लगातार बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं और व्यक्ति व समाज के रूप में संवेदनहीन होते हम..

राजस्थान में दुष्कर्मों का बढ़ता ग्राफ, सुरक्षित नहीं नाबालिग बच्चियां भी

मनीष गोधा

लगातार बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं और व्यक्ति व समाज के रूप में सुन्न होते हम..

जयपुर। इन घटनाओं को पढ़िए… श्रीगंगानगर जिले में दो सगे भाइयों ने पड़ोस में रहने वाली मानसिक रूप से विक्षिप्त एक नाबालिग बालिका से तीन माह तक बार-बार रेप किया। पीड़िता के माता-पिता जब खेतों में काम करने चले जाते थे तो पीछे से दो भाई पीड़िता को चॉकलेट और बिस्किट खिलाने के बहाने बुला लेते और बारी-बारी से दुष्कर्म करते।

चूरू में 19 साल की युवती को अगवा कर 9 युवकों ने 8 दिनों तक दुष्कर्म किया। आरोपी पीड़िता को राजगढ़, जयपुर और सीकर के नीम का थाना में घुमाते रहे और बंधक बनाकर रेप करते रहे। पीड़िता आरोपियों में से एक युवक की परिचित थी। यह युवक उसे किसी परीक्षा का फार्म भरवाने के बहाने ले गया और साथियों के साथ मिलकर न सिर्फ रेप किया बल्कि अश्लील वीडियो भी बना लिया। बाद में इसी वीडियो को वायरल करने की धमकी देकर कुछ और युवकों ने युवती के साथ दुष्कर्म किया।

बाड़मेर में एक नाबालिग दो युवकों की वासना का शिकार बनी। जिस समय इस घटना को अंजाम दिया गया था उस समय परिवार के अन्य लोग मतदान करने के लिए गए हुए थे। युवकों ने दुष्कर्म के साथ ही नाबालिग का वीडियो भी बना लिया।

चूरू में ही एक नाबालिग भी सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनी। पीड़िता को अगवा किया गया और लगभग एक माह तक आरोपी नाबालिग को चाय में नशीला पदार्थ पिलाकर उससे दुष्कर्म करते रहे।

ऐसी घटनाएं हमारे चारों ओर प्रतिदिन घट रही हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि अकेले राजस्थान में हर दिन औसतन दस से अधिक ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं। ये घटनाएं बता रही हैं कि आरोपी इस सीमा तक संवेदनहीन होते जा रहे हैं कि वे ना किसी की आयु देख रहे हैं और ना कोई बीमारी….। आरोपियों की संवेदनहीनता अपनी जगह है, पर प्रश्न यह है कि इन घटनाओं पर हम क्या कर रहे हैं? राजनीतिक कारणों से कभी कोई घटना मुद्दा बन जाए तो हम सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाल कर यह मान लेते हैं कि हमने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभा दी, लेकिन कभी स्वयं को टटोलिए कि हर दिन सामने आने वाली ये घटनाएं कहीं हमारी संवेदनाओं को समाप्त तो नहीं कर रही हैं? क्या एक व्यक्ति और समाज के रूप में हम मन-मस्तिष्क से सुन्न होते जा रहे हैं? हम यह भूलते तो नहीं जा रहे हैं कि हम एक सभ्य समाज के नागरिक हैं और समाज के प्रति हमारा कोई दायित्व है? क्यों अपराधियों में समाज का भय समाप्त होता जा रहा है?

सम्पूर्ण विश्व में इक्कसवीं सदी को तकनीक और सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति की सदी माना गया है। यह हमने देखा भी है कि किस तरह तकनीक हमारे जीवन में स्थान बनाती जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2020 में भारत में लगभग 70 करोड इंटरनेट उपभोक्ता हो चुके हैं। तकनीक और विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी पर हम किस हद तक निर्भर हो चुके हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस तकनीक ने हमारे बहुत सारे काम बहुत सरल कर दिए हैं। लेकिन इस तकनीक ने ही हमें कुछ ऐसी चीजें भी बहुत आसानी से उपलब्ध कराई हैं, जिनकी हमें विशेष आवश्यकता नहीं थी। इनके बिना भी हमारा काम चल रहा था। इन में पहला नाम आता है सोशल मीडिया का। जिसने हमें वर्चुअल तरीके से तो एक दूसरे के करीब ला दिया है, लेकिन भौतिक स्तर पर हम आपस में दूर हो गए हैं। अपने परिवारों को ही देखेंगे तो पाएंगे कि बच्चों और माता-पिता को तो छोड़िए, पति-पत्नी तक में आपसी संवाद कम से कम होता जा रहा है। हम सब अपनी एक अलग ही आभासी दुनिया में जीने लगे हैं, जहां हमारी दुनिया हमारे स्मार्ट फोन और उस पर आने वाली बेमतलब की जानकारियों तक सीमित रह गई है जो हमारे पास ना जाने कहां से आती है और हम बिना जाने समझे उसे आगे फाॅरवर्ड करते रहते हैं। बच्चों मे अकेलापन बढ़ता जा रहा है। आभासी दुनिया उन्हें संवेदना के स्तर पर खाली कर रही है। वे अपने लैपटाॅप या स्मार्टफोन में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें बाकी दुनिया से कोई मतलब ही नहीं रह जाता। इन पर वो क्या देख रहे हैं, इसका हमें अंदाजा तक नहीं होता। स्वयं राजस्थान के पुलिस महानिदेशक भूपेन्द्र सिंह पिछले दिनों अलवर में इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान और नियंत्रण रखना अनिवार्य हो गया है।

तकनीक की इस तथाकथित क्रांति ने ही मनोरंजन को भी हमारे लिए बहुत सुलभ बनाया है। आज हमारे स्मार्ट फोन पर हमारे मनोरंजन के सारे साधन उपलब्ध हैं। लेकिन इस सहज उपलब्धता के कारण विकृत मानसिकता का वह कंटेंट भी हमें  आसानी से उपलब्ध है जो आज के दस वर्ष पहले तक भी आसानी से नहीं मिलता था, फिर चाहे वह पोर्न साइट्स हों या यूट्यूब पर उपलब्ध साॅफ्ट पोर्न या ओटीटी प्लेटफार्म पर उपलब्ध वेबसीरीज में परोसी जा रही अश्लीलता और वीभत्सता। ओटीटी प्लेटफाॅर्म पर मौजूद वेबसीरीजों पर कोई सेंसर नहीं है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपशब्दों, अश्लीलता, हिंसा और वीभत्सता का इतना तीखा मसाला परोसा जा रहा है कि दिमाग सुन्न हो सकता है। दुष्कर्म तो मान लिया कि पहले भी होते रहे हैं, लेकिन दुष्कर्म करते हुए किसी पीड़िता का वीडियो बनाना, उसे वायरल करना और कई लोगों द्वारा इसे देखा जाना, क्या संवेदनहीन और विकृत मानसिकता की ओर इशारा नहीं करता? क्या कभी हमने यह जानने का प्रयास किया कि यह मानसिकता आ कहां से रही है?

हमारी संवेदनाओं में कमी का एक बड़ा कारण पढ़ाई, आजीविका या अन्य कारणों से घर परिवार से दूरी भी है। बेहतर कॅरियर के लिए हम अपने बच्चों को किशोरावस्था में ही घर से दूर भेज देते हैं। इसलिए पढ़ाई के बाद व्यवसाय के लिए भी बच्चे परिवार से दूर ही रहते हैं। ऐसे में परिवार के साथ रहने से बच्चों में आपसी रिश्तों और समाज के प्रति जिस संवेदना का विकास होना चाहिए, वैसा हो नहीं पाता। वे यांत्रिक हो कर रह जाते हैं और लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, हमेशा आगे रहने की चाहत, उनकी संवेदनाओं को समाप्त कर देती है। हम अक्सर देखते हैं कि अच्छे कॅरियर की चाह में डूबे किशोरों और युवाओं को अपनी फील्ड के अलावा अन्य क्षेत्रों या समाज में चल रही स्थितियों के बारे में बहुत कम रुचि होती है। यही कारण है कि इस तरह की घटनाएं उनके लिए केवल समाचार मात्र होती हैं, जिन पर वे कुछ देर के लिए पढ़ते हैं और फिर आगे बढ़ जाते हैं।

इन स्थितियों के बारे में हमें स्वयं बहुत गम्भीरता से सोचना होगा। मशीनी जीवनशैली और आभासी दुनिया के साथ रहते हुए हमें अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी संवेदनाओं को जीवित रखना नितान्त आवश्यक है। जयपुर के मनोचिकित्सक अखिलेश जैन कहते हैं कि इन घटनाओं के प्रति समाज से कड़ा प्रतिरोध आना जरूरी है। हम सोशल मीडिया पर किसी चीज को फारवर्ड कर रहे हैं, इसका अर्थ यह है कि हम उस घटना के प्रति कुछ संवेदनशील तो हैं, लेकिन सिर्फ फाॅरवर्ड करने से बात नहीं बनेगी। ऐसी घटनाओं के प्रति मुखर विरोध जरूरी है।

सही है, रेप जैसी घटनाओं पर हमारे दिल और दिमाग में यदि सिहरन पैदा नहीं हो रही है तो यह मान कर चलिए कि हम एक व्यक्ति और समाज के रूप में सुन्न होते जा रहे हैं। यह माना जाता है कि किसी भी तरह का अपराध रोकने के लिए डर का होना जरूरी है। यह डर प्रशासन और पुलिस से ज्यादा समाज का होना चाहिए, लेकिन यह डर तभी पैदा होगा, जब व्यक्ति और समाज के स्तर पर हम अपनी झनझनाहट को बनाए रखेंगे। नहीं तो मीडिया की भाषा में यह न्यूज़ नॉर्मल हो जाएगा।

 

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