गुरु परिवार का बलिदान

गुरु परिवार का बलिदान

डॉ. आशा लता

गुरु परिवार का बलिदानगुरु परिवार का बलिदान

भारत का इतिहास अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। यहॉं ऐसे देशभक्त हुए हैं, जो प्राण देने में जरा भी नहीं हिचके। गुरु गोविंद सिंह का तो पूरा परिवार ही बलिवेदी पर चढ़ गया, वह भी मात्र एक सप्ताह में। उनकी याद में 21 दिसंबर से 27 दिसंबर तक शहीदी सप्ताह मनाया जाता है। गुरु गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु थे। उनके चार साहिबजादों और मॉं गूजरी देवी का बलिदान इतिहास के पन्नों में अमर है। उनका धर्मनिष्ठ त्याग और राष्ट्र प्रेम हमें आज भी प्रेरणा देता है। चारों पुत्रों के बलिदान के बाद गुरु गोविंद सिंह के शब्द “इन पुत्रन के सीस पै, वार दिए सुत चार, चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार!! झकझोर देने वाले हैं। वे अपने बेटों के बलिदान के पश्चात भी एक पिता के रूप में विचलित नहीं हुए बल्कि उन्होंने एक धर्म रक्षक, देशभक्त वीर योद्धा के रूप में अपने पुत्रों पर गर्व किया। उन्हें यह विरासत अपने पिता सिखों के नवें गुरु, गुरु तेग बहादुर से मिली। 

उस समय भारत में मुगल साम्राज्य था। औरंगजेब एक क्रूर और अत्याचारी शासक था। उसने हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए अनेक प्रकार के कष्ट दिए। वह संपूर्ण हिंदू समाज को इस्लाम का अनुयायी बनाना चाहता था। उसने मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाईं। हिंदुओं पर अत्याचार कर उनके अधिकार छीन लिए। उस समय कश्मीर का तत्कालीन नवाब भी कश्मीरी हिन्दुओं के बलात् कन्वर्जन और हिंसा में लगा हुआ था। ऐसे में बड़ी संख्या में लोग गुरु तेग बहादुर के पास सहायता मांगने पहुंचे। गुरु तेग बहादुर असमंजस में पड़ गए, सहायता कैसे की जाए? उन्होंने कहा, यह संकट तो किसी महापुरुष के बलिदान से ही दूर होगा। तभी उनके बालवय पुत्र गोविंद सिंह ने प्रवेश किया और बोले, पिताजी आपसे बढ़कर महापुरुष कौन हो सकता है। उसी समय गुरु तेग बहादुर ने सहायता मांगने आए लोगों से कहा, औरंगजेब को जाकर कह दो कि अगर गुरु तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर लेंगे तो हम भी इस्लाम अपना लेंगे। यह सुनकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ। उसने गुरु तेग बहादुर को दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। 

जब गुरु तेग बहादुर दिल्ली के लिए रवाना हुए तो उन्हें आगरा में ही पकड़कर कैद कर लिया गया। उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए यातनाएं दी गईं और दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु जी का क्रूरता पूर्वक शीश काट दिया गया। बाद में उन्हीं की स्मृति में यहां गुरुद्वारा शीशगंज बनाया गया। गुरु जी जानते थे कि उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। उनके जाने के पश्चात उनके पुत्र गोविंद सिंह जो मात्र 9 वर्ष के थे, सिख पंथ के गुरु बनाए गए। इस पराक्रमी वीर बालक ने मुगलों से अनेक युद्ध किए। गुरु गोविंद सिंह एक महान योद्धा व चिंतक थे। उनकी रचनाएं विश्व की श्रेष्ठ कृतियों में शामिल हैं। गुरु गोविंद सिंह के चार पुत्र थे, अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह। जब गुरु गोविंद सिंह आनंदपुर में थे, तो मुगल सैनिकों ने उनके किले को चारों ओर से घेर लिया। औरंगजेब ने सिख पंथ को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया था। मुगल सेना को किला घेरे छह महीने हो गए थे। राशन-पानी समाप्त हो गया था। ऐसी कठिन परिस्थिति में गुरु गोविंद सिंह ने निर्णय लिया कि अंतिम युद्ध करने की बजाय किला छोड़कर संघर्ष को जारी रखा जाए। 21 दिसंबर, 1705 की रात, गुरु गोविन्द सिंह अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ आनंदपुर का किला छोड़कर चमकौर पहुंचे। यह एक पुराना किला था, जिसकी स्थिति लंबे समय तक टिकने योग्य नहीं थी। मुगलों की सेना ने इस किले को भी घेर लिया। तीन लाख की विशाल मुगल सेना के मुकाबले किले में मात्र दो हजार लोग थे, जिनमें अधिकांश स्त्रियां और बच्चे थे। सैनिकों की संख्या कुछ सौ ही थी। चमकौर में गुरु गोविंद सिंह के नेतृत्व में सिख सैनिकों ने अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शन किया। सैनिक जत्थों का नेतृत्व करते हुए 23 दिसम्बर को पुत्र अजीत सिंह (17 वर्ष) और 24 दिसम्बर को जुझार सिंह (15 वर्ष) वीरगति को प्राप्त हुए। 

24-25 दिसंबर की रात, सरसा नदी पार करते समय गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिखर गया था। माता गूजरी और दो छोटे साहबजादे, जोरावर सिंह (7 वर्ष) और फतेह सिंह (5 वर्ष), नदी पार करते समय अलग हो गए थे। ये तीनों जंगल और पहाड़ों को पार करते हुए एक नगर में पहुंचे। नगर में वे कम्मो नाम के एक व्यक्ति के यहॉं ठहरे। माता गूजरी ने दोनों बालकों को इस बुरे समय में लगातार सिख गुरुओं के त्याग और बलिदान की गाथा सुनाकर उनका मनोबल बनाए रखा। उसी गांव में गंगू नाम का एक व्यक्ति आया हुआ था, जिसने 22 वर्षों तक गुरु गोविंद सिंह के यहां रसोईये का काम किया था। वह उन्हें अपने ग्राम खेड़ी ले गया। धन के लालच में उसने शहर के कोतवाल को गुरु गोविंद सिंह के परिवार के अपने पास होने की जानकारी दे दी। नवाब के सिपाहियो ने मां गूजरी समेत दोनों बच्चों को कैद कर लिया। गिरफ्तारी के बाद सर्द रात में भी उन्हें किले के ठंडे बुर्ज में रखा गया। माता गूजरी अपने पूरी तन्मयता से अपने बच्चों को वीरगाथाएं सुनाती रहीं। जब बच्चों को नवाब वजीर खान के दरबार में लाया गया तो उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा, “वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह।” दरबार में सभी लोग उनके साहस को देखकर स्तब्ध थे, नवाब वजीर खान ने उनको समझाया कि अगर तुम इस्लाम कबूल कर लोगे तो तुम्हें मुंह मांगा इनाम दिया जाएगा। लेकिन दोनों बच्चों ने कहा कि हमें अपना धर्म प्राणों से भी अधिक प्यारा है। हम उसे अंतिम सांस तक नहीं छोड़ेंगे। इतना आत्मविश्वास देखकर नवाब वजीर खान ने कहा, ये बागी पिता के बेटे हैं। इन्होंने दरबार का अपमान किया है, इन्हें इसका दण्ड मिलना चाहिए। काजी ने उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए कहा। लेकिन बच्चों का वही उत्तर था। उन्होंने कहा कि हम अपना धर्म नहीं बदलेंगे। उनसे पूछा गया कि अगर हम तुम्हें छोड़ दें, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा हम सैनिक एकत्रित करेंगे और आपके अत्याचारों को समाप्त करने के लिए युद्ध करेंगे। उनका मनोबल तोड़ने के लिए कहा गया, तुम्हारे पिताजी और बड़े भाई मर चुके हैं। उन्होंने कहा कि मेरे पिता एक वीर योद्धा हैं, उनको कोई नहीं मार सकता। बालकों का इतना साहस देखकर नवाब बहुत विचलित हुआ और उसने गुस्से में उनको दीवार में चिनवाने का आदेश दिया। बच्चों को बीच में खड़ा कर दीवार बनाना प्रारंभ कर दिया गया। लेकिन उस समय भी दोनों बच्चों में कोई डर का भाव नहीं था। उनके चेहरे पर एक सौम्य मुस्कान थी। दीवार को ऊंचा करते-करते उनको बार-बार इस्लाम कबूल करने के लिए कहा जा रहा था। लेकिन उन साहसी बच्चों ने यही कहा कि आप जो दीवार हमारे चारों ओर उठा रहे हैं, यह पाप और जुल्म की दीवार है। आप इस दीवार को जल्दी ऊंचा कीजिए क्योंकि जितना जल्दी से ऊंचा करेंगे, उतना ही जल्दी मुगल सल्तनत का पतन होगा। इस दौरान वे ईश्वर का स्मरण करते रहे। अंतिम क्षण में जोरावर सिंह ने अपने छोटे भाई फतेह सिंह को देखा, अपने भाई को इस हालत में देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गए तो फतेह ने पूछा, क्यों वीर जी मौत से डरते हो? जोरावर ने कहा- मौत से क्या डरना, लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि फतेह तू मेरे बाद संसार में आया और मुझसे पहले विदा हो रहा है। बलिदान होने का अवसर तुझे पहले मिल रहा है। यह बात करके दोनों बच्चे खिल खिलाकर हंस पड़े। दीवार तेजी से उठ रही थी। सूर्यास्त का समय था दोनों भाइयों का प्रभु सिमरन जारी था। धीरे-धीरे दोनों बालक दीवार में समा गए। बच्चों की इतनी धर्मनिष्ठा देखकर पूरा जनसमूह नतमस्तक था। दो छोटे बालकों ने इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में अपनी शौर्य गाथा लिख दी। फतेह और जोरावर सिंह के धर्म के लिए संकल्प और बलिदान की यह घटना पूरे विश्व और इतिहास में एक अलौकिक क्षण होगा इसमें कोई संदेह नहीं था। मां गूजरी को किले के बुर्ज से नीचे फेंक कर उनकी हत्या कर दी गई। 

गुरु गोविंद सिंह जी के परिवार का यह बलिदान देखकर दीवान टोडरमल ने नवाब से विधि विधान से उनका दाह संस्कार करने की अनुमति मांगी, लेकिन नवाब इतना निर्दयी हो चुका था कि दाह संस्कार के लिए भी उसने कहा, जितनी जगह चाहिए उतनी मोहरें दे दो। दीवान टोडरमल धनी जौहरी था। उसने एक बोरी भरकर मोहरें बढ़ा दीं और विधि विधान से सम्मानपूर्वक दादी मां गूजरी और दोनों बालकों का अंतिम संस्कार किया। अब गुरु गोविंद सिंह अकेले रह गए थे। उनके दोनों बड़े पुत्र उनकी आंखों के सामने चमकौर के युद्ध में बलिदान हो गए थे और जब गुरु जी मछीवाड़ा में पेड़ के नीचे बैठे थे तभी उन्हें अपने दो छोटे बालकों की हत्या का समाचार मिला। लेकिन वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने तीर की नोक से एक पौधा उखाड़ कर कहा कि मुगल साम्राज्य की जड़ें उखड़ गई हैं। 

आगे जाकर गुरु गोविंद सिंह जी की माधव दास सन्यासी से भेंट हुई, जिन्हें उन्होंने बंदा बहादुर का नाम दिया और उन्हें अपनी तलवार, ध्वज और पांच बाण दिए। बंदा बहादुर सिख सैनिकों को एकत्रित करके पंजाब की तरफ चल पड़े। विशाल सेना के साथ उन्होंने नवाब वजीर खान को मार गिराया और इस तरह जोरावर और फतेह सिंह के हत्यारे को दंड दिया। उन्होंने गुरु तेग बहादुर का शीश काटने वाले जलालुद्दीन का भी वध किया। गुरु गोविंद सिंह के परिवार के इस बलिदान की याद में शहीदी सप्ताह मनाया जाता है। देश भर में कीर्तन, अरदास, जुलूस, लंगर, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। जोरावर सिंह और फतेह सिंह 26 दिसंबर को बलिदान हुए थे। यह दिवस वीर बाल दिवस घोषित किया गया है। अब बहादुर बच्चों को गणतंत्र दिवस के बजाय 26 दिसंबर को सम्मानित किया जाता है। गुरु परिवार का यह बलिदान आज के समय में प्रासंगिक होने के साथ ही अत्यंत प्रेरणादायी भी है।

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