जलियांवाला बाग से भी भयंकर था मानगढ़ का नरसंहार
17 नवम्बर/ मानगढ़ नरसंहार
राकेश डामोर
स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग के सामूहिक नरसंहार को कौन भूल सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के माथे पर लगा यह ऐसा कलंक है, जिसे उनकी आने वाली हजारों पीढ़ियां भी नहीं धो सकेंगी। लेकिन जलियांवाला बाग के साथ-साथ राजस्थान के मानगढ़ में उससे भी भयंकर मारकाट अंग्रेजों ने मचाया था और यह घटनाक्रम जलियांवाला बाग से भी बड़ा था। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने दुर्भाग्य से मानगढ़ के त्याग और बलिदान को उतना महत्व नहीं दिया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मानगढ़ का जलियांवाला बाग जितना ही महत्व है। और आम भारतीय को जनजाति समुदाय के बलिदान को समझने और महत्व देने की आवश्यकता है। 17 नवम्बर ही वह दिन था, जब मानगढ़ ने बलिदान देकर भारतीय इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया।
राजस्थान के सुदूर दक्षिण में बांसवाड़ा जिले में है मानगढ़। यह त्याग और बलिदान की पवित्र भूमि है। राजस्थान में बांसवाड़ा जिले में एक पहाड़ी है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। 17 नवम्बर, 1913 को यह पहाड़ी ऐसे अमर बलिदान की साक्षी बनी, जो विश्व के इतिहास में अनुपम है। यहाँ अंग्रेज़ों द्वारा किया गया नरसंहार जलियाँवाला बाग़ नरसंहार से भी बड़ा और क्रूर था।
यह सारा क्षेत्र जनजाति समाज बहुल है। मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप के सेनानी अर्थात भील जनजाति के हिन्दू रहते हैं। स्थानीय सामंत, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ।
गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ आध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।
गोविन्द गुरु ने 1903 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।
कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।
17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया।
उस समय तक वहां लाखों भक्त आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोली वर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से लेकर 2,000 तक कही गयी है। पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी।
1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।