चित्तौड़ : कल्ला मीनारें अकबर की क्रूरता की परिचायक थीं
नरेंद्र भदौरिया
अकबर की उम्र तब (1566) केवल 24 साल थी। उसे 13 साल की वय में राज सिंहासन मिल गया था। अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर 1566 में राणा से बहुत करारी मात खाई थी। तब राणा उदय सिंह 44 साल के परिपक्व योद्धा थे। वे संग्राम सिंह के छोटे पुत्र थे। धात्री मां पन्ना ने 6 साल की वय में अपने बेटे चंदन की बलि देकर उन्हें बचाया था। उदय सिंह को पन्ना ने राणा के समय के एक वीर सैनिक की माता वीरप्रसूता आशा की सहायता से पाला था। आशा स्वयं भी योद्धा थीं। पन्ना, आशा और कई महावीर योद्धाओं के प्रशिक्षण का प्रतिफल था कि राणा उदय सिंह ने बनवीर को चित्तौड़ दुर्ग से खदेड़ कर 1540 में राणा सांगा के उत्तराधिकारी स्वरूप राज सिंहासन ग्रहण किया था।
अकबर राणा उदय सिंह से चित्तौड़ दुर्ग जीतने के लिए बहुत व्यग्र था। वह 1566 में चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण करके बुरी तरह हार गया। लौटते समय उसके साथियों ने उसे दरगाह पर माथा टेकने का परामर्श दिया। सन 1542 की 15 अक्टूबर को जन्मा अकबर बचपन से ही बहुत क्रूर और गुरूर वाला था। राणा उदय सिंह से मिली मात उसे चुभ गयी थी। उसकी सेना के 23 हजार से अधिक सैनिक तो भाग खड़े हुए थे। यह अकबर के लिए बड़े शर्म की बात थी। चित्तौड़ दुर्ग में प्रविष्ट होने के किसी गुप्त रास्ते या सुरंग की जानकारी उसे नहीं मिल पाई थी। दुर्ग के प्रवेश द्वारों – राम पोल, लक्ष्मण पोल, जोली पोल में से किसी को अकबर के योद्धा तोड़ नहीं पाए थे। अकबर के आक्रमण की व्यूह रचना इतनी बेढंगी थी कि हर मोर्चे पर उसके सैकड़ों सैनिकों के साथ कोई ना कोई बड़ा योद्धा धाराशायी होता रहा। राणा उदय सिंह से मिली हार से तिलमिलाया अकबर 20 अक्टूबर 1567 को चित्तौड़गढ़ लौटा। इस बार उसके साथ 75 हजार से अधिक सैनिक थे। बारूद के भंडार के साथ खंदक खोदने वाले लोग भी थे। लोहे के विशाल गोलों को कमाननुमा चक्रियों से दीवारों पर मारने वाले लोग थे। दो बड़ी तोपें और अन्य अस्त्र शास्त्रों से सज्जित सेना थी। राजस्थान के उन गद्दारों ने अकबर के साथ इस चढ़ाई में हिस्सा लिया था जिन्हें मेवाड़ की वीरता और शौर्य की भावना से गहन ईर्ष्या थी।
अकबर की सेना ने चित्तौड़गढ़ का लंबे समय तक घेराव किया। अधिक सैन्य बल से सीधे जूझना बुद्धिमत्ता नहीं थी। दुर्ग अजेय तभी तक रह सकता था, जब तक उसके भीतर रह रहे सैनिकों को अन्न जल मिलता रहे। दुर्ग की दीवारों को तोड़ने के यत्न अकबर की सेना ने पहले दिन से प्रारंभ कर दिए थे। दुर्ग की दीवारों के किनारे गहरे खंदक खोदने वालों पर दुर्ग की दीवारों पर खड़े सैनिक आग के जलते गोले बरसाते थे। कई बार वहां जमा अकबर के सैनिक इन गोलों के कारण बारूद में आग भड़कने से मारे जाते भी जाते थे। राणा उदय सिंह के समर्थन में लगभग 30 हजार किसानों (जिनमें महिलाएं भी थीं) ने दुर्ग के बाहर घेरा बनाकर गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। इस तरह के हमलों से अकबर दो बार स्वयं भी दूर हट कर बच पाया । अंततः उसने दुर्ग जीतने से पहले इन किसानों, महिलाओं का संहार करने का आदेश दिया। अकबर की वीरता के गीत गाने वाले इतिहासकार मानते हैं कि कोई 25 हजार किसानों का संहार अकबर को यह दुर्ग जीतने के पहले करना पड़ा। ऐसा नहीं करता तो चित्तौड़ से उसे एक बार फिर मात खाकर लौटना पड़ता ।
एक बात जिसे इतिहासकार छुपाते हैं, वह कल्ला मीनारों का रहस्य है। कल्ला शब्द फारस भाषा में मुण्ड ( सिर) को कहते हैं। अकबर का पालक उस्ताद (गुरु) बैरम खान पहला क्रूर व्यक्ति था, जिसने भारत में कल्ला मीनारें बनाकर मुगलों की सेना का भय पैदा करने की परिपाटी शुरू की। मुगल सेना से युद्ध करने वाले चित्तौड़ के निकटवर्ती गांवों के राष्ट्रभक्त किसान अपना बलिदान दे रहे थे। वीरगति को सहर्ष स्वीकार करने वाले इन वीरों के मुण्ड धड़ से काटकर ऐसे एकत्र किए जाते की मीनारें खड़ी दिखाई देतीं। इन्हें ही कल्ला मीनारें कहा जाता था। ये कल्ला मीनारें अकबर और बैरम खान की क्रूरता की परिचायक थीं।