ज्ञानवापी मस्जिद : साक्ष्यों से मंदिर का सत्य आएगा सामने

ज्ञानवापी मस्जिद : साक्ष्यों से मंदिर का सत्य आएगा सामने

प्रमोद भार्गव

ज्ञानवापी मस्जिद : साक्ष्यों से मंदिर का सत्य आएगा सामनेज्ञानवापी मस्जिद : साक्ष्यों से मंदिर का सत्य आएगा सामने

वैसे तो संसद ने ही तय कर दिया है कि किसी धार्मिक स्थल की स्थिति वैसी ही रहेगी, जैसी 15 अगस्त 1947 तक थी। अयोध्या राम जन्म-भूमि मामले को इससे छूट दी गई थी, क्योंकि यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में विचाराधीन था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद ही अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण हो रहा है। लेकिन अब वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद प्रकरण में स्थानीय अदालत के सिविल जज द्वारा दिए गए निर्देश से नाटकीय एवं रोचक मोड़ आ गया है। हिंदू पक्ष की मांग पर अधिवक्ता आयुक्त को मस्जिद के भीतर जाकर मुआयना करने और वीडियोग्राफी के साथ अदालत में जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के आदेश दिए गए हैं। यह पहला मौका है, जब इस मस्जिद पर हिंदू पक्ष के दावे को प्रमाणित करने की दिशा में साक्ष्य जुटाने के लिए अहम् पहल हुई है। कानून के माध्यम से किसी विवादित मामले को सत्य तक पहुंचाने के लिए साक्ष्य ही मील के पत्थर साबित होते हैं। राम जन्म-भूमि प्रकरण में भी फैजाबाद के सिविल जज ने 1 अप्रैल 1950 को विवादित स्थल का नक्शा तैयार करने के लिए आयुक्त न्यायालय को नियुक्त किया था। आयुक्त ने 1950 में ही अपनी रिपोर्ट अदालत में पेश कर दी थी। उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक इस रिपोर्ट पर चर्चा हुई और निर्णय का भी आधार बनी। इस मामले में भी अदालत के आदेश से फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्थल की खुदाई कराकर जुटाए गए साक्ष्य ही फैसले में निर्णायक साबित हुए थे।

इस क्रम में प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर नाथ की ओर से वाद मित्र विजय शंकर रस्तोगी ने न्यायालय में तर्क दिया कि वर्तमान में विवादित स्थल की धार्मिक स्थिति 15 अगस्त 1947 को मंदिर की थी अथवा मस्जिद की, इसके निर्धारण के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता है। दरअसल विवादित स्थल विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है, इसलिए एक अंश की धार्मिक स्थिति का निर्धारण नहीं किया जा सकता, बल्कि ज्ञानवापी परिसर का भौतिक साक्ष्य लिया जाना आवश्यक है। जिसे पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा जांच कराकर स्पष्ट किया जाए और बताया जाए कि इस मस्जिद के नीचे और इसकी दीवारों के अंदरूनी हिस्सों में कोई मंदिर था अथवा नहीं ? तथ्यों के आधार पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के ध्वस्त अवशेष मस्जिद की दीवारों के अंदरूनी और बाहरी तौर पर विद्यमान बताए गए हैं। मंदिर की दीवारों और दरवाजों को चिनकर मस्जिद का वर्तमान ढांचा खड़ा किया गया है। पुराने विश्वनाथ मंदिर के अलावा समूचे परिसर में अनेक देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं। वर्तमान में जो ज्योतिर्लिंग स्थापित है, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा 1780 में महारानी अहिल्याबाई ने कराई थी। अदालत पुरा सर्वेक्षण में मिलने वाले साक्ष्यों के अलावा इतिहास की उन पुस्तकों को भी साक्ष्य मानेगी, जिनमें मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने के विवरण हैं। भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत अधिनियम की धारा 57 (13) के अंतर्गत सामान्य इतिहास की पुस्तकों में भी वर्णित ऐतिहासिक तथ्य को साक्ष्य के तौर पर मान्यता प्राप्त है। इस संदर्भ में 1937 में प्रकाशित इतिहासकार डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बनारसअदालत में प्रस्तुत भी की गई।

बीती सदी के अंत तक जो भी लोग विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गए हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देता था कि एक टूटे प्राचीन मंदिर के ढांचे पर कथित मस्जिद बनाई जा रही है। मैं भी 1992 में इस स्थिति से रूबरू हुआ था। मंदिर का चबूतरा और आलीशान सफेद पत्थर के स्तंभ स्पष्ट दिखाई देते थे। इसी परिसर में एक कुआं है, जिसमें बताते हैं, वह शिवलिंग है, जो तोड़े गए मंदिर में स्थापित था। इस आशय के यहां बोर्ड भी लगे हैं। कूप के ऊपर लोहे का जाल डाल दिया है। 2016 में जब मेरा फिर से मंदिर परिसर में जाना हुआ, तब तक ज्ञानवापी मस्जिद वर्तमान रूप में आ गई थी और मंदिर की दीवारों व स्तंभों को मार्बल से पाट दिया गया था। इसलिए मस्जिद का पुरातात्विक सर्वेक्षण होता है तो अंधों को भी टटोलने पर मंदिर के साक्ष्य अनुभव होने लग जाएंगे।

दरअसल स्वतंत्रता के बाद मुस्लिमों को यह उदारता दिखाने की आवश्यकता थी कि तोड़े गए मंदिरों के जिन अवशेषों पर मस्जिद बना रहे हैं, उन्हें हिंदुओं को सौंपकर कर सद्भाव की स्थाई रेखा खींच देते। तब न राम मंदिर का विवाद चलता और न अब नए विवादों के रूप में काशी और मथुरा आए होते? ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की वीडियोग्राफी और एएसआई से सर्वे कराने का फास्ट ट्रैक अदालत द्वारा दिया आदेश तो अपनी जगह है ही, सच्चाई यह भी है कि भाजपा प्रवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर पूजा स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम-1991 की वैधता को चुनौती भी दी गई है। दरअसल 1991 में केंद्र सरकार द्वारा सभी धर्मस्थलों से जुड़े विवादों में यथास्थिति बनाए रखने की दृष्टि से यह कानून लाया गया था। हालांकि अयोध्या के राम जन्मस्थल-बाबरी मस्जिद विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था। इस कानून के अनुसार 1947 से पहले जो धर्मस्थल जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में रहेंगे, यह बाध्यकारी शर्त जुड़ी है। इसी बूते वाराणसी की अंजुमन इंतेजामिया का दावा है कि ज्ञानवापी मस्जिद को इसी कानून के अंतर्गत सुरक्षा मिली हुई है। यानि अंजुमन भलीभांति जानता है कि मंदिर की बुनियाद पर मस्जिद टिकी है।

इस कानून की वैधता को चुनौती देने के साथ उन प्राचीन मंदिरों के पुनर्निर्माण की मांग भी की गई है, जो औरंगजेब के शासनकाल में तोड़े गए थे। हालांकि मंदिरों को तोड़े जाने और कन्वर्जन का क्रम इस्लामिक शासकों के भारत में आने के साथ ही शुरू हो गया था। इनमें वाराणसी का काशी विश्वनाथ मंदिर तो है ही, इसके अलावा मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि मंदिर भी है। इस मंदिर को तोड़कर शाही ईदगाह मस्जिद बना दी गई है। साथ ही एक अन्य याचिका में दिल्ली की कुतुबमीनार परिसर में पूजा की अनुमति मांगी गई है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस परिसर में 27 हिंदू व जैन मंदिर तोड़कर इसे वर्तमान रूप दिया था। हालांकि कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के तोमर राजाओं ने कराया था, ऐसे साक्ष्य डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक दिल्ली के तोमरमें दिए हैं।

वाराणसी पर मुस्लिमों के आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिन इतिहासकारों ने इतिहास, घटना और साक्ष्यों के आधार पर लिखा उन सब ग्रंथों में मुस्लिम शासकों द्वारा वाराण्सी में विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने के साथ अन्य एक हजार मंदिरों को तोड़ने का उल्लेख मिलता है। 1193 में थानेश्वर के युद्ध में पृथ्वीराज के मारे जाने तथा 1194 में काशी तथा कन्नौज के गाहड़वाल के राजा जयचंद को हराने के बाद मोहम्मद गोरी ने अपने सेनापति क़ुतुबुद्दीन ऐबक को बनारस पर हमला करने के लिए भेज दिया। इस युद्ध में हिंदुओं की हार हुई और किले पर ऐबक ने कब्जा कर लिया। इसके बाद लूट और यहां के एक हजार मंदिर तोड़ने की शुरूआत हुई। लूट की संपत्ति 1400 ऊंटों पर लादकर ऐबक ने गोरी के पास भेज दी। इससे प्रसन्न होकर गोरी ने कुतुबुद्दीन को दिल्ली का सुल्तान बना दिया और स्वयं अपने देश लौट गया। 1376 में फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में बनारस में अनेक मस्जिदों का निर्माण हुआ, जो तोड़े गए मंदिरों के अवशेषों से बनाई गई थीं। यही वह कालखंड था, जिसमें तलवार के बल से हिंदुओं का बड़ी संख्या में कन्वर्जन कराया गया। हालांकि कुछ साधु-संत इस विषम स्थिति में भी मंदिरों के पुनर्निर्माण में अपने प्राणों की आहुतियां दे-देकर लगे रहे। विश्वनाथ मंदिर भी तोड़ने के बाद अवशेषों से फिर खड़ा कर दिया। लेकिन 1436 से 1480 के दौरान उत्तर भारत का शासन लोदी-वंश के हाथ आ गया। इस वंश के दूसरे बादशाह सिकंदर लोदी ने 1494 में उन सभी मंदिरों को फिर से तोड़ दिया, जिनका पुनर्निर्माण हो गया था। विश्वनाथ मंदिर को तो पूरी तरह खंडहर में बदल दिया गया था। इस तोड़-फोड़ का चित्रण संस्कृत के ग्रंथ त्रिस्थली सेतु‘ (1580) और वीरमित्रोदय‘ (1620) में मिलता है।

अकबर के शासनकाल 1585 में टोडरमल ने अपने गुरु पंडितराज भट्टनारायण के आग्रह पर विश्वनाथ मंदिर फिर से बनवाया। किंतु 1669 में क्रूरतम शासक औरंगजेब की आज्ञा से एक बार फिर पुनर्निमित सभी मंदिरों को तोड़ दिया गया। इसी समय विश्वनाथ मंदिर के स्थान पर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। सन् 2000 से पहले तक मंदिर पर बनी इस मस्जिद की पश्चिमी दीवार ज्यों की त्यों दिखती थी, जो मंदिर होने के साक्ष्य खुले रूप में प्रगट करती थी, किंतु इस दीवार को मार्बल के पाटों से चिन दिया गया है। औरंगजेब द्वारा तोड़े गए विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्वार बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने कराया था।

बहरहाल, पुरातत्वीय परीक्षण की आंख से मंदिरों के अवशेषों  पर बनाई गई मस्जिदों की सच्चाई खंगाली जाएगी तो मंदिर होने के एक नहीं हजार प्रमाण मिलेंगे। दरअसल मुसलमानों ने भारत जैसे बहुलतावादी देश में रहते हुए, ऐसी उदारता कभी नहीं दिखाई कि वे मुस्लिम शासकों द्वारा किए अन्याय की सच्चाई को जानते हुए भी उसमें बदलाव के लिए एक बार भी आगे आए हों? उन्होंने अपनी जड़ों को इस्लामिक कट्टरता व क्रूरता में ही तलाशा। इसलिए वे तब भी नहीं पसीजे जब तीन दशक पहले कश्मीर से रातोंरात चार लाख से भी ज्यादा कश्मीरी हिंदुओं को अपने मूल निवास स्थलों से खदेड़ दिया गया था। इन स्थितियों को नजरअंदाज कर देने का परिणाम है कि हिंदू प्रतिक्रिया स्वरूप अपने धार्मिक कट्टर रूप में दिखाई दे रहे हैं। तथाकथित जो बौद्धिक हिंदुओं का अपना सनातन आधार हिंदू दर्शन और अध्यात्म में खोजने का उपदेश दे रहे हैं, वे नहीं जानते कि इस आध्यात्मिक दर्शन की आधारशिला भगवान राम और कृष्ण ने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम की यात्राओं के दौरान विजय पताकाएं फहराते हुए ही रखी थी। इस विजय यात्रा में जो भी दुराचारी बाधा के रूप में पेश आए, उन्हें वहीं कुचल दिया गया।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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