ट्रंप की जीत अर्थात् वैश्वीकरण का अंत?

ट्रंप की जीत अर्थात् वैश्वीकरण का अंत?

बलबीर पुंज

ट्रंप की जीत अर्थात् वैश्वीकरण का अंत?ट्रंप की जीत अर्थात् वैश्वीकरण का अंत?

क्या अमेरिका में राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी होगी? यह प्रश्न दुनिया के इस सबसे शक्तिशाली देश के लिए महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही यह शेष विश्व को भी प्रभावित करेगा। स्वयं वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने बीते दिनों अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था, “भारत में जी20 हो या किसी अन्य देश में हुई बैठक, जब भी दुनियाभर के नेता जुटते हैं, तो वे यही कहते हैं कि आप उन्हें (ट्रंप) जीतने नहीं देंगे।” बाइडेन इसलिए भी आशंकित हैं, क्योंकि फरवरी में ट्रंप ने यूरोपीय देशों को चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि वे नाटो में अपने बकाए का भुगतान नहीं करेंगे, तो वे रूस को उन पर आक्रमण करने देंगे। क्या ऐसा होगा? क्या ट्रंप की अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में जीत, वैश्वीकरण के ताबूत में भी अंतिम कील होगी?

ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल (2017-21) में जो निर्णय लिए थे, जिसमें चीन-विरोधी व्यापारिक दृष्टिकोण के साथ सात इस्लामी देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय तक शामिल था— उसमें उनकी सबसे प्रमुख नीति ‘अमेरिका फर्स्ट’ थी, जिसे ट्रंप इस बार भी दोहरा रहे हैं। अपनी पहली सरकार में ट्रंप ने शुल्कों के माध्यम से भारत-चीन सहित अन्य एशियाई देशों के साथ यूरोपीय सहयोगियों पर भी निशाना साधा था। ट्रंप अब अमेरिका में सभी आयातों पर 10 प्रतिशत, तो चीन से आयात पर 60 प्रतिशत तक का शुल्क लगाने की बात कर रहे हैं। वास्तव में, ट्रंप की यह नीति संरक्षणवाद से प्रेरित है, जो वैश्वीकरण के लिए खतरा है। यह घटनाक्रम इसलिए भी दिलचस्प है, क्योंकि दशकों से अमेरिका और वैश्वीकरण एक-दूसरे के पर्याय रहे हैं।

बात केवल वैश्वीकरण तक ही सीमित नहीं है। दुनिया में आदर्श समाज कैसा हो और उससे प्रेरित आर्थिकी कैसी हो, इस पर शीतयुद्ध से अमेरिका और पश्चिमी देशों का एकतरफा नियंत्रण रहा है। जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और यूरोपीय देशों के समर्थन से संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ, तब उसने वर्ष 1951 में ‘वन मॉडल, फिट्स ऑल’ शेष विश्व पर थोपते हुए कहा था, “ऐसा अनुभव होता है कि तीव्र आर्थिक प्रगति बिना दर्दनाक समायोजन के संभव नहीं। इसमें प्राचीन दर्शनों को छोड़ना; पुरानी सामाजिक संस्थाओं को विघटित करना; जाति, मजहब और पंथ के बंधनों से बाहर निकलना… होगा।” इसका मर्म यह था कि मानव केंद्रित प्रगति-उत्थान के लिए प्राचीन संस्कृति-सभ्यता और परंपराओं को ध्वस्त करना होगा, चाहे उसका समृद्ध इतिहास क्यों न हो। यही चिंतन वामपंथ के प्रणेता कार्ल मार्क्स का भी था, जो 1850 के दशक में ब्रितानियों द्वारा अनादिकालीन भारतीय संस्कृति के दमन हेतु कुटिल उपायों का समर्थन करते थे।

उपरोक्त पश्चिमी जीवन-दर्शन का परिणाम क्या निकला, यह अमेरिका की स्थिति से स्पष्ट है। वर्ष 1492-93 में यूरोपीय ईसाई प्रचारक क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा खोजे गए और वर्ष 1789 से संविधान द्वारा संचालित अमेरिका की वर्तमान जनसंख्या 34 करोड़ है। कहने को अमेरिका आर्थिक-सामरिक रूप से समृद्ध है, परंतु उसके 13 करोड़ से अधिक युवा अकेलेपन से ग्रस्त हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अकेलेपन को गंभीर खतरा बताया है। इससे पनपे अवसाद के कारण ही अमेरिका में पिछले एक दशक में प्रतिवर्ष 400-600 अंधाधुंध गोलीबारी के मामले सामने आ रहे हैं। एक तिहाई अमेरिकी युवा अपने माता-पिता के साथ रहने को ‘बुरा’ मानते हैं, इसलिए अमेरिकी सरकार 65 या उससे अधिक आयु वर्ष के बुजुर्गों की देखभाल हेतु बाध्य है। इस संबंध में वर्ष 2019 में अमेरिकी सरकार ने अपने राजकीय बजट में से डेढ़ ट्रिलियन डॉलर व्यय किया था, जिसके 2029 तक दोगुना होने की संभावना है। इसी असंतुलन के कारण अमेरिका में एकल-व्यक्ति परिवार की संख्या वर्ष 1960 में 13% से बढ़कर वर्ष 2022 में 29% हो गई है। सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों के ह्रास से अमेरिका और पश्चिमी देशों में तलाक दर 40-80 प्रतिशत तक पहुंच गया है।

किसी भी समाज में संस्कृति और जीवनशैली एक-दूसरे का पूरक होते हैं, जो उसके अर्थशास्त्र में भी परिलक्षित होता है। अमेरिकी और पश्चिमी देशों में मानव केंद्रित विकास ने प्रकृति का सर्वाधिक दोहन किया है। दुनिया के सामने गहराता जलवायु संकट इसका प्रमाण है। 1951 के ‘वन मॉडल, फिट्स ऑल’ के कारण ही वर्ष 2007-08 में पूरा विश्व मंदी की चपेट में आ गया। तब कालांतर में संयुक्त राष्ट्र ने 2015 के अपने सहस्राब्दी लक्ष्य घोषणा में कहा कि संस्कृति ही विकास की नींव होना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में अब अमेरिका समर्थित वैश्वीकरण भी समाप्ति की ओर है।

विगत दो दशकों में चीन के चमत्कारिक उभार में वैश्वीकरण का बहुत बड़ा योगदान है। परंतु चीन आर्थिक संकट से जूझ रहा है, जिसमें धीमी होती विकास दर, घटता विदेशी निवेश, प्रॉपर्टी क्षेत्र में मंदी, सुस्त निर्यात, कमजोर मुद्रा और युवाओं में लगातार बढ़ती बेरोजगारी शामिल है। बीते तीन वर्षों में चीन का शेयर बाजार 50 प्रतिशत तक गिर चुका है। स्वयं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी इस नववर्ष की पूर्व संध्या पर पहली बार आर्थिक संकट को स्वीकार किया था। इस स्थिति के लिए चीन की विकृत कोविड-नीति और उसकी अधिनायकवादी-साम्राज्यवादी मानसिकता के विरुद्ध शक्तिशाली वैश्विक समूहों (क्वाड सहित) के संघर्ष की एक बड़ी भूमिका है।

इस परिदृश्य से भारत को प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ मिला है, क्योंकि वर्तमान मोदी सरकार जहां ‘आत्मनिर्भर भारत’ पर बल दे रही है, वहीं ‘मेक इन इंडिया’ नीति के माध्यम से विश्व प्रसिद्ध कंपनियों को भारत में अपनी ईकाई स्थापित करने का सशर्त प्रस्ताव भी दे रही है। यही नहीं, पीएलआई योजना घरेलू और विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करके भारत के विनिर्माण क्षेत्र को मजबूती भी मिल रही है। इस कारण विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि 16 वर्ष के उच्चतम स्तर 59.1 पीएमआई पर पहुंच गई है।

बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत, राष्ट्रपति बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका का महत्वपूर्ण आर्थिक साझीदार बन गया है। परंतु ट्रंप प्रशासन में भारत के साथ शुल्क पर बातचीत और व्यापार समझौता सफल नहीं हो पाया था। ऐसे में ट्रंप की वापसी होने की संभावना पर दिल्ली को वाशिंगटन के साथ व्यापारिक सहयोग हेतु पुन: रचनात्मक रूप से सोचना होगा।

(हाल ही में लेखक की ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ पुस्तक प्रकाशित हुई है)

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