जिजीविषा, तेरा नाम इजराइल..
प्रशांत पोळ
इस दुनिया में मात्र दो ही देश धर्म के नाम पर अलग हुए हैं या यूं कहे, धर्म के नाम पर नए बने हैं। वे हैं – पाकिस्तान और इजराइल। दोनों के बीच महज कुछ ही महीनों का अंतर है। पाकिस्तान बना 14 अगस्त, 1947 के दिन और इसके ठीक नौ महीने के बाद, अर्थात 14 मई, 1948 को इजराइल की राष्ट्र के रूप में घोषणा हुई।
पाकिस्तान मुस्लिम धर्म के नाम पर बना, तो इजराइल यहुदियों (ज्यू धर्मियों) के लिए था। किन्तु दोनों देशों में जमीन – आसमान का अंतर है। पाकिस्तान ने विगत तिहत्तर वर्षों में धर्म के नाम पर राजनीति की। अमेरिका जैसी महाशक्ति से सहायता लेना जारी रखा। आतंकवाद को प्रश्रय दिया और इन सब के बीच अपने देश के विकास का डिब्बा गुल किया। ‘कटोरी लेकर खड़ा हुआ देश’ ऐसा पाकिस्तान का यथार्थ वर्णन किया जाता है। इसके ठीक विपरीत, एक करोड़ से भी कम लोकसंख्या के इजराइल ने इतने ही समय में ऐसा दमखम दिखाया, कि विश्व की राजनीति इजराइल के बगैर पूरी हो ही नहीं सकती।
इजराइल अपने आप में आश्चर्य है और ज्यू समुदाय यह विश्व में एक अनूठा उदाहरण है।
ज्यू धर्म प्राचीन है। ईसाईयत के पहले भी इसका अस्तित्व था। ईसा के पहले हजार – डेढ़ हजार वर्षों तक यहूदियों के उल्लेख इतिहास में मिलते हैं। यहूदी (ज्यू समुदाय) इतिहास में सबसे ज्यादा सताया गया समाज है। दो – सवा दो हजार वर्ष पहले उन्हें अपनी भूमि से भगाया गया था। चूंकि स्वभावतः ज्यू मेहनती एवम् होशियार होते हैं, वे जहां भी गए, वहां प्रगति कर गए। स्वाभाविकतः अन्य लोगों के ईर्ष्या की बलि चढ़े। दुनिया भर के सताए हुए (भारत अपवाद रहा) यहूदियों के मन में अपनी मातृभूमि को लौटने की इच्छा प्रबल थी। इसे ‘झायोनिस्ट’ विचारधारा कहा गया। इसी विचारधारा के चलते, बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में, प्रथम विश्व युद्ध के पहले, लगभग चालीस हजार यहूदी, इजराइल में जा बसे।
बाद में दुसरे विश्व युद्ध में जर्मन नाझियों ने इन यहूदियों का अभूतपूर्व नरसंहार किया। साठ लाख से ज्यादा ज्यू धर्मियों को गैस चैम्बर या अन्य यातनाएं देकर मारा गया। इसके कारण पूरी दुनिया में ज्यू समुदाय के प्रति सहानुभूति उमड़ पड़ी। वैश्विक समुदाय ने इन यहूदियों को बसने के लिए दो स्थान प्रस्तावित किये- एक था युगांडा देश का एक हिस्सा और दूसरा वह, जो उनकी मातृभूमि था – इजराइल। स्वाभाविकतः ज्यू समुदाय ने अपनी मातृभूमि का पर्याय स्वीकार किया, और 14 मई, 1948 को इजराइल अस्तित्व में आया। इसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता मिली, पूरे एक साल बाद, अर्थात 11 मई, 1949 को।
इजराइल का भाग्य कुछ ऐसा रहा कि अपने निर्माण काल से ही उसे शत्रुओं से जूझना पड़ा। चूँकि मूल इजराइल की भूमि पर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सैकड़ों वर्षों से कब्जा कर रखा था, अतः उस भूमि पर इजराइल का बनना, यह पड़ोसी इजिप्त, सीरिया, जॉर्डन आदि देशों को नागवार गुजरा और जन्म लेते ही साथ इजराइल को इजिप्त, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान और ईराक से युद्ध लड़ना पड़ा। यह युद्ध, ‘1948 का अरब – इजराइल युद्ध’ नाम से इतिहास में जाना जाता है। इस युद्ध में नयी नवेली इजराइली सेना ने अरब देशों को अपनी ताकत दिखा दी और इस युद्ध के बाद इजराइल की भूमि में 26% की बढ़ोतरी हुई…!
आगे भी यही सिलसिला चलता रहा। इजराइल ने जितने भी युद्ध लड़े, लगभग सभी युद्धों के बाद उसके क्षेत्रफल में वृद्धि होती गई।
इजराइल की इस ताकत को और प्रगति को देखकर पड़ोसी अरब राष्ट्रों को काफी तकलीफ हो रही थी। जून 1967 में इजिप्त ने कुछ ऐसे हालात निर्मित किए कि इजराइल को युद्ध के अलावा दूसरा कोई पर्याय ही नहीं बचा। 5 जून, 1967 को प्रारंभ हुआ यह युद्ध, मात्र छह दिनों में समाप्त हुआ। इसे ‘सिक्स-डे-वॉर’ के नाम से इतिहास में जाना जाता है। इजिप्त, जॉर्डन और सीरिया द्वारा मिल कर लड़े गए इस युद्ध में छोटे से इजराइल ने निर्णायक जीत हासिल की थी। इस युद्ध में इजराइल ने इजिप्त से गाझा पट्टी और सिनाई पेनिन्सुला प्रदेश जीता, तो जॉर्डन से वेस्ट बैंक का क्षेत्र हथिया लिया। सीरिया को भी अपना गोलन हाइट्स का क्षेत्र इजराइल से गंवाना पड़ा। कुल मिलाकर इजराइल इस युद्ध से भारी फायदे में रहा। उसके लगभग 800 सैनिक मारे गए। लेकिन इजिप्त के पंधरा हजार, जॉर्डन के छह हजार और सीरिया के लगभग ढाई हजार सैनिक मारे गए। इस युद्ध के बाद अरब देशों ने इजराइल की इतनी दहशत ली के तब से आज तक, कुछ छुट-पुट घटनाएं छोड़ दें, तो एक भी बड़ा युद्ध उन्होंने इजराइल के विरुद्ध नहीं लड़ा है..!
जब युद्ध में इजराइल को नहीं हरा सकते यह ध्यान में आया तो अरब राष्ट्रों ने और इस्लामी आतंकवादियों ने इजराइली नागरिकों पर हमले चालू किये। 1974 में जर्मनी के म्यूनिख में संपन्न हुए ओलिंपिक में इस्लामी आतंकवादियों ने इजराइली खिलाडियों को अगवा कर लिया और एक एक करके सबको समाप्त कर दिया। इस हमले से सारी दुनिया दहल गई। किन्तु आतंकवाद की इस धमकी के आगे न झुकते हुए इजराइली गुप्तचर संस्था ‘मोसाद’ ने इस हत्याकांड में शामिल सभी आतंकियों को एक एक करके मौत के घाट उतारा।
मोसाद ने ऐसे और भी अनेक ‘चमत्कारिक ऑपरेशन्स’ किये हैं। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के जिस नाझी सैनिक अधिकारी ने ज्यू समुदाय को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारा था, वह युद्ध के बाद फरार हो गया था। मोसाद ने उसे सन 1961 में, अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में ढूंढ निकाला। अडोल्फ़ आईशमन नाम का हिटलर का यह साथी, वहां नाम और भेस बदलकर रह रहा था। मोसाद के लोगों ने उसे वहां से उठाया, इजराइल पहुचाया और उस पर क़ानूनी कार्यवाही की। इजराइल के न्यायालय ने उसे मृत्युदंड की सज़ा सुनायी।
ऐसा ही एक अद्भुत वाकया है, ‘ऑपरेशन एंटेबी’। 27 जून, 1976 को मुस्लिम आतंकियों ने एयर फ्रांस का एक हवाई जहाज हाईजैक किया, जिसमें लगभग आधे यात्री ज्यू समुदाय के थे। इस विमान को वे आतंकी, युगांडा के एंटेबी में ले गए। उनकी मांग थी, इजराइल की जेलों में बंद चालीस इस्लामी आतंकियों को रिहा किया जाए।
इजराइल ने इसका जबरदस्त जवाब दिया। दुनिया के इतिहास में पहली बार हवाई अपहरण की घटना में आतंकी पूर्णतः परास्त हुए। इजराइल डिफेन्स फोर्सेज (आई डी एफ) जवाबी कार्यवाही करते हुए 4 जुलाई, 1976 को अपने 106 यात्रियों में से 102 यात्रियों को सकुशल इजराइल वापस लाई। इस ऑपरेशन में सभी 7 आतंकी मारे गए। उनको प्रश्रय देने वाले 45 युगांडन सैनिक भी मारे गए। युगांडा के एयर फोर्स के लगभग 30 फाईटर जहाज नष्ट किये। इजराइल का मात्र एक सैनिक मारा गया, वो था उनका कैप्टेन – योहन नेतान्याहू। आज के इजराइल के प्रधानमंत्री, बेंजामिन नेतान्याहू का सगा भाई।
ऐसे अनेक, असंभव लगने वाले कारनामे, इज़राइल की सेना ने और उसकी गुप्तचर संस्था ‘मोसाद’ ने कर दिखाये हैं। सत्तर के दशक में ईराक ने, फ्रांस की सहायता से परमाणु बम बनाने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी। उसके अनुसार परमाणु भट्टियाँ बनाने का काम भी प्रारंभ हो गया था। अगर यह बम बन जाता, तो इज़राइल का अस्तित्व निश्चित रूप से खतरे में आता। इसलिए इजराइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री ‘मेनशेन बेगीन’ ने मोसाद को इन परमाणु भट्टियों को नष्ट करने के आदेश दिये। उन दिनों इज़राइल को F-16 युद्धक विमान, नए – नए मिले थे। इज़राइल ने इन्हीं विमानों का प्रयोग कर, दिनांक 7 जून, 1981 को अत्यंत गोपनीय पद्धति से, बम गिराकर इन भट्टियों को नष्ट किया ! सारा अरब जगत देखता रह गया, पर कुछ कर न सका।
युद्ध का अद्भुत कौशल, सुरक्षा में चुस्त, जासूसी में दुनिया में अव्वल ये सब तो इजराइल की विशेषताएं हैं ही, किन्तु इजराइल इनके परे भी है। यह इजराइल तकनीक में अग्रसर राष्ट्र है। यह अत्याधुनिक तकनीक का न सिर्फ प्रयोग करता है, वरन निर्माण भी करता है। इजराइल को ठीक से समझने के लिए इजराइल को पास से देखना जरूरी है।
मैं तीन बार इजराइल गया हूँ। तीनों बार अलग अलग रास्तों से। पहली बार लंदन से गया था।दूसरी बार पेरिस से। लेकिन तीसरी बार मुझे जाने का अवसर मिला, पड़ोसी राष्ट्र जॉर्डन से।राजधानी अम्मान से, रॉयल जॉर्डन एयरलाइन्स के छोटे से एयरक्राफ्ट से तेल अवीव की दूरी मात्र चालीस मिनट की है। मुझे खिड़की की सीट मिली और हवाई जहाज छोटा होने से, तुलना में काफी नीचे से उड़ रहा था। आसमान साफ़ था। मैं नीचे देख रहा था। मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का अथाह फैला रेगिस्तान दिख रहा था। पायलट ने घोषणा की, कि ‘थोड़ी ही देर में हम नीचे उतरने लगेंगे’ और अचानक नीचे का दृश्य बदलने लगा। मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का स्थान हरे रंग ने लिया। अपनी अनेक छटाओं को समेटा हरा रंग..!
रेगिस्तान तो वही था। मिटटी भी वही थी। लेकिन जॉर्डन की सीमा का इजराइल को स्पर्श होते ही मिटटी ने रंग बदलना प्रारंभ किया। यह कमाल इजराइल का हैं’। उनके मेहनत का है। उनके जज्बे का है। रेगिस्तान में खेती करने वाला इजराइल आज दुनिया को उन्नत कृषि तकनीक निर्यात कर रहा है। रोज टनों फूल और सब्जियां यूरोप को भेज रहा है। आज सारी दुनिया जिसे अपना रही है, वह ‘ड्रिप इरीगेशन सिस्टम’, इजराइल की ही देन है।
इजराइल प्रतीक है स्वाभिमान का, आत्मसम्मान का और आत्मविश्वास का..!
मात्र अस्सी लाख जनसँख्या का यह देश, तीन से चार घंटे में देश के एक कोने से दूसरे कोने की यात्रा संपन्न होती है। मात्र दो प्रतिशत पानी के भण्डार वाला देश। प्राकृतिक संसाधन नहीं के बराबर। ईश्वर ने भी थोड़ा अन्याय ही किया है। आजू बाजू के अरब देशों में तेल निकला है, लेकिन इजराइल में वह भी नहीं..!
इजराइल राजनीतिक जीवंतता और समझ की पराकाष्ठा का देश है। इस छोटे से देश में कुल 12 दल हैं। आज तक कोई भी दल अपने बलबूते पर सरकार नहीं बना पाया है। पर एक बात है – देश की सुरक्षा, देश का सम्मान, देश का स्वाभिमान और देश हित… इन मुद्दों पर पूर्ण एकता है। इन मुद्दों पर कोई भी दल न समझौता करता है, और न ही सरकार गिराने की धमकी देता है। इजराइल का अपना ‘नेशनल अजेंडा’ है जिसका सम्मान सभी दल करते हैं।
14 मई, 1948 को जब इजराइल बना, तब दुनिया के सभी देशों से यहूदी (ज्यू) वहां आये थे। अपने भारत से भी ‘बेने इजराइल’ समुदाय के हजारों लोग वहां स्थलांतरित हुए थे। अनेक देशों से आने वाले लोगों की बोली भाषाएं भी अलग अलग थीं। अब प्रश्न उठा की देश की भाषा क्या होनी चाहिए..? उनकी अपनी हिब्रू भाषा तो पिछले दो हजार वर्षों से मृतवत पड़ी थी। बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे। इस भाषा में साहित्य बहुत कम था। नया तो था ही नहीं। अतः किसी ने सुझाव दिया कि अंग्रेजी देश की संपर्क भाषा बनाई जाए, पर स्वाभिमानी ज्यू इसे कैसे बर्दाश्त करते..? उन्होंने कहा, ‘हमारी अपनी हिब्रू भाषा ही इस देश के बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनेगी।’
निर्णय तो लिया, लेकिन व्यवहारिक कठिनाइयां सामने थीं। बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे। इसलिए इजराइल सरकार ने मात्र दो महीने में हिब्रू सिखाने का पाठ्यक्रम बनाया और फिर शुरू हुआ, दुनिया का एक बड़ा भाषाई अभियान..! पाँच वर्ष का।
इस अभियान के अंतर्गत पूरे इजराइल में जो भी व्यक्ति हिब्रू जानता था, वह दिन में 11 बजे से 1 बजे तक अपने निकट के शाला में जाकर हिब्रू पढ़ाएगा। अब इससे बच्चे तो पाँच वर्षों में हिब्रू सीख जायेंगे। बड़ों का क्या..?
इस का उत्तर भी था। शाला में पढ़ने वाले बच्चे प्रतिदिन शाम 7 से 8 बजे तक अपने माता-पिता और आस पड़ोस के बुजुर्गों को हिब्रू पढ़ाते थे। अब बच्चों ने पढ़ाने में गलती की तो..? जो सहज स्वाभाविक भी था। इसका उत्तर भी उनके पास था। अगस्त 1948 से मई 1953 तक प्रतिदिन हिब्रू का मानक (स्टैण्डर्ड) पाठ, इजराइल के रेडियो से प्रसारित होता था। अर्थात जहां बच्चे गलती करेंगे, वहां पर बुजुर्ग रेडियो के माध्यम से ठीक से समझ सकेंगे।
और मात्र पाँच वर्षों में, सन 1953 में, इस अभियान के बंद होने के समय, सारा इजराइल हिब्रू के मामले में शत प्रतिशत साक्षर हो चुका था..!
आज हिब्रू में अनेक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। इतने छोटे से राष्ट्र में इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर सारी उच्च शिक्षा हिब्रू में होती है। इजराइल को समझने के लिए बाहर के छात्र हिब्रू पढ़ने लगे हैं..!
ये है इजराइल..! जीवटता, जिजीविषा और स्वाभिमान का जीवंत प्रतीक..!