गंगा जमनी तहजीब एक मिथक या सच्चाई?

गंगा जमनी तहजीब एक मिथक या सच्चाई?

बालू दान

गंगा जमनी तहजीब एक मिथक या सच्चाई?

भारत पर सदियों तक अनेक आक्रमण हुए, जिनमें हमने   आक्रांताओं को हराया भी है और हारे भी हैं, लेकिन हमारे यहाँ आत्मसातीकरण का ऐसा पुण्य प्रवाह रहा कि उनमें से  अधिकांश आक्रांता हममें विलीन हो गए। आज यह पता करना सम्भव नहीं है कि कौन शक, हूण, कुषाण या यूनानी है। जो राजनीतिक रूप से विजित थे, वे पराधीनों की संस्कृति में विलीन हो गए। ऐसा मात्र भारतीय संस्कृति में ही हो सकता था।

परन्तु मध्यकालीन इस्लामिक हमलावरों के साथ ही विलीनीकरण का यह प्रवाह थम गया। उन्होंने राजसत्ता के सहारे शोषण व तलवार के माध्यम से “सांस्कृतिक हिंसा” का तांडव रचा। इतिहास गवाह है “तुमने क्या क्या न किया, हमने क्या क्या न सहा”..। मंदिर टूटे, मूर्तियां दूषित हुईं, सम्पत्ति चुराई गई, स्त्रियों की इज्जत लूटी गई, बलात मतांतरण हुआ, जजिया वसूला गया, आरे पर काटा गया, जिंदा दीवार में चिनवाया, खौलते तेल में जलाया, ऐसा ही और भी बहुत कुछ..। इन सब कारणों से हिन्दू, मुस्लिम शासन में “सांस्कृतिक दमघोटू” की अनुभूति में थे। प्रो. इम्तियाज अहमद स्पष्ट करते हैं कि मध्यकालीन मुस्लिम हिंदुओं के साथ उसी तरह का सांस्कृतिक भेदभाव रखता था, जिस तरह अंग्रेज रंगभेद। वे यह भी लिखते हैं कि मध्यकाल में हिन्दू से मुस्लिम बने व्यक्ति की मुस्लिम समाज में हैसियत तय करने का आधार यह था कि “अपने हिन्दू अतीत को वह जितनी खूबी से मिटाता था, उतनी ही बेहतर हैसियत उसे अपने नए धर्म मे मिलती थी।”ऐसे में किसी सामाजिक संस्कृति (कंपोजिट कल्चर/गंगा जमनी तहजीब) के विकास की कल्पना भी सम्भव है?

दरअसल, औपनिवेशिक शासन से स्वाधीनता के निकट मुख्यत: मुस्लिम पक्षकारों द्वारा इस पदबंध का आविष्कार किया गया जिसे आगे वाममार्गी पूर्वाग्रहियों ने मजबूती प्रदान की। इस समय गंगा जमनी संस्कृति का दावा ऐसे मुस्लिम नेताओं के लिए अनुकूल था जिनके लिए पाकिस्तान जाना सम्भव नहीं था और वे स्वाधीन भारत में “माफिक मुकाम” प्राप्त करना चाहते थे। फिर, जिस ओर प्रो. इम्तियाज इशारा करते हैं, पाकिस्तानी इतिहासकारों ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को उभार कर “द्विराष्ट्र सिद्धांत” का औचित्य प्रतिपादित किया तथा भारतीय जनमानस ने भी देश के विभाजन के “धार्मिक आधार” को स्वीकार किया, तब कतिपय इतिहासकारों (रोमिला थापर, ज्ञानेंद्र पांडे, गोपाल, रामविलास शर्मा, विपिन) ने “भारत के सामाजिक यथार्थ” के विपरीत सामाजिक संस्कृति को पुष्ट करना आरम्भ कर दिया, जबकि इम्तियाज के शब्दों में आजाद भारत “सेक्युलर राज्य व साम्प्रदायिक समाज” की स्थिति में था। स्पष्ट ही है, यह अवधारणा एक राजनीतिक-सांस्कृतिक षड्यंत्र की उपज थी। उल्लेखनीय है कि केवल राष्ट्रवादी चिंतक ही नहीं अपितु रजनी कोठारी व धर्म कुमार तक ने इस पर प्रश्न उठाये हैं।

प्रो. इम्तियाज को यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि भारतीय संस्कृति मूलतः हिन्दू संस्कृति ही है। वह एक ऐसी दीवार के समान है जिस पर अन्य खूंटियां टंगी हुई हैं। यह अवश्य है कि प्रत्येक संस्कृति सदियों के आदान प्रदान से नवीनता प्राप्त करती है लेकिन प्रत्येक देश की अपना एक “कोर कल्चर” या “मेगा कल्चर” होता है। प्राचीन सभ्यता आधारित भारत की अपनी अटूट व सतत संस्कृति रही है, इस कथ्य को आप पसंद नापसन्द कर सकते हैं लेकिन अब झुठला नहीं सकते हैं। वास्तव में, हिन्दू गौरव को, भारत के प्राचीन इतिहास एवं उनके मूल्यों को प्रतिसन्तुलित करने के लिए षड्यंत्रपूर्वक, गंगा जमनी तहजीब, कम्पोजिट कल्चर, कम्पोजिट नेशनलिज्म आदि अवधारणाएं आविष्कृत की गई हैं।

मुस्लिम प्रभुत्व के दौर में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों के आधार पर मौलाना आजाद ने लिखा था कि हिंदुओं का यह ऐतिहासिक आक्रोश भविष्य में भारत में मुसलमानों पर अत्याचार का कारण बनेगा। जैसे जैसे शिक्षा व ऐतिहासिक ज्ञान तक आमजन की पहुंच सहज होती, उसके मन में “इतिहास में हुए शोषण के कारण” सापेक्ष वंचना की भावना भी विकसित होनी ही थी। ऐसे में, आने वाली पीढ़ियों को “अत्याचारों के इतिहास” से विलग रखने हेतु भी ऐसे पदबंध रचे-गढ़े गए।

इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो इस ऐतिहासिक विकास क्रम का स्वाभाविक परिणाम ही है कि राजनीतिक रूप से भारतीय लोकतंत्र में “बहुसंख्यकवाद” प्रभावी हो रहा है। सांस्कृतिक उत्पीड़न की ऐतिहासिक अनुभूति का राजनीतिक प्रस्फुटन होना ही था। इसे मात्र भाजपा की चुनावी राजनीति तक सीमित मानना भूल होगी। जरा पिछले दो तीन आम चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवारों का धार्मिक प्रोफ़ाइल भी देख लीजिए।राहुल गांधी के गोत्र बताने से लेकर पुष्कर नहाने तक तथा गुलाम नबी आजाद से आजम खां तक के कम होते “चुनावी स्टारडम” तक में हम इसे देख सकते हैं…।

क्या यह समय हिन्दू गौरव की सर्वोच्च अभिव्यक्ति का नहीं है? यदि है, तब भी विश्वास कीजिये, यह किसी के शोषण पर आधारित नहीं है, बस “जो जिसका हकदार है, उसे वह मिल रहा है।”

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