कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण : तेलंगाना में ओबीसी कोटे से मुसलमानों को आरक्षण
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रमेश शर्मा
कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण : तेलंगाना में ओबीसी कोटे से मुसलमानों को आरक्षण
कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चलते हुए एक और बड़ा निर्णय लिया है। कांग्रेस के नेतृत्व में काम करने वाली तेलंगाना सरकार ने ओबीसी वर्ग के लिये निर्धारित आरक्षण कोटे से मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की है। तेलंगाना से जनसंख्या के आंकड़ों में भी हेरफेर करने के आरोप सामने आ रहे हैं। पिछली सरकार के सर्वे में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या 51 प्रतिशत थी। लेकिन वर्तमान सरकार में यह आंकड़ा घटकर 46 प्रतिशत रह गया। इससे यह चर्चा उठ खड़ी हुई है कि ओबीसी कोटे से मुसलमानों आरक्षण देने के लिये ही आंकड़ों में यह हेर फेर की जा रही है। यह आरोप किसी और ने नहीं अपितु केन्द्रीय मंत्री बंटी संजय ने लगाया है। यदि केन्द्रीय मंत्री ने आरोप लगाया है तो इसमें कुछ तथ्य अवश्य होगा। काँग्रेस और उसके सहयोगी गठबंधन की सरकारों ने पहले भी ओबीसी कोटे के अंतर्गत अपने अपने प्रदेशों में मुसलमानों को आरक्षण दिया है। इसमें कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, बंगाल जैसे राज्य शामिल हैं। कर्नाटक में 32 प्रतिशत ओबीसी कोटा है, इसमें भी मुस्लिम समाज को चार प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय हो गया है। कर्नाटक में काँग्रेस ने अपनी सरकार के दौरान पहले भी ऐसा निर्णय लिया था। लेकिन बीच में भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार आ गई थी, उस सरकार ने मुस्लिम समाज को ओबीसी में शामिल करने का निर्णय ओबीसी हितों के विपरीत माना और कांग्रेस के निर्णय को रद्द कर दिया था। कर्नाटक में जब काँग्रेस सरकार पुनः आई तो ओबीसी कोटे से मुसलमानों को आरक्षण देने का आदेश फिर लागू हो गया। कर्नाटक में ओबीसी कोटे से मुसलमानों को दिया जाने वाला यह आरक्षण 3.5 प्रतिशत है। वहीं केरल में ओबीसी कोटे के अंतर्गत मुसलमानों को दिया जाने वाला आरक्षण 12 प्रतिशत है। यह किसी भी प्राँत में मुसलमानों को दिये जाने वाले आरक्षण का सर्वाधिक है। केरल में वामपंथी सरकार को मुस्लिम लीग का भी समर्थन है। यह वही मुस्लिम लीग है, जिसने मजहबी आधार पर भारत का विभाजन कराया था और अगस्त 1946 में अपने “डायरेक्ट एक्शन” के अंतर्गत पूरे देश में हिन्दुओं पर हमले किये थे। विशेषकर बंगाल और पंजाब में लाखों हिन्दुओं की हत्या की गई थी। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने अमेरिका यात्रा में इसी मुस्लिम लीग को सेकुलर बताया था। जिस मुस्लिम लीग का इतिहास कट्टरपंथ और घोर साम्प्रदायिकता से भरा है, उसे सेकुलर बताना तुष्टीकरण की पराकाष्ठा मानी जा रही है।
मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के अंतर्गत कांग्रेस इन दिनों दो बातों पर जोर दे रही है। एक आरक्षण का कोटा बढ़ाने के लिये और दूसरा जाति आधारित जनगणना कराने पर। कांग्रेस द्वारा आरक्षण का कोटा बढ़ाने के पीछे भी मुसलमानों को आरक्षण देना है और जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य भी यही है। चूँकि काँग्रेस ओबीसी कोटे में मुसलमानों को शामिल करना चाहती है ताकि राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी का प्रतिशत सामने आ सके और उस कोटे के अंतर्गत मुसलमानों को आरक्षण दिया जा सके। चूँकि भारत का संविधान धार्मिक आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता। इसलिए मजहबी आधार पर मुसलमानों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। संविधान में आरक्षण का अधिकार अनुसूचित जाति, जनजाति को ही है। इस वर्ग में हिन्दू, सिख और बौद्ध तो हैं, पर मुसलमान नहीं आते। मुसलमानों को जनजाति और अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इसलिये ओबीसी के लिए भी आरक्षण की माँग उठ रही है ताकि इस वर्ग समूह में मुसलमानों को शामिल करके आरक्षण का लाभ दिया जा सके। कांग्रेस ने इसका रास्ता भी निकाल लिया है। कांग्रेस जिन दिनों सत्ता में थी, तब दो आयोग बनाये गये थे। एक सच्चर कमेटी और दूसरी रंगनाथ मिश्रा कमेटी। इन दोनों कमेटियों की रिपोर्ट कांग्रेस की इच्छा के अनुरूप आई। इनमें मुस्लिम समुदाय पिछड़ा माना गया है। रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने तो मजहबी आधार पर भी अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की अनुसंशा कर दी है। इस अनुशंसा में मुसलमानों को 10 प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों को पाँच प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही है। इसी के बाद से काँग्रेस ने मुसलमानों को आरक्षण देने और कोटा बढ़ाने की मांग आरंभ कर दी। कांग्रेस केवल माँग करने तक ही नहीं रुकी अपितु जिन राज्यों में उसकी और सहयोगी गठबंधन दलों की सरकारें हैं, उन्होंने इस दिशा में काम करना भी आरंभ कर दिया है। इसी की झलक तेलंगाना, केरल, कर्नाटक और बंगाल जैसे प्राँतों में देखी जा सकती है।
काँग्रेस की यह तुष्टीकरण शैली केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। वह भारत के बाहर अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी इस धारा पर काम कर रही है। इसे फिलीस्तीन में आतंकवादी समूहों पर इस्राइल की कार्यवाही का विरोध करने से समझा जा सकता है। कांग्रेस फिलीस्तीन के समर्थन में खुलकर सामने आई, सड़क से संसद तक आवाज उठाई गई। लेकिन पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों पर वैसी प्रतिक्रिया नहीं आई, जैसी फिलीस्तीन के समर्थन में आई। कांग्रेस नेता प्रियंका वाड्रा तो फिलिस्तीन के समर्थन में बैग लेकर संसद में भी पहुँच गई थीं।
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी संविधान के प्रतीक के रूप में एक लाल पुस्तक लेकर चलते हैं। संविधान को सर्वोच्च बताने की बात भी हर सभा में करते हैं, लेकिन संभल में वे उन लोगों के समर्थन में सामने आये, जिन्होंने संवैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत सर्वे का विरोध किया था और हिंसा की थी। चूँकि वे सभी मुस्लिम समाज के थे, क्या इसीलिए राहुल गाँधी ने उन्हें पीड़ित बताया और उनके परिवारों से मिलने भी गये।
ऐसा नहीं है कि सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति अपनाई है। काँग्रेस की प्राथमिकता में सदैव मुसलमान ही रहे हैं। कांग्रेस ने अपनी यह प्राथमिकता कभी छुपाई भी नहीं। प्रधानमंत्री के रूप में कांग्रेस नेता मनमोहन सिंह ने खुलकर कहा था कि “भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों है”। यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो कही ही थी, उनसे पहले जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी व उनके बाद नरसिम्हाराव आदि सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में लिये गये निर्णयों में भी यह स्पष्ट दिखती है, जिनमें मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत मुसलमानों को मजहबी विशेषाधिकार और वक्फ बोर्ड को विशिष्ट अधिकार देने जैसे निर्णय शामिल हैं। यही नहीं यदि संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय का कोई आदेश आया तो मुस्लिम तुष्टीकरण के लिये संसद द्वारा संविधान संशोधन कर दिया गया। इसे शाहबानो को न्यायालय द्वारा गुजारा भत्ता देने के आदेश से समझ सकते हैं। एक मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने का यह आदेश संसद द्वारा बदल दिया गया था। इसके अतिरिक्त नरसिम्हराव सरकार में धार्मिक स्थलों के 1947 के स्वरूप को यथास्थिति में बनाये रखने का संशोधन भी मुस्लिम तुष्टीकरण का एक बड़ा उदाहरण है।
मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति और निर्णयों से कांग्रेस का इतिहास भरा है। कुछ निर्णय ऐसे हैं, जिनसे भारतीय समाज जीवन को स्थाई दर्द मिला है। ऐसा एक निर्णय वर्ष 1921 का है। कांग्रेस ने तब स्वतंत्रता के लिये आरंभ हुए असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन को जोड़ने की घोषणा की थी और ये दोनों आँदोलन साथ साथ चलाये थे। असहयोग आँदोलन तो भारत की स्वतंत्रता के लिये था, लेकिन खिलाफत आँदोलन मुसलमानों की मजहबी सत्ता के प्रमुख खलीफा को बहाल करने के लिये था। खलीफा का भारत से कोई संबंध नहीं था। बल्कि मध्यकाल में खलीफा के आदेश पर भारत पर हुए हमलों, लूट और कत्लेआम का एक लंबा इतिहास है। उन दिनों खलीफा का केन्द्र तुर्की था। खलीफा के समर्थन में दुनिया के किसी मुस्लिम देश ने कोई आँदोलन नहीं चलाया। लेकिन कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण के लिये भारतीय जन मानस को खलीफा के समर्थन में सड़क पर उतार दिया था। इससे खलीफा की बहाली तो न हो सकी, लेकिन मुस्लिम लीग को पूरे भारत के मुसलमानों में कट्टरपंथ फैलाने और उन्हें एकजुट करने का रास्ता मिल गया था। यही कट्टरता आगे चलकर भारत विभाजन और लाखों हिन्दुओं की हत्या का कारण बनी। इसी वर्ष भारत में दो घटनाएँ और घटी थीं। एक घटना मालाबार में घटी। वहाँ कट्टरपंथियों द्वारा हिन्दुओं से पूरा मालाबार खाली कराने के लिये किये गये सामूहिक नरसंहार, स्त्रियों के अपहरण से पूरा क्षेत्र काँप गया था। गांव के गाँव उजाड़ दिये गये थे। कई दिनों तक लाशें पड़ी सड़ती रही थीं। खेतों और घरों पर कब्जे कर लिये गये थे। लेकिन कांग्रेस ने एक शब्द न कहा, चुप्पी साधे रही। इसी बीच असहयोग आँदोलन के दौरान चौरी चौरा में हिंसा हुई तो आँदोलन वापस ले लिया। चौरी चौरा हिंसा के लिये अधिकांश हिन्दुओं को आरोपी बनाया गया था। इसमें कुछ तो गोरक्ष पीठ के संत थे। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति का एक और बड़ा उदाहरण अंग्रेजी काल में लोकल असेम्बली चुनाव की नियमावली तैयार करने में अंग्रेज सरकार के निर्णय पर सहमति जताने में दिखता है। मुस्लिम लीग अँग्रेजों से मिलकर ऐसी चुनाव प्रक्रिया चाहती थी, जिससे अधिक संख्या में मुस्लिम प्रतिनिधि चुने जा सकें। अंग्रेज लीग के समर्थन में निर्णय तो चाहते थे लेकिन विवाद रहित। इसके लिये अंग्रेजों ने गाँधीजी एवं अन्य काँग्रेस नेताओं से बात की। काँग्रेस ने सहमति दे दी। हालाँकि काँग्रेस में सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं का एक समूह ऐसा था, जो साम्प्रदायिक आधार पर किसी निर्णय के पक्ष में नहीं था। लेकिन तब कहा गया अभी आरंभ है भारतीयों को सत्ता में सहभागिता मिल रही है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि किसका रिलिजन क्या है। यह तर्क कहने और सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन जिस प्रकार मुस्लिम लीग कट्टरपंथ फैलाकर भविष्य की रचना कर रही थी और 1930 में पाकिस्तान की रूपरेखा भी सामने आ गई थी, ऐसे में बिना विचार किये सहमति देने का मूल्य पूरे देश ने और विशेषकर हिन्दुओं ने कितना चुकाया इस सब का इतिहास के पन्नों में उल्लेख है। अंग्रेजों ने यह चुनाव प्रक्रिया कुछ ऐसी बनाई थी कि मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में अधिकांश हिन्दू वोट न डाल सकें। परिणामस्वरूप पंजाब एवं बंगाल में कट्टरपंथी अलगाववादी सत्ता में आ गये। 16 अगस्त 1946 में मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन में सामूहिक हत्याओं में ये सत्ताएँ भी सहभागी रहीं। तुष्टीकरण की दिशा में कांग्रेस का एक बड़ा निर्णय मुस्लिम लीग से जुड़े कट्टरपंथियों को संविधान सभा में सदस्य स्वीकार करने का भी रहा। भारत की संविधान सभा अंग्रेजीकाल में बनी थी। इसमें लीग समर्थक कट्टरपंथी भी थे, जो विभाजन के बाद भारत छोड़ गये थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत विभाजन का संकेत दे दिया था। मुस्लिम लीग सतर्क थी। उसने अंग्रेजीकाल में अलग पाकिस्तान के लिये कोई संविधान सभा नहीं बनाई। जो बनाई वह पाकिस्तान का आकार निर्धारित होने के बाद बनाई। लेकिन कांग्रेस अंग्रेजीकाल में ही संविधान सभा बनाने और इसमें मुस्लिम लीग समर्थक कट्टरपंथियों को सदस्य बनाने पर सहमत हो गई थी। कट्टरपंथियों द्वारा बनाया गया वातावरण और उसे काँग्रेस के समर्थन का ही यह परिणाम है कि विभाजन के बाद भी भारत में वह वातावरण बना रहा जो विभाजन की भीषण त्रासदी का कारण बना। सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति, संस्था और राष्ट्र अनुभवों से सीखता है और भविष्य की निरापद यात्रा का मार्ग अपनाता है, लेकिन काँग्रेस अनुभवों से सीखने के बजाय आज भी तुष्टीकरण की उसी धारा पर दृढ़ता से चल रही है, जो कट्टरपंथ को बढ़ावा देती है।
भारत का वर्तमान वातावरण किसी से छिपा नहीं है संभल, बरेली या बहराइच ही नहीं लोकसभा चुनाव से लेकर हाल ही संपन्न दिल्ली विधानसभा चुनाव तक कट्टरपंथियों ने जिस प्रकार मुस्लिम समाज को एकजुट करने का प्रयास किया, उसकी झलक प्रचार के दौरान भी दिखी और मतदान में भी। प्रचार के दौरान कट्टरपंथियों का महाराष्ट्र में तेरह सूत्रीय मांग पत्र सामने आया और दिल्ली चुनाव प्रचार में वोट जिहाद जैसा शब्द सुनाई दिया। यह सब पूरे भारत को सतर्क होने का स्पष्ट संकेत देता है। फिर भी कांग्रेस द्वारा ओबीसी का लेबल लगाकर मुसलमानों को आरक्षण की सीमा में लाना आश्चर्यजनक है।