पंथ आधारित जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ने की आशंका
प्रमोद भार्गव
पंथ आधारित जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ने की आशंका
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने दुनिया की बढ़ती जनसंख्या को लेकर ताजा आंकड़े जारी किए हैं। चार महीने बाद यानी 15 नबंवर को विश्व की जनसंख्या आठ अरब हो जाने का अनुमान है। भारत के संदर्भ में देखें तो हैरानी में डालने वाली बात है कि 2023 में हम जनसंख्या की दृष्टि से चीन से आगे निकल जाएंगे। बढ़ती जनसंख्या के जो आंकड़े हैं, वे भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश के लिए एक बड़ी चुनौती भी हैं। भारत में यह चुनौती इसलिए अधिक है, क्योंकि यहां मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने से जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ने की आशंकाएं जताई जा रही हैं। उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस एक वर्ग की जनसंख्या की गति बढ़ने पर चिंता जताई है। क्योंकि यही गति रही तो पंथीय जनसांख्यिकीय असंतुलन की स्थिति बन सकती है। लिहाजा जनसंख्या नीति में जल्द एकरूपता नहीं लाई गई तो मूल निवासियों को संसाधन में हस्तक्षेप का संकट झेलना होगा।
जनसंख्या वृद्धि पर एक नीति बने, जिसमें दो बच्चों के कानून का प्रावधान हो। यह नीति सबके विचार व सहमति से बने। क्योंकि जनसंख्या एक समस्या भी है और एक साधन भी है। लेकिन जिस तरह से देश के सीमांत प्रांतों और कश्मीर में जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ रहा है, उस संदर्भ में जरूरी हो जाता है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून जल्द लाया जाए। 2019 के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या विस्फोट को लेकर चिंता जताई थी। भाजपा के घोषणा-पत्र में भी यह मुद्दा शामिल है। एक-एक कर मुद्दों का निराकरण करना पार्टी का दायित्व भी बनता है। मुद्दाविहीन विपक्ष अब सरकार के उस हर निर्णय का विरोध करने पर उतारू है, जो व्यापक देश हित में लिए जा रहे हैं। तीन तलाक, अनुच्छेद-370, 35-ए और सीएए कानूनों का विरोध करके विपक्षी दल अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब राम जन्म-भूमि का निर्णय भगवान राम के पक्ष में दिया तब भी विपक्ष एवं वामपंथियों को यह फैसला रास नहीं आया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुओं की जनसंख्या घटने पर कई बार चिंता जता चुका है। इन बयानों को अब तक हिन्दू पक्षधरता के दायरे में समेटने की संकीर्ण मानसिकता जताई जाती रही है, जबकि इसे व्यापक दायरे में लेने की आवश्यकता है। कश्मीर, केरल समेत अन्य सीमांत प्रदेशों में बिगड़ते जनसंख्यात्मक अनुपात के दुष्परिणाम कुछ समय से प्रत्यक्ष रूप में देखने में आ रहे हैं। कश्मीर में पुश्तैनी धरती से 5 लाख हिन्दुओं का विस्थापन, बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बदलते जनसंख्यात्मक घनत्व के कारण जब चाहे तब दंगे के हालात उत्पन्न हो जाते हैं। यही हालात पश्चिम बंगाल में देखने में आ रहे हैं। इसलिए जबरन कन्वर्जन और मुसलमानों की जन्म दर मूल निवासियों के अस्तित्व के लिए चिंता का विषय है। लिहाजा परिवार नियोजन के एकांगी उपायों को खारिज करते हुए जनसंख्या नियंत्रण के उपायों पर नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है।
भारत में समग्र जनसंख्या की बढ़ती दर अनियंत्रित है। 15 वीं जनगणना के निष्कर्श से साबित हुआ है कि जनसंख्या का घनत्व दक्षिण भारत की बजाए, उत्तर भारत में ज्यादा है। लैंगिक अनुपात भी लगातार बिगड़ रहा है। देश में 62 करोड़ 37 लाख पुरुष और 58 करोड़ 65 लाख महिलाएं हैं। शिशु लिंगानुपात की दृष्टि से प्रति हजार बालकों की तुलना में महज 912 बलिकाएं हैं। हालांकि इस जनगणना के सुखद परिणाम यह रहे हैं कि जनगणना की वृद्धि दर में 3.96 प्रतिशत की गिरावट आई है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 16.7 प्रतिशत रही, जबकि 2001 की जनगणना में यह 19.92 प्रतिशत थी। वहीं 2011 की जनगणना में मुसलमानों की जनसंख्या में वृद्धि दर 19.5 प्रतिशत रही, वहीं 2001 की जनगणना में यह वृद्धि 24.6 प्रतिशत थी। साफ है, मुस्लिमों में जनसंख्या की दर हिंदुओं से अधिक है, जो चिंताजनक है। राष्ट्रीय परिवार सर्वेक्षण के अनुसार लक्षद्वीप में मुस्लिम जनसंख्या 96 प्रतिषत, जम्मू-कश्मीर 68, असम 34, पश्चिम-बंगाल 27, केरल 26 और उत्तर-प्रदेश में 20 प्रतिशत है। यह बड़ी जनसंख्या अन्य धर्मावलंबियों के विरुद्ध टकराव के हालात बना रही है। इसी सर्वे के अनुसार हिन्दू बहुल कुछ राज्यों में जन्मदर घट रही है। विसंगति यह भी है कि पारसियों व ईसाइयों में भी जन्म दर घटी है। उच्च शिक्षित व उच्च आय वर्ग के हिन्दू एक संतान पैदा करने तक सिमट गए हैं, जबकि वे तीन बच्चों के भरण-पोषण व उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने में सक्षम हैं। भविष्य में वे ऐसा करें तो समुदाय आधारित आबादियों के बीच संतुलन की आशा की जा सकती है।
(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)