चित्तौड़ का द्वितीय जौहर: राष्ट्र और स्वाभिमान की अमर गाथा

चित्तौड़ का द्वितीय जौहर: राष्ट्र और स्वाभिमान की अमर गाथा

ओम प्रकाश नाथ

चित्तौड़ का द्वितीय जौहर: राष्ट्र और स्वाभिमान की अमर गाथा   चित्तौड़ का द्वितीय जौहर: राष्ट्र और स्वाभिमान की अमर गाथा

चित्तौड़ शब्द महज वर्णों का संग्रह या एक दुर्ग मात्र नहीं है बल्कि अपने नाम में समेटे हुए है दो हजार वर्षों की अदम्य साहस, संघर्ष, गौरव और स्वाभिमान की वीरगाथा। शासक राजवंश और शासन पद्धति समय के साथ बदलती रही, लेकिन चित्तौड़ का आत्मसम्मान और स्वाभिमान आज भी अमर है। चित्तौड़ तीन जौहरों का साक्षी रहा है, जिनमें 8 मार्च 1535 को हुआ द्वितीय जौहर सबसे महत्वपूर्ण है। इस दिन रानी कर्णावती के नेतृत्व में हजारों वीरांगनाओं ने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अग्निकुंड में प्रवेश किया था और राजपूत वीरों ने अंतिम सांस तक विदेशी आक्रांता बहादुरशाह से लोहा लिया था। यह केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि भारत की संस्कृति, धर्म और राष्ट्र की रक्षा का संग्राम था।

1531 में गुजरात का शासक बहादुरशाह, जो देशी राज्यों की अखंडता को खंडित कर इस्लामी राज्य की स्थापना करना चाहता था, ने मालवा पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद उसने हिंदुत्व के गढ़ चित्तौड़ पर आक्रमण करने की योजना बनाई। खानवा के युद्ध तथा राणा सांगा के स्वर्गवास के पश्चात् चित्तौड़ सामरिक और प्रशासनिक दृष्टि से थोड़ा कमजोर हो गया था। महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) के निधन के बाद उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह मेवाड़ के शासक बने, रानी कर्णावती उनकी सरंक्षक थीं। बहादुरशाह ने विशाल सेना और तोपची रूमी खां के तोपखाने के नेतृत्व में चित्तौड़ का घेरा डाला। उसकी सेना आधुनिक तोपों और विशाल सैन्य बल से सुसज्जित थी। वह तीन माह तक वहीं डटा रहा। अंतत: दुर्ग में खाद्य सामग्री का अभाव होने लगा तथा यह स्पष्ट हो गया कि किला अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रह सकेगा। तब रानी कर्णावती ने अपनी मातृभूमि के सम्मान की रक्षा हेतु ऐतिहासिक निर्णय लिये, जिसने उन्हें इतिहास में हमेशा के लिए अमर कर दिया और चित्तौड़ के साहस व स्वाभिमान का एक नया अध्याय लिखा गया। रानी कर्णावती ने अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह और उदय सिंह (जो बाद में मेवाड़ के शासक बने) को सुरक्षित निकालने का प्रबंध किया ताकि वह भविष्य में मेवाड़ को पुनः खड़ा कर सकें। रावत बाघ सिंह को महाराणा का प्रतिनिधि और सेनापति नियुक्त किया तथा तय किया कि यदि शत्रु किले में घुस जाए, तो सभी वीरांगनाएं जौहर करेंगी और पुरुष अंतिम सांस तक लड़ेंगे। यह निर्णय हिन्दू स्वाभिमान, राष्ट्रप्रेम और आत्मसम्मान की सर्वोच्च अभिव्यक्ति था।
 
8 मार्च 1535: जौहर और शाका

8 मार्च की सुबह, चित्तौड़ के किले में एक अजीब सी शांति थी। हजारों वीरांगनाओं ने लाल वस्त्र धारण किए। अपनी संतानों को अंतिम बार गले लगाया तथा अग्निकुंड की ओर प्रस्थान किया। जय भवानी, जय एकलिंग, चित्तौड़ अमर रहे, के उद्घोष के साथ अग्नि को नमन करके रानी कर्णावती के नेतृत्व में हजारों वीरांगनाओं ने अग्नि में प्रवेश किया। अग्निकुंड की ज्वालाएँ आकाश छूने लगीं। देखते ही देखते हजारों मातृशक्ति ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। चारों ओर शोर था, लेकिन इस बलिदान में एक अद्भुत शौर्य था। जौहर सिर्फ मृत्यु का वरण नहीं बल्कि विदेशी आक्रांताओं के सामने भारतीय स्त्रियों की अडिग प्रतिज्ञा थी—”हम शरीर त्याग देंगे , लेकिन सतीत्व और सच्चरित्रता पर आँच नहीं आने देंगे।”

जौहर के बाद किले में केवल पुरुष ही बचे थे। सभी योद्धाओं ने केसरिया वस्त्र धारण किए और अपनी तलवारें उठाईं। प्रत्येक योद्धा जानता था कि यह उसका अंतिम युद्ध है, लेकिन उनके चेहरों पर कोई भय नहीं था। दोपहर होते ही किले के द्वार खोल दिए गए और योद्धाओं ने रणभूमि में प्रवेश किया। वे मौत को गले लगाने के लिए तैयार थे। हर तलवार वार करती, हर योद्धा अंतिम सांस तक लड़ता। बहादुर शाह की विशाल सेना के सामने हर योद्धा एक सेना के समान लड़ा। युद्धभूमि रक्त से लाल हो गई, लेकिन कोई भी योद्धा पीछे नहीं हटा। शाम तक किले की दीवारें टूट चुकी थीं। बहादुर शाह की सेना ने किले में प्रवेश किया, लेकिन उसे केवल राख और स्वाभिमान के साक्ष्य ही मिले। चित्तौड़ पर सामरिक रूप से कब्जा किया चुका था, लेकिन उसकी आत्मा अजेय थी। विदेशी आक्रांताओं ने कुछ समय के लिए किले पर अधिकार कर लिया, लेकिन यह विजय नहीं, बल्कि एक नैतिक पराजय थी। रानी कर्णावती और हजारों वीरांगनाओं का बलिदान यह सिद्ध कर चुका था कि भारत की बेटियाँ पराधीनता को कभी स्वीकार नहीं करेंगी।
आज भी चित्तौड़ के किले की दीवारें इस बलिदान की गाथा गा रही हैं। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता की रक्षा केवल शस्त्रों से नहीं, बल्कि आत्मबल, संकल्प और बलिदान से होती है। चित्तौड़ अमर था, अमर है और अमर रहेगा।

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