कृषि बिल : अन्नदाता का संशय में रहना किसी भी स्थिति में सही नहीं
मनीष गोधा
कृषि क्षेत्र में लम्बित सुधारों के लिए केन्द्र सरकार जो कृषि बिल लेकर आई है, उन पर पूरे देश में बहस जारी है। बिलों को लेकर केन्द्र सरकार के अपने तर्क हैं, वहीं विपक्ष कड़ा विरोध कर रहा है। वामपंथी दलों से जुड़े किसान और जनसंगठन 25 सितम्बर को भारत बंद का आह्वान कर चुके हैं और देश का किसान अभी भी इन कृषि बिलों को पूरी तरह समझ नहीं पाया है। समाचार माध्यमों और सोशल मीडिया तथा अन्य माध्यमों से किसान तक भ्रमित करने वाली जानकारियां पहुंच रही हैं। विरोधी पक्ष तीनों कानूनों की अच्छी बातों को छुपा कर सिर्फ वो बातें सामने ला रहा है, जिससे किसान आंदोलित हों और सरकार के विरुद्ध माहौल बने। मौसम और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के बीच खेती करने वाला किसान बहुत बडा दांव खेलता है, ऐसे में अन्नदाता का संशय में रहना किसी भी स्थिति में सही नहीं है।
सरकार का कहना है कि कृषि व्यापार सम्बन्धी ये कानून किसान को आढ़तियों, दलालों और साहूकारों के चंगुल से मुक्ति दिलाने, उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने और आधुनिक समय के हिसाब से कृषि व्यापार को दिशा देने वाले हैं। इसके लिए किसानों को अपनी उपज मंडी में ही बेचने की बाध्यता से मुक्त कर दिया गया है। किसान पूरे देश में कहीं भी किसी भी पैन कार्ड धारक व्यक्ति को अपनी उपज बेच सकते हैं। इसी तरह अनुबंध आधारित कृषि के तहत यह व्यवस्था की गई है कि किसी भी स्थिति में किसान की जमीन उससे छीनी नहीं जा सकेगी। किसान का अपनी जमीन पर मालिकाना हक बना रहेगा।
वहीं आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत गेहूं, चावल, आलू, प्याज आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर लाया गया है। सरकार का तर्क है कि ये कृषि बिल किसान के हित में हैं और इससे किसानों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं होगा। किसानों की हितों की रक्षा के लिए कानूनों में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं और किसानों की आय को दोगुना किए जाने के लक्ष्य की ओर सरकार का यह महत्वपूर्ण कदम है। सरकार की मंशा अच्छी हो सकती है और सरकार जो वादा कर रही है, वह कितना सही साबित होगा यह आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन कुछ आशंकाएं ऐसी जरूर है, जिनके बारे में सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी ही चाहिए। इन आशांकओं या कहें कि कानूनों में दिखी कमियों के बारे में भारतीय किसान संघ ने समय रहते सरकार को सूचित और सचेत भी कर दिया था। किसान संघ के प्रतिनिधि केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से मिले भी थे, लेकिन जिन कमियों की ओर ध्यान दिलाया गया, उन्हें दूर करने के लिए अधिनियमों में कुछ किया नहीं गया। ऐसे में ये कमियां आज भी कायम हैं और ये कमियां ही विपक्ष को इन बिलों के विरोध का बडा आधार प्रदान कर रही हैं।
किसानों की सबसे बडी चिंता न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर है। हम सब जानते हैं कि कृषि अपने आप में बहुत जोखिम का काम है। किसान की पकी पकाई फसल कब किसी प्राकृतिक आपदा की शिकार हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में सरकार का न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाजार हस्तक्षेप के तहत किए जाने वाले उपाय किसान के लिए बहुत बडी राहत प्रदान करते हैं। ये कानून मंडी से बाहर फसल बेचने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं देते हैं। इसके साथ ही मंडियों की व्यवस्था भले ही आढ़तियों और दलालों के चंगुल में फंसी हो, लेकिन उसमें किसान अपनी फसल बेच कर पैसा पाने के मामले में निश्चिंत रहता है, क्योंकि वहां का व्यापारी लाइसेंसधारी होता है और कहीं भाग नहीं सकता। किसान के लिए इस तरह की सुरक्षा बेहद जरूरी है।
इसी तरह संविदा कृषि के मामले को देखें तो यह व्यवस्था काफी समय से लागू है, लेकिन किसान आज भी इसे अपनाने से हिचकते हैं, क्योंकि बडी कम्पनियों का डर उन्हें हमेशा सताता है। किसान चाहे आज कितना भी पढ़ लिख गए हों, उनकी संतानें भी भले ही पढ़ लिख गई हों, लेकिन बड़ी कम्पनियों के साथ होने वाले करार को वे आज भी आसानी से नहीं समझ सकते। किसान को हमेशा यह डर सताता है कि इन करारों में पता नहीं कहां, क्या ऐसा होगा जो उन्हें नुकसान पहुंचा देगा। किसानों की एक आशंका यह भी है कि किसानों की जमीन को लेकर भले ही सुरक्षा प्रदान कर दी गई हो, लेकिन उत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग की बाध्यता, जीएम बीजों के उपयोग की बाध्यता जैसे करार करने के लिए उन्हें मजबूर कर सकती है। ऐसे में अनुबंध आधारित कृषि को लेकर किसानों की कई आशंकाओं का समाधान अभी भी नहीं हो पाया है। वहीं किसान की परिभाषा में कार्पोरेट कम्पनियों को शामिल किया जाना भी किसानों को स्वीकार्य नहीं है।
भारतीय किसान संघ के प्रदेश महामंत्री बद्रीनारायण चौधरी कहते हैं कि सरकार की मंशा अच्छी हो सकती है, लेकिन कानूनों में जो कमियां हमने बताई थीं, उन पर सरकार को विचार करना चाहिए था और बदलाव भी करने चाहिए थे। ये ऐसी आशंकाएं हैं जिनका समाधान नहीं होता है तो किसान इन बदलावों को मन से स्वीकार नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि इन विषयों पर हमारी किसानों के बीच बातचीत जारी है और इस विषय पर आगे की रणनीति के बारे में चर्चा की जा रही है। हालांकि हमारा मानना है कि सरकार तीन बिल ले कर आई है तो अब एक चौथा बिल और लाए, जिसमें किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी जरूर दी जाए।
उधर वामपंथी दलों से जुड़े किसान और अन्य संगठनों की बात करें तो वे पूरी तरह से आंदोलन के लिए तैयार हैं और इसके लिए 25 सितम्बर को देशव्यापी बंद का आह्वान भी कर चुके हैं। माकपा के विधायक रह चुके किसान नेता अमराराम मीडिया में बातचीत में साफतौर पर कह चुके हैं कि सरकार ने लोकसभा में संख्या बल और राज्यसभा में जोर जबर्दस्ती से इन कानूनों को पारित भले ही करा लिया हो, लेकिन हम इसे धरातल पर लागू नहीं होने देंगे। किसान इसके लिए भी किसी भी तरह से तैयार नहीं है।
इन हालात में सरकार इन कानूनों को यदि मौजूदा स्वरूप में ही लागू करना चाहती है तो यह बहुत जरूरी है कि गांव गांव में जाकर किसानों की हर आशंका को दूर किया जाए और किसानों के हितों की रक्षा के लिए जो सुरक्षा के उपाय इन कानूनों में किए गए हैं, उन्हें सही ढंग से लागू कराया जाए। सरकार के विरुद्ध मुद्दों की तलाश में भटक रहे विपक्ष को इन कानूनों की कमियों ने बड़ा मौका दे दिया है। ऐसे में यह लड़ाई राजनीतिक भी है।
वैसे भी अन्नदाता के मन में सुरक्षा का भाव बहुत जरूरी है। उसके मन में संशय होना ना तो किसान के लिए अच्छा है और ना ही सरकार और देश के लिए अच्छा है।