ज़मज़म या गंगाजलम्?
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-10)
गुंजन अग्रवाल
काबा-मन्दिर से 21 मीटर पूर्व पवित्र जलवाला एक अत्यन्त प्राचीन कूप है,जिसे ‘ज़मज़म का कुआँ’ (Well of Zamzam/Zemzem) कहा जाता है । इस्लामी जनश्रुति के अनुसार यह कुआँ चार हज़ार वर्ष पुराना है (अर्थात् जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था)। इसकी गहराई 30.5 मीटर और इसका आन्तरिक व्यास 1.08 से 2.66 मीटर है। इसके जल को ‘आब-ए-ज़मज़म’ कहा जाता है। फ़ारसी-शब्द ‘आब’ संस्कृत के ‘आप्’ से उद्भूत है, जिसका अर्थ जल होता है। ‘ज़मज़म’ शब्द भी ‘गंगाजलम्’ का विकसित रूप प्रतीत होता है। (1) यह कुआँ कभी नहीं सूखता। मुहम्मद साहब के अनुसार ‘आब-ए-ज़मज़म पृथ्वी का उत्तम जल है; यह भोजन का एक प्रकार है जो थकावट व बीमारी को दूरकर शरीर को स्वस्थ रखता है।’ यूरोपीय वैज्ञानिकों ने भी इसकी गुणवत्ता का परीक्षण करके इसे स्वास्थ्यवर्द्धक माना है।
वैदिक-परम्परा है कि जहाँ कहीं भी शिव-मन्दिर हो, वहाँ जलधारा का प्रबन्ध अवश्य होगा, ताकि भक्तों को शिव का जलाभिषेक करने में कठिनाई न हो। शिव के शीर्ष पर भी गंगा का अंकन होता है। इन्हीं सब परम्पराओं के अनुसार काबा के भी समीप ज़मज़म का कुआँ है। राजा भोज ने इसी कुएँ के जल से महादेव का अभिषेक किया होगा, जिसे भविष्यमहापुराण में गंगाजल कहा गया है— गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः(2) हज-यात्री भी इसे गंगाजल के समान पवित्र मानकर पीते हैं और इसे बोतल में भरकर अपने घरवालों, मित्रों और संबंधियों के लिए ले जाते हैं। काबा में प्रवेश से पूर्व हज-यात्रियों को आब-ए-ज़मज़म से मुखमार्जन और पाद-प्रक्षालन के लिए कहा जाता है, जिस प्रकार भारत में हिंदू-तीर्थयात्री तीर्थ में प्रवेश से पूर्व पवित्र जलाशय में डुबकी लगाते हैं।
इस्लामी-परम्परा के अनुसार आब-ए-ज़मज़म से शुद्ध होनेवाला मुसलमान सभी पापों मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार भारतीय परम्परा में गंगा में डुबकी लगानेवाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किसी मुसलमान की मौत होने पर उसके कफ़न पर ठीक उसी प्रकार आब-ए-ज़मज़म का छींटा लगाया जाता है, जिस प्रकार किसी हिंदू का अन्त आने पर उसके मुँह में गंगाजल डाला जाता है।
पचास-साठ वर्ष पूर्व यह किंवदन्ति चर्चित रही थी कि यदि कोई हिंदू अपने साथ थोड़ा गंगाजल ले जाकर ज़मज़म के कूप में डाल दे (अथवा मक्केश्वर शिवलिंग का अभिषेक कर दे) तो वह स्थान पुनः शिव-मन्दिर का रूप धारण कर लेगा। (3)
भगवान् मक्केश्वर कदाचित् यह देखकर प्रसन्न होते होंगे कि प्रतिवर्ष लाखों-लाख हज-यात्री, जिनमें ज़ालिम हत्यारे, व्यभिचारी, दुराचारी, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, आतंकवादी, आततायी, लुटेरे, जालसाज़ सहित नाना प्रकार के पापाचारी भी होते हैं, उनका दर्शन और परिक्रमा करने मक्का पहुँचते हैं और हज-यात्री यह सोच-सोचकर ख़ुश होते होंगे कि उन्होंने अपने जीवनभर का पाप काबा की सात परिक्रमा करके आब-ए-ज़मज़म में धो डाला है।
कुरआन के अनुसार अल्लाह के आदेश से पैग़ंबर अब्राहम ने अपने ज्येष्ठ पुत्र इश्माइल की सहायता से काबा इमारत का पुनर्निर्माण किया था, जो सेमेटिक-मान्यता से ईसा से 1800 वर्ष पूर्व हुए थे। यद्यपि इतिहाससम्मत तथ्य है कि इस्लाम का प्रादुर्भाव सन् 622 ई. में, अर्थात् आज से मात्र 1388 वर्ष पूर्व हुआ था। स्पष्ट है कि मक्केश्वर महादेव मन्दिर, उसकी देहली, अजर-अश्वेत शिवलिंग, विष्णु-पदचिह्न और ज़मज़म के प्राचीन कूप को इस्लामी रचना सिद्ध करने के लिए उक्त कहानी गढ़ ली गई है। वास्तविकता यह है कि ये सभी रचनाएँ प्रागैस्लामी मक्केश्वर महादेव मन्दिर की हैं, इनका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है।
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
संदर्भ सामग्रीः
- वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास, खण्ड 2, पृ. 449
- भविष्यमहापुराण, प्रतिसर्गपर्व, 3.3.6
- ‘जब ईरान, अरब से लेकर अमेरिका तक फैला था हिंदू धर्म’, वचनेश त्रिपाठी ‘साहित्येन्दु’, राष्ट्रधर्म (विश्वव्यापी हिंदू-संस्कृति विशेषांक, अक्टूबर, 2000, पृ. 20