‘द कश्मीर फाइल्स’ का विरोध क्यों?
बलबीर पुंज
कश्मीरी हिन्दुओं की वेदना से भरी और सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ का समाज के एक वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा है। ऐसे लोगों में कुछ स्वयंभू सेकुलर राजनीतिक दल, वामपंथी और स्वघोषित उदारवादी शामिल हैं, जो मुखर होकर कश्मीरी हिन्दुओं द्वारा झेली मजहबी विभीषका को चुनौती दे रहे हैं। वे फिल्म को ‘फर्जी’, ‘प्रोपेगेंडा’ और ‘इस्लामोफोबिया’ का प्रतीक बता रहे हैं, तो तीन दशक पुराने घटनाक्रम में मजहब के नाम पर हताहत हुए कश्मीरी हिन्दुओं की संख्या बहुत सीमित या गौण करके आंक रहे हैं। वास्तव में, यह लोग उस जिहादी मानसिकता का बचाव कर रहे हैं, जिसने भारत में बीते 1300 वर्षों में अनगिनत स्थानीय निवासियों को मौत के घाट उतारा, जबरन मतांतरण किया, उनकी महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाया, सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा, इस्लाम के नाम पर रक्तरंजित विभाजन कराया और स्वतंत्रता के बाद देश में दर्जनों आतंकवादी हमलों, सांप्रदायिक दंगों की पटकथा लिख चुके हैं।
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर इस वर्ग की बौखलाहट नई नहीं है। इसी जमात ने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु और देश की सनातन संस्कृति से वैचारिक घृणा करने के नाम पर 1989-91 में हुए कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार-पलायन के वस्तुनिष्ठ कारणों और उसे प्रेरित करती मानसिकता को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनने दिया था। यह लोग तब भी असहज हो गए थे, जब गत वर्ष जिहादी फिर से चुन-चुनकर गैर-मुस्लिमों और भारतपरस्त मुस्लिमों की गोली मारकर हत्या कर रहे थे और मीडिया का बड़ा वर्ग इस पर चर्चा कर रहा था।
सच तो यह है कि फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस जमात के एजेंडे के अनुरूप इसलिए नहीं है, क्योंकि इसमें अक्टूबर 2014 को आई फिल्म ‘हैदर’ की भांति ना ही प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अलगाववादी शक्तियों की मांगों को न्यायोचित ठहराया गया है, ना ही भारतीय सुरक्षाबलों का दानवीकरण किया गया है और ना ही 14वीं शताब्दी में शाहमीर साम्राज्य के अंतिम सिकंदर बुतशिकन द्वारा लूटे, तोड़े गए प्राचीन भव्य मार्तंड सूर्य मंदिर के अवशेषों को ‘शैतान के घर’ के रूप में फिल्माया गया है।
तीन दशक पहले कश्मीर में हिंदुओं ने जो कुछ झेला था, क्या वह अकस्मात था?- नहीं। इस त्रासदी के लिए ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित दर्शन और इससे संबंधित वह मजहब ‘इको-सिस्टम’ जिम्मेदार है, जिसका कश्मीर में बीजारोपण वर्ष 1931 में घोर सांप्रदायिक और पंडित जवाहर लाल नेहरू के परममित्र शेख अब्दुल्ला ने किया था। तब वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जिहादी भट्टी में तपकर कश्मीर लौटे थे और आते ही उन्होंने मस्जिद से इस्लामी नारों के साथ जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह के विरुद्ध मजहबी संघर्ष छेड़ दिया था। जब देश स्वाधीन हुआ, तो पं.नेहरू के समर्थन से शेख ने संविधान में विकृत धारा 370-35ए को जोड़कर कश्मीर को देश से भावनात्मक रूप से काटने का काम किया। इससे घाटी में राष्ट्रीय पहचान और भारतीय प्रतीक गौण हो गए, तो स्थानीय लोगों में इस्लामी पहचान हावी होती चली गई। इसी चिंतन को शेख के पुत्र फारूक अब्दुल्ला और पौत्र उमर अब्दुल्ला सहित अन्य कश्मीरी नेता (मुफ्ती परिवार सहित) आज भी आगे बढ़ाते हुए उसे संरक्षण दे रहे हैं।
वस्तुत: जिस मजहबी चिंतन से कश्मीर 91 वर्षों से जकड़ा हुआ है, उसे पोषित करने में ब्रितानियों के एजेंट सर सैयद अहमद खां द्वारा प्रतिपादित ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तब 16 मार्च 1888 को सैयद ने मेरठ के अपने भाषण में कहा था, “अंग्रेजों के चले जाने के बाद हिन्दू और मुस्लिम कौमों का एक सिंहासन पर बैठना असंभव और अकल्पनीय है। इसके लिए दोनों को एक-दूसरे पर विजय पाना होगा।” क्या 1989-91 में जिहादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों का नरसंहार, उनकी महिलाओं से बलात्कार और फिर पांच लाख से अधिक हिन्दुओं का पलायन- इसी मानसिकता का मूर्त रूप नहीं है?
इस अमानवीय दर्शन को संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने भी रेखांकित किया था। ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ लेखन में बाबासाहेब ने कहा था, “…इस्लाम का भ्रातृत्व, सार्वभौमिक भ्रातृत्व का सिद्धांत नहीं है। यह केवल मुसलमानों तक सीमित है। जो बाहरी है, उनके प्रति शत्रुता और तिरस्कार के सिवाय कुछ नहीं है। इस्लाम कभी भी एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में अपनाने और एक हिंदू को अपने स्वजन और रिश्तेदार के रूप में मानने की अनुमति नहीं दे सकता….।”
कश्मीरी हिन्दुओं की त्रासदी को 1980 के दशक में अधिकतर समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे दिवंगत जगमोहन मल्होत्रा ने अपनी पुस्तक “माय फ्रोज़न टर्बुलेंस इन कश्मीर” में प्रलेखित किया था। उनके अनुसार, जिहादियों ने 1989-96 के बीच 4,646 (अधिकांश हिन्दू) स्थानीय लोगों की हत्या की थी, 2,300 से अधिक का अपहरण किया था, 6,886 निजी घरों और 31 मंदिरों को जमींदोज कर दिया था। बाद में, इन क्षतिग्रस्त मंदिरों की संख्या 208 हो गई थी। यह सच है कि कश्मीर में गैर-मुस्लिमों के साथ मुसलमान भी आतंकवादियों के निशाने पर रहे हैं, जो भारत और उसकी बहुलतावादी सनातन संस्कृति में विश्वास रखते हैं। किंतु फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ की पृष्ठभूमि में जिस प्रकार यह स्थापित करने का प्रयास हो रहा है कि कश्मीर में आतंकवाद का शिकार केवल हिन्दू ही नहीं हुए थे, इससे मुझे 1993 में मुंबई के श्रृंखलाबद्ध बम धमाके का स्मरण होता है। तब जिहादियों ने मुंबई के 12 हिन्दू बहुल स्थानों पर धमाके किए थे, जिसमें 257 लोग मारे गए थे। किंतु तब महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने इन हमलों के पीछे की जिहादी मानसिकता को छिपाने और हमलावरों की मजहबी पहचान से ध्यान भटकाने हेतु मीडिया में यह झूठ बोल दिया कि एक 13वां धमाका मुस्लिम बहुल मस्जिद बंदर के पास हुआ है और इन हमलों के पीछे श्रीलंकाई चरमपंथी संगठन लिट्टे का हाथ है।
इस परिदृश्य से स्थापित होता है कि कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार में हमारी तत्कालीन शासन-व्यवस्था किस प्रकार उदासीन रही। 1990 के एक टीवी साक्षात्कार में 20 निरपराध हिन्दुओं को मौत के घाट उतारने का दंभ भरने वाला जिहादी फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे को 16 वर्ष बाद साक्ष्यों के आभाव में टाडा अदालत से अनिश्चितकालीन जमानत मिल गई थी। इसके बाद वह घाटी में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट तले राजनीतिज्ञ बन गया। उस समय अदालत के तत्कालीन न्यायाधीश एन.डी.वानी ने जो कुछ कहा था, वह कश्मीरी हिन्दुओं को न्याय दिलाने में व्यवस्था की निष्क्रियता को उजागर करता है। वानी के अनुसार, “अदालत इस तथ्य से अवगत है कि अभियुक्तों के विरुद्ध आरोप गंभीर प्रकृति के हैं और इसमें सजा फांसी या आजीवन कारावास है। किंतु अभियोजन पक्ष ने बहस करने में पूरी तरह से उदासीनता दिखाई।”
सच तो यह है कि मोदी सरकार द्वारा धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण और कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास का मार्ग प्रशस्त करने के प्रयासों के अतिरिक्त विगत 33 वर्षों में शासन, अदालतों और स्वघोषित मानवाधिकार संगठनों ने कश्मीर के मूल निवासी- हिन्दुओं / पंडितों को वांछित न्याय दिलाने हेतु कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है। इस दिशा में फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ भारतीय जनमानस को यह समझाने में काफी हद तक सफल हुई है कि कश्मीरी हिन्दुओं को घाटी में पुन: बसाने हेतु कश्मीर के ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन से जनित घृणित मानसिकता और मजहबी ‘इको-सिस्टम’ से मुक्त होना कितना आवश्यक है।