धोखे की शिकार रानी ने आत्मबलिदान को प्राथमिकता दी

धोखे की शिकार रानी ने आत्मबलिदान को प्राथमिकता दी

24 जून,1564
रानी दुर्गावती का बलिदान

रमेश शर्मा

धोखे की शिकार रानी ने आत्मबलिदान को प्राथमिकता दीधोखे की शिकार रानी ने आत्मबलिदान को प्राथमिकता दी

गोंडवाना की रानी ने मुगल बादशाह अकबर और मालवा के सुल्तान बाज बहादुर के कुल पाँच आक्रमण झेले। प्रत्येक आक्रमण का वीरता से सामना किया और विजयी रहीं। अंततः वे जबलपुर के नरई नाले पर मुगल सेनापति आसफ खाँ की कुटिल रणनीति का शिकार बनीं। आसफखाँ ने अधीनता स्वीकार करने का दबाव डाला। रानी ने स्वाभिमान से समझौता करने की बजाय आत्मबलिदान को प्राथमिकता दी।

रानी दुर्गावती कालिंजर के चंदेल राजा कीर्तिवर्धन की पुत्री थीं। कालिंजर उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। यह राज्य और यह किला भारत के इतिहास के पन्नों में हर युग की घटनाओं से जुड़ा है। यदि पौराणिक काल में विविध नामों से कालिंजर का उल्लेख मिलता है तो मौर्य काल और गुप्तकाल में भी इसका उल्लेख है। यह कालिंजर का आकर्षण ही है कि लगभग प्रत्येक आक्रांता ने हमला बोला। महमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, बाबर और शेरशाह सूरी ने भी कालिंजर पर हमला बोला था। आक्रांताओं ने कालिंजर क्षेत्र में हत्याएँ और लूटपाट तो बहुत कीं लेकिन किला अजेय रहा।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को इसी कालिंजर किले में हुआ। वे कालिंजर के राजा कीर्तिवर्धन की पुत्री थीं। राजा कीर्तिवर्धन का बचपन में नाम पृथ्वी देव सिंह था। बाद में वे कीर्तिवर्धन के नाम से गद्दी पर बैठे। इसलिए इतिहास की पुस्तकों में ये दोनों नाम मिलते हैं। जिस तिथि को उनका जन्म हुआ वह दुर्गाष्टमी थी। इसलिए उनका नाम दुर्गावती रखा गया। राजा कीर्तिवर्धन ने एक से अधिक विवाह किये थे। परिवार में और भी बेटियाँ थीं। दुर्गावती अपनी माता की इकलौती संतान थीं। इसलिये उनका लालन पालन बहुत लाड़ के साथ हुआ। वे बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि, ऊर्जावान और साहसी थीं। कालिंजर पर बार बार आक्रमणों के चलते न केवल सभी राजकुमारियों और राज परिवार की महिलाओं को आत्मरक्षा के लिये शस्त्र संचालन सिखाया जाता था अपितु महिला सुरक्षा टोली भी हुआ करती थी। इसलिये दुर्गावती को शास्त्र और शस्त्र विद्या की शिक्षा भी बचपन से ही दी गयी। वन विचरण व सखियों के साथ आखेट भी वे निर्भय होकर करती थीं। बचपन से उनके साथ वीरांगनाओं की एक टोली थी। कालिंजर पर निरंतर हो रहे हमलों के चलते ही वहां के नागरिकों में भी युद्ध कला के प्रशिक्षण का चलन हो गया था। इसी संघर्षमय वातावरण में दुर्गावती बड़ी हुईं। वे हाथी पर बैठकर तीर कमान के युद्ध में भी पारंगत थीं। तीर का निशाना भी अचूक था। वीरांगना दुर्गावती कितनी साहसी थीं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कृपाण से चीते का शिकार कर लेतीं थीं। युद्ध उन्होंने बचपन से देखे थे। उनकी माता ने उन्हें इतिहास और पूर्वजों की वीरोचित परंपरा की कहानियाँ सुनाकर बड़ा किया था। 1544 में उनका विवाह गढ़ मंडला के शासक राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े पुत्र दलपत शाह से हुआ। गढ़ मंडला के शासक गोंड माने जाते थे और कालिंजर के चंदेल राजा सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। यदि सूर्यवंशी राजा अपनी पुत्री का विवाह गोंडवाना में करते हैं तो इससे संकेत है कि भारत में नगरवासी और वनवासी का कोई भेद न था।

विवाह के एक वर्ष पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। लेकिन रानी दुर्गावती का दाम्पत्य जीवन अधिक न चल सका। 1550 में राजा दौलत शाह की मृत्यु हो गई। तब राज्य के उत्तराधिकारी युवराज वीर नारायण की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। तब रानी दुर्गावती ने अपने अल्पवयस्क बेटे वीर नारायण को गद्दी पर बिठाकर राजकाज चलाना आरंभ किया। रानी ने अपनी नौ सदस्यीय मंत्री परिषद का गठन किया। इसमें कोष, सेना, अंतरिम व्यवस्था, शाँति सुरक्षा आदि के प्रमुख बनाये। इस परिषद के प्रमुख को दीवान पद दिया। इसके साथ रानी दुर्गावती ने अपने पूरे राज्य में कृषि और वनोपज के व्यापार को बढ़ावा दिया। राज्य की आय बढ़ी और निर्माण कार्य आरंभ किये। उन्होंने अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ से चौरागढ़ स्थानांतरित की। चौरागढ़ सुरम्य सतपुड़ा पर्वतीय श्रृंखला पर किला है। सामरिक दृष्टि से यह किला महत्वपूर्ण था। तब गोंडवाना साम्राज्य मंडला, नागपुर से लेकर नर्मदा पट्टी तक फैला था। गोंडवाना राज्य के अंतर्गत कुल 28 किले आते थे। राज्य निरंतर प्रगति की ओर बढ़ रहा था। रानी दुर्गावती प्रजा वत्सल वीरांगना थीं। जबलपुर के आधारताल, चेरीताल और रानीताल का निर्माण कार्य उन्हीं के कार्यकाल में हुआ। उन पर माँडू के सुल्तान बाज बहादुर ने तीन बार आक्रमण किया और तीनों बार पराजित होकर वापस लौटा। तीसरी बार तो उसे भारी नुकसान हुआ। बहुत मुश्किल से प्राण बचाकर भागा। रानी वीरांगना थीं। वे प्रत्यक्ष युद्ध में हिस्सा लेतीं थीं। उनके नेतृत्व में हुए इस युद्ध में गौंडवाना सेना ने बाज बहादुर की अधिकांश सैन्य सामग्री छीन ली थी।

गोंडवाना राज्य की बढ़ती समृद्धि और ख्याति ही उस पर आक्रमण का कारण बनी। यदि मालवा के सुल्तानों से कुछ राहत मिली तो मुगल सेना ने भारी सेना और तोपखाने से आक्रमण बोला। मुगल बादशाह अकबर के सेनापति आसफ खाँ ने एक बड़ी सेना के साथ धावा बोला। उसने पहले इलाहाबाद में अपना कैंप लगाकर आसपास लूट की और लोगों को अधीन बनाया फिर रीवा राज्य को भी समर्पण करने पर विवश किया। समर्पण का संदेश रानी को भी भेजा गया। रानी ने इंकार कर दिया। मुगल सेना ने जोरदार आक्रमण किया। लेकिन पराजित हुई। पराजित आसफ खां इलाहाबाद पहुँचा। उसने अतिरिक्त तोपखाना मंगाया, अतिरिक्त सेना भी बुलाई और दोबारा हमला बोला। पिछले चार आक्रमणों में रानी की विजय तो हुई थी, लेकिन लगातार हमलों से शक्ति बहुत क्षीण हो गई थी। फिर भी रानी ने साहस किया और पूरी शक्ति से आक्रमण का सामना किया और छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई।

किन्तु आसफ खाँ ने इस बार युद्ध के साथ ही कुटिलता भी अपनाई और रानी को स्थाई शांति समझौते का संदेश भेजकर नाले पर आमंत्रित किया। रानी सतर्क तो थीं पर उन्होंने समझौता वार्ता के लिये नाले तक जाना स्वीकार कर लिया। यह नाला गौर और नर्मदा नदी के बीच में था। आसफ खाँ ने अपनी रणनीति के अंतर्गत रानी को नर्मदा के इस पार आने दिया। घाट पर उनके स्वागत की व्यवस्था भी थी। मुगल सेना के तीरंदाज पेड़ों पर छुपे बैठे थे। वे अपने अंगरक्षकों की टोली के साथ आगे बढ़ीं तभी तीरों से हमला हो गया। कुछ अंगरक्षक घायल हुए, एक तीर रानी को भी लगा। वे भी घायल हो गईं। बेटा वीर नारायण भी उनके साथ था। रानी ने समर्पण करने की बजाय युद्ध करना बेहतर समझा। मुगल सेना उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी। इसलिये उन पर तीरों से हमला किया जा रहा था। जबकि अंगरक्षकों पर तोपखाना भी आग उगल रहा था। फिर भी रानी ने हार नहीं मानी। तभी एक तीर उनके कान के पास और एक गर्दन में लगा। वे बेहोश होने लगीं। महावत ने उन्हें कहीं छिपकर निकलने की सलाह दी। पर रानी को शत्रु की रणनीति का अनुमान हो गया था। वहाँ से सुरक्षित निकलना सरल न था। उनके पास पुनः समर्पण का संदेश आया। पर उन्होंने पराधीन जीवन से बेहतर स्वाभिमान से मर जाना समझा और कटार निकालकर स्वयं पर वार कर लिया। यह 24 जून, 1564 का दिन था। उनका बलिदान नरई नाले पर ही हुआ। इस बलिदान के बाद मुगल सेना ने राज्य में घुस कर जो लूटपाट, हत्याएं और महिलाओं के साथ अत्याचार किए, वे सब इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

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