ऐसे होता था मरु भूमि में वर्षा जल का संरक्षण
डॉ. शुचि चौहान
वर्षा के मामले में राजस्थान को गरीब प्रदेश भी कहा जाता है क्योंकि यहां भारत के अन्य राज्यों की तुलना में कम पानी बरसता है। राजस्थान का पश्चिमी भाग अत्यंत रेतीला है, इसे थार रेगिस्तान के नाम से जाना जाता है। रेगिस्तान में जल की एक-एक बूंद का मोल क्या होता है, इसे हमारे पूर्वजों ने समझा और उसे सहेजने के लिए अनेक जतन किए जो आज भी कुंडी, टांका, बावड़ी, जोहड़ आदि अनेक रूपों में मौजूद है। वह जल को पहले संचित करते थे फिर उसका प्रयोग करते थे। आज हम संचय कम करते हैं और संचित जल का दोहन अधिक कर रहे हैं।
राजस्थान में मानसून के बादल अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से आते हैं। यहां तक आते-आते उनकी आद्रता कम हो जाती है। वे दक्षिणी पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर अरावली पर्वतमाला के समानांतर बारिश करते हुए उड़ते हैं। इसलिए इस पर्वतमाला की गोद में बसे जिलों में अच्छी बारिश होती है, परंतु पश्चिमी राजस्थान की झोली खाली रह जाती है। ऐसी विषम परिस्थितियों में राजस्थान में वर्षा जल संरक्षण के अनेक तरीके विकसित किए गए।
यहां के लोगों ने उपलब्ध पानी को 3 नाम दिए- पालर पानी, पाताल पानी और रेजाणी पानी। पालर पानी अर्थात बारिश का पानी, पाताल पानी अर्थात जमीन की गहराई में स्थित भूजल और रेजाणी पानी अर्थात रेत द्वारा रोक लिया गया बारिश का पानी, जो किसी किसी क्षेत्र में खड़िया पत्थर की पट्टी पाए जाने के कारण रिसकर पाताल तक नहीं पहुंच पाता। लोगों ने उपलब्ध पानी के संरक्षण व उपयोग के सुनिश्चित प्रबंध किए व समय अनुकूल प्रणालियां विकसित कीं, जिन्हें आज भी कई जगह जीवंत रूप में देखा जा सकता है। झीलें, तालाब, नाड़ी, जोहड़ व तलाई, खडीन, कुंडी (कुंड) या टांका, झालरा, नाडा या बंधा, बावड़ी या कुई इसी के उदाहरण हैं।
झीलें व तालाब: ऐसा स्थान जो चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हो, जहां वर्षा के पानी की अच्छी आवक हो, वहां उस पानी को रोक कर झीलों व तालाबों का निर्माण किया जाता था। जैसलमेर के राजा महारावल घड़सी द्वारा 1635 में बनवाया गया घडसीसर तालाब अभियांत्रिकी का अनुपम नमूना है। 3 मील लंबे और 1 मील चौड़े आगर (तट) वाले इस तालाब का आगोर (भराव क्षेत्र) 120 वर्ग मील तक फैला हुआ है। पानी को बहाकर लाने के लिए आठ किमी लम्बी मेड़बंदी की गई थी। घड़सीसर भरने के बाद पानी एक एक कर नौ तालाबों – नौताल, गोविंदसर, जोशीसर, गुसाबसर, भाटियासर, सूदासर, मोहतासर, रतनसर और किसनघाट को भी लबालब कर देता था। उसके बाद भी बचे हुए पानी को बेरियों (कुएंनुमा कुंडों) में एकत्रित कर लिया जाता था।
आज घड़सीसर के भराव क्षेत्र में वायु सेना का हवाई अड्डा है। आसपास की जमीनों पर कालोनियां कट गई हैं। घड़सीसर का दम घुट रहा है।
जैसलमेर से लगभग 40 किमी दूर एक जसेरी तालाब भी है, जो कभी नहीं सूखता। जसेरी के तट के नीचे खड़िया पत्थर की पट्टी पाई जाती है जो बारिश के पानी को पाताल तक नहीं जाने देती। इस तरह इसमें पालर व रेजाणी दोनों पानी इकट्ठे होते हैं। पिछली बारिश का पानी सूखने से पहले ही अगली बारिश हो जाती है।
नाडी : ऐसी जगह जहॉं पानी की आवक कम हो और उसे रोकने के लिए जगह भी कम हो, वहॉं नाडी का निर्माण किया जाता है। यह धरती की सतह पर 3-12 मी गहरा गड्ढा होता है, जिसमें वर्षा जल आकर इकट्ठा होता रहता है। जैसलमेर में पालीवालों के ऐतिहासिक चौरासी गॉंवों में 700 से अधिक नाडियां या उनके अवशेष मिलते हैं।
जोहड़ व तलाई: जोहड़ नाडी से थोड़ा बड़ा होता है। इसमें पानी की मात्रा नाडी से अधिक होती है। ये मिट्टी के छोटे डैम की तरह होते हैं। वर्षा जल के बहाव क्षेत्र में बांध बनाकर बारिश के पानी को रोककर इन्हें बनाया जाता है।
तलाइयां जोहड़ का ही एक रूप हैं। जैसलमेर के पास में ही है शीतल तलाई जो सीतलाई के नाम से प्रसिद्ध है। 52 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में भी इसका जल शीतल रहता है।
खड़ीन: खड़ीन भूमि की सतह पर बहने वाले वर्षा जल को संग्रहीत करने के लिए ढलान वाली भूमि के नीचे बनाए जाते हैं। खड़ीन का क्षेत्र विस्तार 5-7 किमी तक होता है। जिस स्थान पर पानी इकट्ठा होता है उसे खड़ीन तथा इसे रोकने वाले बांध को खड़ीन बांध कहते हैं।
कुंडी, कुंड या टांका : यह रेतीले क्षेत्रों में वर्षा जल को संग्रहीत करने की पारम्परिक प्रणाली है। इस पानी को पीन के काम में लिया जाता है। यह एक छोटा भूमिगत टैंक होता है। इसका निर्माण जमीन की ढलान के हिसाब से किया जाता है। जिस आंगन में इसे बनाया जाता है उसे आगोर या पायतान कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बटोरना।
पायतान को साफ रखा जाता है, क्योंकि उसी से बहकर पानी टांके में जाता है। टांका ऊपर से ढंका होता है। इसके मुहाने पर एक छेद होता है जिस पर जाली लगी होती है। जाली कचरे को अंदर नहीं जाने देती। टांका 30-40 फिट तक गहरा होता है। पानी रिसे न इसके लिए चिनाई व प्लास्टर पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कुंडी छोटी, कुंड उससे बड़ा और टांका विशाल होता है। इनमें क्रमश: दस हजार लीटर, पचास हजार लीटर व लाखों लीटर तक पानी संरक्षित किया जा सकता है। जयपुर के जयगढ़ किले में बना टांका इतना ही विशाल है।
झालरा : ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से बनी जलीय संरचनाओं को झालरा कहते हैं। इनका पानी पीने योग्य नहीं होता, स्नान आदि के काम में लिया जाता है। इनका आकार आयताकार होता है व इनके तीन ओर सीढ़ियां होती हैं। जोधपुर का महामंदिर झालरा जग प्रसिद्ध है।
बावड़ी: राजस्थान में इसे बावड़ी तो गुजरात में वाव कहते हैं। इन्हें स्टेपवैल के नाम से भी जाना जाता है। बावड़ियां पीने के पानी, सिंचाई एवं स्नान के लिए महत्वपूर्ण जल स्रोत पही हैं। अधिकांश बावड़ियां मंदिरों, किलों या मठों के पास बनाई जाती थीं।
कुई: कुई में रेजाणी पानी इकट्ठा किया जाता है। इसे खोदना किसी कला से कम नहीं। यह बहुत संकरी होती है। खोदते समय मिट्टी दरकने का डर हमेशा बना रहता है। खुदाई के साथ साथ ही चिनाई भी करते रहते हैं। खड़िया पत्थर आते ही चिनाई रोक दी जाती है। रेत में जमा नमी की बूंदें धीरे धीरे रिसकर कुई में इकट्ठी होती रहती हैं। दिन भर में 3-4 मटकों जितना पानी इकट्ठा हो जाता है। वाष्पीकरण न हो इसलिए कुई का मुंह छोटा रखा जाता है। छोटा होने के कारण उसे आसानी से ढंका जा सकता है। राजस्थान के जिन जिन क्षेत्रों में खड़िया पत्थर की पट्टी पाई जाती है, वहॉं इस तरह की कुइयां मिलती है। जैसे – बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर व चूरू के गॉंव। पुराने समयमें यहॉं के लोग बारिश के पानी को तो संरक्षित करते ही थे, उपलब्ध पानी का भी कई बार उपयोग करते थे। स्नान घरों की नालियां इस प्रकार बनाई जाती थीं कि स्नान के बाद का पानी एकत्रित किया जा सके। इस पानी से कपड़े धोए जाते थे और फिर से एकत्रित कर लिया जाता था, जिसे घर की साफ सफाई और आंगन लीपने में प्रयोग किया जाता था। बर्तन रेत व राख से मांजे जाते थे। उन्हें जल की प्रत्येक बूंद की कीमत ज्ञात थी। वे सांई इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय के स्थान पर सांईं जितना दीजिए वामे कुटुम्ब समाय की भावना से जल का प्रयोग करते थे।
आज वर्षा से मिलने वाले जल का लगभग आधा हिस्सा नदियों में बह जाता है, जो समुद्र में जाकर बेकार हो जाता है। भूमिगत जल, सतह पर उपलब्ध पीने योग्य जल संसाधनों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। आज वर्षा जल का संरक्षण व उसका उचित प्रबंधन समय की मांग है। पारम्परिक तरीके अपना कर ही जल संकट का सामना किया जा सकता है।