सुखद संयोग : गोवर्धन पूजा के दिन धरती आबा की जयंती
प्रशांत पोळ
इस वर्ष दिवाली के पावन पर्व पर एक जबर्दस्त संयोग बना है। कल गोवर्धन पूजा है और कल, अर्थात 15 नवंबर को ही राष्ट्रीय जनचेतना के प्रतीक, बिरसा मुंडा जी की 145 वीं जयंती है।
गोवर्धन पूजा वनवासियों का परंपरागत उत्सव है। वनवासी मानते हैं की गाय के पैरों के नीचे बैकुंठ है। इसलिए इस दिन गाय के पांव को मनुष्य के शरीर से स्पर्श कराया जाता है। गाय के गोबर को फूलों से सजाकर उसकी पूजा की जाती है तथा गायों को सजाकर नृत्य किया जाता ह।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी के करैरा गांव में भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वनवासी समुदाय बड़ी संख्या में मौनी बाबाओं के वेश में परंपरागत नृत्य करता है। बैतुल जिले के भैसंदेही में गायों की पूजा करने के पश्चात उसके बछड़े के साथ वनवासी नृत्य करते हैं। दीपावली के बाद, लगभग एक माह तक वनवासी समुदाय टोली मे, एक जैसी पोशाकें पहनकर नाचते – गाते नजर आते हैं। झाबुआ के वनांचल क्षेत्र में इसे ‘गोहरी पर्व’ कहा जाता है। इस अवसर पर वनवासी समुदाय, अपनी गायों को सजाकर हीडी गीत गाते हुए भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। मालवा में भील आदिवासी, पशुओं के सामने अवदान गीत होड गाते हैं। श्रीकृष्ण की स्तुति का चंद्रावली कथागीत भी इस अवसर पर गाया जाता है।
राजस्थान के राजसमंद जिले के भगवान श्रीनाथ जी के मंदिर में वनवासी समुदाय अन्नकूट उत्सव मनाते हैं। वनवासियों की बड़ी भीड़ इस कार्यक्रम में रहती है। बांसवाड़ा जिले मे, गढ़ी के जोलान क्षेत्र में आदिकाल से, वनवासी समुदाय गोवर्धन पूजा का यह पर्व बड़े ही उत्साह से मनाते हैं।
छत्तीसगढ़ में गोवर्धन पूजा के मौके पर ‘गौठान दिवस’ मनाया जाता है। परंपरा के अनुसार, वनवासी समाज के लोग, तालाब के समीप की कुंवारी मिट्टी से ‘गौरी – गौरा’ की मूर्तियां बनाते हैं और फिर भोर होने से पहले, उन मूर्तियों की गाजे बाजे के साथ बारात निकालते हैं। जिनके घरों में गायें होती हैं, ऐसे वनवासी गाय के गोबर को, गाय के पांव का स्पर्श कराते हैं।
झारखंड में तो गोवर्धन पूजा वनवासियों का प्रमुख उत्सव है। दीवाली की, अर्थात अमावस्या की रात से, विभिन्न गावों से धांगड़िया (धांगड़ – जो गाय चराता है, गाय का सेवक) चारण दलों के द्वारा प्रत्येक घर के सामने गोहाल के, अर्थात गाय जागरण के गीत गाये जाते हैं। इस जागरण के समय, गोहाल के जो गीत वनवासियों द्वारा गाये जाते हैं, उनमे बंगला भाषा का अंश होता है –
जागो मां लक्ष्मीनि, जागो मां भगवती
जागाय तो
अमावस्यार राति रे….
गाजे का प्रतिफल देवे गो मालिनी
पांच पुत्र, दश दोनूर गाय रे।
अर्थात, (कार्तिक) अमावस्या की रात्रि में गायों का जागरण करने से तथा गाय की सेवा करने से पांच पुत्र और धेनु गाय प्राप्त होती है।
झारखंड में इस उत्सव को ‘गोहाल पूजा’ कहा जाता है। इसी दिन ‘गोड़ा बोंगा’ की पूजा, अर्थात वनवासियों के पितरों की पूजा होती है।
कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक फैले हुए इस विशाल देश में रहने वाला वनवासी समुदाय, भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अपने अपने ढंग से गोवर्धन पूजा का पर्व मनाता है।
और इस वर्ष यही सुखद संयोग है कि इस दिन वनवासियों के ‘धरती आबा’ अर्थात बिरसा मुंडा की जयंती है। सारा राष्ट्र उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय जनजाति गौरव दिवस’ के रूप में मनाता है।
बिरसा मुंडा यह अद्भुत व्यक्तित्व हैं। कुल जमा पच्चीस वर्ष का ही छोटा सा जीवन उन्हें मिला। किन्तु इस अल्पकालीन जीवन में उन्होंने जो कर दिखाया, वह अतुलनीय है। अंग्रेज़ उनके नाम से कांपते थे। थर्राते थे। वनवासी समुदाय, बिरसा मुंडा को ईश्वर मानने लगा था।
बिरसा मुंडा के पिताजी ने बिरसा की होशियारी देखकर उनका प्रवेश अंग्रेजी पढ़ाने वाली, रांची की, ‘जर्मन मिशनरी स्कूल’ में करवा दिया। इस स्कूल में प्रवेश पाने के लिए ईसाई धर्म अपनाना आवश्यक होता था। इसलिए बिरसा को ईसाई बनना पड़ा। उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया।
किन्तु स्कूल में पढ़ने के साथ ही, बिरसा को समाज में चल रहे, अंग्रेजों के दमनकारी काम भी दिख रहे थे। अभी सारा देश 1857 के क्रांति युद्ध से उबर ही रहा था, अंग्रेजों का पाशविक दमनचक्र सारे देश में चल रहा था। यह सब देखकर बिरसा ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वे पुनः हिन्दू बने और अपने वनवासी भाइयों को, ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की कुटिल चालों के विरोध में जागृत करने लगे।
1894 में, छोटा नागपुर क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय बिरसा मुंडा की आयु थी मात्र 19 वर्ष। लेकिन उन्होंने अपने वनवासी भाइयों की अत्यंत समर्पित भाव से सेवा की। इस दौरान वे अंग्रेजों के शोषण के विरोध में जनमत जागृत करने लगे।
वनवासियों के हिन्दू बने रहने के लिए उन्होंने एक जबरदस्त अभियान छेड़ा। इसी बीच पुराने, अर्थात सन 1882 में पारित कानून के अंतर्गत, अंग्रेजों ने झारखंड के वनवासियों की जमीन और उनके जंगल में रहने का हक छीनना प्रारंभ किया। इसके विरोध में बिरसा मुंडा ने एक अत्यंत प्रभावी आंदोलन चलाया, ‘अबुवा दिशुम – अबुवा राज’ (हमारा देश – हमारा राज)। यह अंग्रेजों के विरोध में खुली लड़ाई थी, ‘उलगुलान’ थी। अंग्रेज़ पराभूत होते रहे। हारते रहे। सन 1897 से 1900 के बीच, रांची और आसपास के वनांचल क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन उखड़ चुका था।
किन्तु जैसा होता आया है, गद्दारी के कारण, 500 रुपयों के धनराशि के लालच में, उनके अपने ही व्यक्ति ने, उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी। जनवरी 1900 में रांची जिले के उलीहातु के पास, डोमबाड़ी पहाड़ी पर, बिरसा मुंडा जब वनवासी साथियों को संबोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेजी फौज ने उन्हे घेर लिया। बिरसा मुंडा के साथी और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई। अनेक वनवासी भाई – बहन उसमें मारे गए। अंततः ३ फरवरी 1900 को, चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा गिरफ्तार हुए।
अंग्रेजों ने जेल के अंदर बंद बिरसा मुंडा पर विष प्रयोग किया, जिसके कारण, 9 जून 1900 को रांची के जेल में, वनवासियों के प्यारे, ‘धरती आबा’, बिरसा मुंडा ने अंतिम सांस ली।
कल जब सारे देश का वनवासी समुदाय ‘गोवर्धन पूजा’ के पर्व को हर्षोल्लास से, उत्साह से, अपनी परंपरागत शैली से मना रहा होगा, तब उनका आनंद दोगुना हो रहा होगा, कारण उनके भगवान, उनके धरती आबा, बिरसा मुंडा का जन्मदिवस भी वो मना रहे होंगे..!
वनवासियों की हिन्दू अस्मिता की आवाज को बुलंद करने वाले, उनको मतांतरण के दुष्ट चक्र से सावधान करने वाले और राष्ट्र के लिए अपने प्राण देने वाले बिरसा मुंडा का स्मरण करना यानि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को बुलंद करना है।