नागालैंड को अशांत करने के प्रयास में फिर सिर उठा रहे एनएससीएन और थुंगालेंग मुइवा
प्रो. रसाल सिंह
नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम (आईएम) के महासचिव थुंगालेंग मुइवा की हठधर्मिता और अड़ियल रवैये के चलते एकबार फिर नागा समुदाय के साथ जारी शांति वार्ता में गतिरोध पैदा होने की आशंका पैदा हो गई है। एनएससीएन और थुंगालेंग मुइवा की महत्वाकांक्षा और सत्ता-लालसा के चलते यह गतिरोध पैदा हो रहा है। यह हिंसावादी सशस्त्र संगठन अपनी भूमिगत सेना के चलते नागालैंड में समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करता रहा है। इस संगठन को भारत-विरोधी देशों से भरपूर शह, सहयोग और समर्थन मिलता रहता है। शांति-वार्ता के सफल हो जाने की स्थिति में इस संगठन और इसके स्वयंभू नेता को अप्रासंगिक हो जाने का डर है; क्योंकि यह संगठन वास्तव में बहुसंख्यक नागा समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
एनएससीएन (आईएम) अपनी सशस्त्र सेना और अन्यान्य हथकंडों के कारण यह संदेश देने में जरूर सफल रहा है कि वही संपूर्ण नागा समुदाय का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन है और वही नागाओं के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक है। किन्तु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलेगा कि यह संगठन नागाओं में अत्यन्त अल्पसंख्यक मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय का ही प्रतिनिधित्व करता है। न सिर्फ इस संगठन के सर्वेसर्वा मुइवा स्वयं इसी समुदाय से आते हैं, बल्कि समस्त नागाओं का प्रतिनिधि संगठन होने का दम भरने वाले इस संगठन के अधिकांश महत्वपूर्ण पदों पर तन्ग्खुल समुदाय के लोग ही काबिज हैं। शांति-वार्ता के सफल होने और पूरे नागालैंड में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया बहाल हो जाने की स्थिति में इन्हें अपने “अप्रासंगिक” हो जाने का खतरा शांति-वार्ता में गतिरोध पैदा करने को विवश करता प्रतीत हो रहा है।
नागा हितों की आड़ में खुद की चिंता
नागा हितों की आड़ में अपने और तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व को बनाए/बचाए रखना मूल चिंता है। यदि भारत सरकार और शांति-वार्ताकार और नागालैंड के राज्यपाल आरएन रवि ने सूझबूझ से काम लिया तो इस बार इन्हें सफलता हाथ नहीं लगेगी क्योंकि नागाओं की बहुत बड़ी आबादी इनके वास्तविक मंसूबों और हथकंडों को समझने लगी है। साथ ही, दो-तीन दशक से इस संगठन द्वारा की गई हिंसा, डर और दहशत से बाहर निकलकर अपनी आकांक्षाओं और सपनों को स्वयं अभिव्यक्त करना चाहती है।
1966 में भी लगाया था शांतिवार्ता में पलीता
यह चिंता की बात तो है ही कि व्यक्ति-विशेष (थुंगालेंग मुइवा) ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए एकबार फिर शांतिवार्ता में पलीता लगाने का षड्यंत्र शुरू कर दिया है। ठीक ऐसा ही इस व्यक्ति ने सन् 1966 में नागा समस्या के समाधान के समय भी किया था। भारत के भगोड़े फीज़ो ने ब्रिटेन में शरण लेकर सन् 1965 में मणिपुर के तन्खुल समुदाय के मुइवा को नागा नेशनल काउंसिल (NNC) का महासचिव बना दिया था। फीज़ो की अनुपस्थिति और उसके अटूट विश्वास का भरपूर लाभ लेते हुए मुइवा ने अपनी स्थिति को बहुत जल्दी और बहुत मजबूत कर लिया था। सन् 1966 में होने वाले शांति-समझौते के समय सेमा और अंगामी जैसे दो बड़े समुदायों में आपसी फूट और अविश्वास पैदा करके उसने शांति-वार्ता को विफल करा दिया था। सन् 1979 तक भूमिगत नागा सेना को क्रमशः अपने प्रभाव में लेकर और NNC में तख्तापलट करते हुए उसने सत्ता हथिया ली। सन् 1980 में इस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालिम का गठन करके अपने ‘गॉडफादर’ रहे फीज़ो को भी किनारे कर दिया था।
अलग झंडे की मांग नहीं मानेगी सरकार
थुंगालेंग मुइवा के संगठन NSCN(IM) ने अब एकबार फिर अपनी पुरानी मांग को आगे किया है। यह संगठन अब एक बार फिर नागालैंड के लिए अलग झंडे और अलग संविधान की मांग कर रहा है। यह मांग भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को सीधी चुनौती देने जैसा है। 5 अगस्त, 2019 को जिस मोदी सरकार ने आज़ादी के समय से चले आ रहे जम्मू-कश्मीर के अलग झंडे और अलग कानून को समाप्त करके राष्ट्रीय एकीकरण के स्वप्न को साकार किया है; वह भला देश तोड़ने की ऐसी अलगाववादी मांग को कैसे मान सकती है। यह संगठन और थुंगालेंग मुइवा इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भारत सरकार इस मांग को कभी नहीं मानेगी। उसने यह मांग दबाव बनाने और अपने लिए अधिक से अधिक सुविधाएं और ‘विशेषाधिकार’ प्राप्त करने के लिए रखी है। या तो सरकार उसकी नाजायज मांगों को मानेगी या शांति-वार्ता में गतिरोध पैदा हो जाएगा और वह अंततः टूट जाएगी। दोनों ही स्थितियों में यह संगठन अपना फायदा देख रहा है। आम नागा के हितों और विकास से उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है।
शांति-वार्ताकार को बदलने की मांग
इसी प्रकार उसने शांति-वार्ताकार आरएन रवि को बदलने की भी मांग की है, क्योंकि उन्होंने इस संगठन के अलावा नागाओं के अन्य प्रतिनिधि संगठनों को भी वार्ता के दायरे में शामिल करने की पहल की है। साथ ही, उन्होंने भूमिगत संगठनों द्वारा की जाने वाली गैरकानूनी वसूली और अन्य गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए स्थानीय सरकार पर दबाव बनाया है। ऐसा करने से एनएससीएन (आईएम) का एकाधिकार और वर्चस्व खतरे में पड़ता है। इसलिए पुनः जंगलों में लौटने की गीदड़-भभकी के साथ-साथ छिट-पुट संगठनों से प्रायोजित आंदोलन, प्रदर्शन, बयानबाजी भी कराई जा रही है।
सभी स्टेकहोल्डर्स की भागीदारी आवश्यक
शांति-वार्ता के लम्बा खिंचने की स्थिति में युद्ध-विराम जारी रहेगा, जिसका फायदा उठाकर यह संगठन न सिर्फ खुद को पुनः संगठित और मजबूत करना चाहता है; बल्कि अपनी लेवी (वसूली) आदि गैर-क़ानूनी गतिविधियों का भी निर्विघ्न संचालित करते रहना चाहता है। वह गतिरोध की समयावधि का उपयोग अन्य नागा संगठनों और शांतिपूर्ण ढंग से समाधान चाहने वाले नागा समूहों को ठिकाने लगाने या किनारे करने के लिए भी करना चाहता है। अन्य नागा संगठनों (जिनमें से कई सशस्त्र संगठन भी हैं) को केंद्र की अलग-अलग सरकारों ने लगातार उपेक्षित किया है, क्योंकि उनकी हिंसात्मक और विनाशक शक्ति एनएससीएन (आईएम) जितनी नहीं है। हालांकि, वे बड़े नागा समुदायों और बहुसंख्यक नागाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। केंद्र सरकार को इस सत्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि शांति-वार्ता के फलागम को चिरस्थायी और व्यापक बनाने के लिए सभी स्टेकहोल्डर्स की भागीदारी आवश्यक है।
नागालैंड में रहते हैं 14 नागा समुदाय
नागालैंड में 14 नागा समुदाय निवास करते हैं। नागालैंड में रहने वाले ये 14 नागा समुदाय नागाओं की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत हैं। इन अलग-अलग समुदायों के अपने बहुत से सक्रिय और सशक्त संगठन हैं। वे समुदाय विशेष के विशिष्ट इतिहास, सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और आशा-आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। नागालैंड गांव बूढ़ा फेडरेशन (जो नागालैंड के 14 नागा समुदायों के गांव प्रमुखों की सर्वोच्च संस्था है) ने निडरतापूर्वक आगे आकर केंद्र सरकार से अपील की है कि नागा समस्या के समाधान में ‘अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाले’ चरमपंथी संगठन एनएससीएन (आईएम) को आवश्यकता से अधिक महत्व न दिया जाए और नागा समुदाय के अन्य प्रतिनिधि संगठनों की भी सुनवाई की जाए।
एनएससीएन (आईएम) की विश्वसनीयता में आई गिरावट
नागा समुदायों के बीच मणिपुर के तन्ग्खुल समुदाय के वर्चस्व वाले संगठन एनएससीएन (आईएम) की विश्वसनीयता में क्रमशः गिरावट आई है। हालांकि, इस समुदाय के प्रति अविश्वास और प्रतिद्वंद्विता का इतिहास बहुत पुराना है। आपसी भरोसे और एकता में कमी का मूल कारण मुइवा की पृष्ठभूमि, उसकी कार्यशैली और एनएनसी और एनएससीएन के शीर्ष पर पहुंचने के लिए उसके द्वारा बहाया गया अपने ही नागा भाइयों का खून है। एक और वजह इस संगठन में अन्य नागा समुदायों की उपेक्षा और दोयम स्थिति है। इस संगठन के प्रति उपजी घृणा की जड़ में इसकी धौंस-पट्टी और हिंसा के बल पर दूसरे समूहों और समुदायों की आवाज़ को दबाने की प्रवृत्ति भी है। एनएससीएन पर काबिज तन्ग्खुल नेतृत्व के प्रति घृणा, अविश्वास और अस्वीकार्यता का आलम यह है कि उसके कैडर और कॉलोनियों पर अनेक बार सेमा, लोथा, अंगामी, आओ आदि समुदायों द्वारा घातक हमले किए गए हैं। ये हमले विश्वसनीयता की कमी और घृणा का ही प्रतिफलन हैं। अन्य नागा समुदायों और संगठनों में इस संगठन के प्रति आक्रोश और असंतोष का भाव इसलिए भी है क्योंकि इसने अपनी हिंसक कार्रवाइयों की वजह से देश और दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके स्वयं को समस्त नागाओं का प्रतिनिधि और संरक्षक संगठन प्रचारित कर रखा है, जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है।
एनएससीएन (आईएम) सर्वाधिक कुख्यात संगठन
इसमें दो राय नहीं कि एनएससीएन (आईएम) सर्वाधिक कुख्यात, हिंसक और उग्र संगठन है। किन्तु वही नागाओं का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन नहीं है। वह व्यापक नागा जनाकांक्षाओं की आवाज़ भी नहीं है। यूं भी इस संगठन का मुखिया थुंगालेंग मुइवा एक भरोसेमंद और नागा हितों के लिए समर्पित व्यक्ति नहीं है। उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। पिछले तीन दशक में उसने अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग बहानों से शांति-प्रयासों को पलीता लगाया है, ताकि अपना महत्व बनाए रखकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि करता रह सके। इस बार की उसकी चाल नई नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि नागा लोगों को बरगलाने, भड़काने, डराने और दुष्प्रचार करने की कला में भी यह संगठन और इसका मुखिया सिद्धहस्त हैं।
भारत सरकार और शांति-वार्ताकार आरएन रवि को उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखते हुए शांति-प्रयास जारी रखने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय यह भी है कि अब नागालैंड की आम जनता, खासकर युवा पीढ़ी अनवरत संघर्ष और हिंसा से मुक्ति चाहती है और विकास और बदलाव चाहती है। वह उसी संगठन का साथ देगी जो समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएगा और उनके सपनों को साकार करने की जमीन तैयार करेगा।
(लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू में प्रोफेसर और अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं)