धोरों से हिलोरों तक (नर्मदा यात्रा-4)
दयाराम महरिया
आज (27 फरवरी, 2021) पूर्व निर्धारित कार्यक्रम अनुसार मेरी नर्मदा यात्रा का चतुर्थ एवं अंतिम दिवस है। राष्ट्र ऋषि आदरणीय गोविंदाचार्य जी को पूर्व में कई बार देखा-सुना। परंतु उनके दर्शन लाभ का सौभाग्य नर्मदा दर्शन यात्रा एवं अध्ययन प्रवास में उनके पीछे चलने पर ही मिला। देखने के साथ जब हृदय भाव जुड़ जाते हैं तो वह देखना, दर्शन में बदल जाता है। प्रातः काल नयनाभिराम ‘नज़र निहाल आश्रम’ में ‘गोविंद दर्शन’ कर नज़र निहाल हो गई। आश्रम के आम्रकुंज में गाती कोयल मानो प्रकृति-नाद का अनुनाद-अनुवाद कर रही है। आश्रम में श्रमपूर्वक शालिग्राम-शिवलिंग (धार्मिक व्याख्या में दोनों अलग-अलग हैं) संकलित हैं। कारीगर छेनी- हथौड़े की मार से अनगढ़ पत्थर को गढ़कर मूर्ति बना देता है तो वह पूजा जाता है। मैया नर्मदा की गोदी में खेलते- खेलते पत्थर पूजनीय शालिग्राम-शिवलिंग बन जाते हैं। कारीगर मार से तो नदी प्यार से पत्थर को पूजनीय बनाती है। कठोर और कोमल ह्रदय में यही अंतर है।
वहां की प्राकृतिक छटा- दर्शन कर मुझे अटल बिहारी वाजपेयी की कविता की निम्न पंक्तियां याद आईं –
यह चंदन की भूमि है, अभिनंदन की भूमि है
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है
इसका कंकर-कंकर शंकर है
इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है
हम जिएंगे तो इसके लिए
मरेंगे तो इसके लिए।
आदरणीय गोविंदाचार्य जी से लगभग बीस मिनट व्यक्तिगत वार्तालाप किया। मैंने उनसे निवेदन किया कि हमारे क्षेत्र में एक जाने-माने महात्मा पूजनीय श्रद्धानाथ जी हुए हैं। श्रद्धानाथ जी जन्मजात ही नहीं बल्कि पूर्वजन्म में भी महात्मा थे। वे शेखावाटी के गांवों में भ्रमण कर सदुपदेश देते थे। वस्तुतः वे आचरण उपदेशक थे। भ्रमण करते हुए उन्हें कई वर्ष हो गए तो उनको एक पंडित जी ने कहा महाराज आपके दर्शन करने आने वाले शिष्यों को सुविधा हो जाए, अतः आप एक आश्रम स्थापित कर लो। पूज्य श्रद्धानाथ जी ने पंडित जी को कहा- घर छोड़ने के बाद घर कैसा? वर्षों बाद उन्होंने लक्ष्मणगढ़ (सीकर) में आश्रम बना लिया। वे पंडित जी श्रद्धा नाथ जी के आश्रम में गए। उन्होंने व्यंग्य में कहा – महाराज घर कर लिया क्या? आज पूज्य श्रद्धानाथ जी का पार्थिव शरीर इस लोक में नहीं है परन्तु वह आश्रम उनका पुण्य पावन स्मृति स्थल है। मैंने आदरणीय गोविंदाचार्य जी से सविनय निवेदन किया कि आप ‘जीवंत विश्वकोश ‘हैं। आपके विचारों का लाभ वैश्विक स्तर पर स्थाई मिल सके इसके लिए एक संस्थान( विश्वविद्यालय ) आपको स्थापित करना चाहिए। वे मौन रहे। मैंने उसे ‘मौनम् स्वीकृति लक्षणम्’ माना। तत्पश्चात आदरणीय गोविंदाचार्य जी व उनके ‘हनुमान’ प्रिय श्री सुरेन्द्रसिंह जी बिष्ट से ‘हिलोरों से धोरों की ओर’ की स्वीकृति ली।
सहयात्रियों से मिलकर आश्रम से आठ किलोमीटर दूर ओंकारेश्वर (ममलेश्वर) के लिए प्रस्थान किया। ओंकारेश्वर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिंदू पुराणों के अनुसार जहां- जहां शिव जी प्रकट हुए उन बारह स्थानों के शिवलिंग ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजे जाते हैं। वे बारह ज्योतिर्लिंग ज्योतिष की बारह राशियों से संबंधित हैं। प्रत्येक ज्योतिर्लिंग से संबंधित एक राशि है। ओंकारेश्वर से संबंधित राशि कर्क है। ओंकारेश्वर नर्मदा नदी के तट पर मांधाता व शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है। वह द्वीप हिंदू पवित्र चिन्ह ‘ऊँ’ के आकार में बना है। ओंकारेश्वर का निर्माण नर्मदा नदी के सोते से हुआ है। वहां पंचामृत (गंगाजल, दूध, दही, शहद व घी) से अभिषेक किया जाता है। बारह ज्योतिर्लिंगों में उत्तर में सबसे ऊपर केदारनाथ तथा दक्षिण में समुद्र के किनारे रामेश्वरम् है। प्रत्येक ज्योतिर्लिंग के अभिषेक का भी विधान निर्धारित है कि ज्योतिर्लिंग विशेष का अभिषेक किससे किया जाएगा। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ओंकारेश्वर का अभिषेक पंचामृत में भी नर्मदा नदी का नहीं बल्कि गंगा नदी के जल का विधान है। अन्य ज्योतिर्लिंगों के अभिषेक में भी जहां जल का विधान है वहां गंगा नदी का ही जल काम में लिया जाता है। भारत के इस प्राचीन धर्म-विज्ञान के गूढ़ रहस्य को समझने की आवश्यकता है। ओंकारेश्वर की उस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर मान्यता है।नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर ओंकारेश्वर तो दक्षिणी तट पर ममलेश्वर है। ममलेश्वर-ओंकारेश्वर को एक पुल से जोड़ा गया है। नर्मदा की परिक्रमा करने वाले तीर्थयात्री एक तट से दूसरे तट पर नर्मदा को लांघ कर नहीं जाते। ओंकारेश्वर तट पर बनी जाट धर्मशाला के अध्यक्ष श्री बाबूलाल जी ने बताया कि सरकार ओंकारेश्वर के निकट सौन्दर्यीकरण के लिए सार्वजनिक व व्यक्तिगत भवनों को अधिग्रहण करने की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुकी है।
क्रमश: