियासत का शासन था। 1876 में दोनों के बीच संधि हुई और यह सशर्त ब्रिटिश अधीनस्थ राज्य बन गया। 1947 में विभाजन के बाद कलात ने भारत या पाकिस्तान का हिस्सा बनने के बजाय स्वतंत्र रहने का अधिकार चुना। परंतु मार्च 1948 में मोहम्मद अली जिन्नाह के निर्देश पर पाकिस्तानी सेना ने इसे बलपूर्वक हड़प लिया। तब से यह बलूच राष्ट्रवादियों के लिए “राष्ट्रीयता और आत्मनिर्णय संघर्ष” का प्रतीक बना हुआ है।
अलगाववाद केवल बलूचिस्तान तक सीमित नहीं है, सिंध और पश्तून क्षेत्र में भी विद्रोह जोर पकड़ रहा है। सच तो यह है कि आज जिन क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान कहा जाता है, जिसमें बलूचिस्तान के साथ सिंध, पंजाब और खैबर पख्तूनख्वा भी शामिल हैं— वहां विभाजन पूर्व, इस्लाम के नाम पर अलग देश का विरोध था। यदि मजहब के आधार पर किसी देश का निर्माण होता, तो विश्व में 56 अलग-अलग इस्लामी और 16 ईसाई देश क्यों है? सिंध इत्तेहाद पार्टी के शीर्ष नेता अल्लाह बख्श मुहम्मद उमर सूमरो (1900–43) अविभाजित भारत में सिंध के दो बार (1938-1940 और 1941-1942) प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने मजहब के आधार पर मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाने की अवधारणा को इस्लाम विरोधी बताया था। 1943 में अल्लाह बख्श की हत्या कर दी गई, जिसमें मुस्लिम लीग का हाथ होने का संदेह जताया गया।
वर्ष 1945 तक अखंड पंजाब में इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान के लिए कोई राजनीतिक समर्थन नहीं था। वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव में पंजाब के लोगों ने घोर मजहबी मुस्लिम लीग के बजाय ‘सेकुलर’ यूनियनिस्ट पार्टी को चुना। इस दल ने सिकंदर हयात खान (1892–1942) के नेतृत्व में अकाली दल और कांग्रेस के साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाई। सिकंदर ने 1940 के ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ को अस्वीकार कर दिया। उनके निधन के बाद रसूखदार मलिक खिजर हयात तिवाना (1900–1975), जिनके पास तब कई हजार एकड़ भूमि का स्वामित्व था— उन्होंने 1942 से पंजाब सरकार की बागडोर संभाली। जिन्नाह ने तिवाना पर दबाव बनाया कि वे यूनियनिस्ट पार्टी को मुसलमानों की पार्टी घोषित करें। परंतु तिवाना ने इसके आगे न झुकते हुए पंजाब में हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों के साथ मिलकर काम करने की घोषणा कर दी। इससे खिन्न जिन्नाह ने अंग्रेजी शासन के साथ मिलकर पंजाब में मजहबी उन्माद भड़काया। देखते ही देखते यूनियनिस्ट पार्टी बिखर गई और 1946 के चुनाव में पंजाब में मुस्लिम लीग का वर्चस्व हो गया। राजनीति से संन्यास लेकर जब तिवाना अक्टूबर 1949 में नवगठित पाकिस्तान के पंजाब में रहने पहुंचे, तब वहां की इस्लामी सरकार ने खुन्नस निकालते हुए उनकी संपत्ति जब्त कर ली। मजहबी उत्पीड़न से बचने के लिए वे अमेरिका जाकर बस गए और 1975 में वहीं अंतिम सांस ली।
खैबर पख्तूनख्वा में भी पाकिस्तान के लिए समर्थन नहीं था। 1946 के प्रांतीय चुनावों में, मुस्लिम लीग को तत्कालीन उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (वर्तमान खैबर पख्तूनख्वा) में केवल 47 प्रतिशत मत मिले थे। इसी क्षेत्र में जन्मे अब्दुल गफ्फार खान (सरहदी गांधी), जिन्हें गांधीजी के घनिष्ठ मित्र और हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थक माना जाता था— उन्होंने भी मजहबी आधार पर भारत के विभाजन का कड़ा विरोध किया। गफ्फार ने पाकिस्तान में पश्तूनों के स्वायत्तता हेतु संघर्ष किया, जिसके कारण उनका अधिकतर समय जेल या फिर निर्वासन में बिता। इसी तरह जब पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली पहचान को पाकिस्तानी सत्ता-अधिष्ठान बार-बार कुचलता रहा, तब शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में उठी विद्रोह की आग ने वर्ष 1971 में बांग्लादेश को जन्म दिया। अब यही स्थिति बलूचिस्तान में दिख रही है।
यह पहली बार नहीं है, जब ‘उम्माह’ पर प्रश्नचिन्ह लगा हो। अहमदिया मुस्लिमों की पाकिस्तान निर्माण में बहुआयामी भूमिका थी। 1940 में पाकिस्तान के मजहबी विचार को अहमदिया मुस्लिम मुहम्मद जफरुल्लाह ने ही लेखबद्ध किया था, जो न केवल पाकिस्तान के पहले विदेश मंत्री बने और संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मुद्दे पर भारत के विरुद्ध पैरवी भी करते थे। जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया, तब अहमदिया मुस्लिमों के खलीफा मिर्ज़ा बशीर-उद-दीन महमूद अहमद ने भारतीय सेना के विरुद्ध ‘फुरकान फोर्स’ नामक सैन्यबल का गठन किया था। सोचिए, इस्लाम के नाम पर सपनों के जिस देश के लिए अहमदिया मुसलमान लड़े, उसी पाकिस्तान में उन्हें मजहबी कारणों से 1974 में गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया। तब से वे भी अन्य ‘काफिरों’ की भांति मजहबी प्रताड़ना के शिकार हैं।
अक्सर, नैरेटिव बनाया जाता है कि रमजान के दिन हिंदुओं को ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ से शोभायात्रा नहीं निकालनी चाहिए, क्योंकि भजन-कीर्तनों से मुस्लिम समाज की ‘भावना’ आहत होती है। यदि ऐसा है, तो रमजान के दिनों में ही बलूच विद्रोहियों ने पाकिस्तानी सैनिकों- नागरिकों को क्यों निशाना बनाया? क्यों सीरिया में रमजान के समय नए इस्लामवादी शासकों और बशर अल-असद समर्थित अलावी संप्रदाय के लड़ाकों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें एक हजार से अधिक लोग मारे गए? क्या यह सच नहीं कि पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान के साथ अन्य शिया-सुन्नी जिहादी संगठन भी स्वयं को ‘सच्चा मुसलमान’ बताने के नाम पर एक-दूसरे की मस्जिदों, अनुयायियों या पाकिस्तानी सेना पर आतंकी हमले करते है? यदि ‘उम्माह’ वाकई व्यवहारिक है, तो सऊदी-ईरान, तुर्की-सीरिया और पाकिस्तान-अफगानिस्तान में शत्रुभाव का कारण क्या है?
पाकिस्तान कोई राष्ट्र नहीं, बल्कि एक जहरीली वैचारिक परियोजना है, जिसकी नींव केवल भारत-हिंदू विरोधी घृणा पर केंद्रित है। बीते 12 मार्च को पाकिस्तानी पंजाब के शिक्षा विभाग ने ‘अनैतिक-अश्लील’ के नाम पर स्कूल-कॉलेजों में हिंदी गीतों पर प्रतिबंध लगा दिया। यदि ‘अनैतिकता-अश्लीलता’ ही मापदंड था, फिर पश्चिमी नाच-गानों पर पाबंदी क्यों नहीं लगी? यह पाकिस्तान की कोई पहली विडंबना नहीं है। पाकिस्तान अपनी मौलिक पहचान को भारतीय सांस्कृतिक जड़ों से काटकर मध्यपूर्वी-खाड़ी देशों की अरब संस्कृति में समाहित करने का असफल प्रयास कर रहा है। इसका एक बड़ा प्रमाण पाकिस्तान में 40 प्रतिशत से अधिक लोगों के पंजाबी भाषी और उर्दू-अंग्रेजी राजभाषा होने के बाद भी विदेशी फारसी लिपि में कौमी तराना (राष्ट्रगान) होना है। इन्हीं विरोधाभासों के कारण पाकिस्तान गहरे राजनीतिक, सामाजिक, भूगौलिक और आर्थिक संकट में है, जो उसे लंबे समय तक एक ईकाई के रूप में एकजुट नहीं रहने देगा।
(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)