नेपाल में उठने लगी है हिन्दू राष्ट्र की मांग
प्रमोद भार्गव
नेपाल में उठने लगी है हिन्दू राष्ट्र की मांग
नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के भारत आगमन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट के बाद नेपाल में देश को हिन्दू राष्ट्र बनाये जाने की मांग जोर पकड़ रही है। इस मांग में नेपाल के मुस्लिम भी शामिल हैं। दोनों हिन्दू देशों के लिए यह एक सुखद संदेश है। इस दोस्ताना शिखर-वार्ता से तय हुआ है कि नेपाल चीन के विस्तारवादी शिकंजे से मुक्त होने की राह पर चल पड़ा है। नेपाल ने अब भरोसा दिया है कि सीमा विवाद का राजनीतिकरण नहीं होगा और जल्द इस विवाद को द्विपक्षीय बातचीत से सुलझा लिया जाएगा। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के चलते भारत ने नेपाल में 75 विकास परियोजनाएं शुरू करने की घोषणा की है। विशेष रूप से बिजली उत्पादन के क्षेत्र में सहयोग को मजबूती देने के लिए एक दृष्टि-पत्र भी जारी किया जाएगा। भारत के आर्थिक सहयोग से तैयार बिहार के जयनगर और नेपाल के कुर्था तक रेल सेवा का उद्घाटन भी हो गया है। तय है, चीन से प्रभावित वामपंथी धारा के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने दोनों देशों के बीच वैमनस्यता का जो बीजारोपण किया था, उस पर समरसता एवं सद्भाव की यह रेल पानी फेर देगी। याद रहे दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी के संबंध रामायण काल से चले आ रहे हैं। राम की धर्मपत्नी सीता नेपाल के जनकपुर से थीं। भारत के धार्मिक श्रद्धालुओं को यह रेल जनकपुरधाम तक पहुंचना आसान कर देगी। ओली ने सीमा विवाद इतना गहरा दिया था कि भारत के तीन भूखंड लिंपियाधुरा, कालापानी व लिपुलेख को नेपाली मानचित्र एवं संविधान में संशोधन करके नेपाली सीमा में दिखा दिया थी। इससे कटुता बढ़नी स्वाभाविक थी, लेकिन आदिकाल से सुख-दुख में साथ रहे दोनों देशों के बीच यह कटुता अब समाप्त हो जाएगी।
नेपाल में राजशाही की मांग फिर से जोर पकड़ रही है। दरअसल नेपाल की कम्युनिष्ट पार्टी का चीन की गोद में बैठना और भारत विरोधी अभियान चलाना देश की जनता को नागवार गुजर रहा है। राजशाही के साथ हिन्दू राष्ट्र बहाली की मांग भी मुखर हुई है। नेपाल के मुसलमान भी देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के पक्ष में हैं। नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों में शामिल राप्ती मुस्लिम सोसायटी के अध्यक्ष अमजद अली ने कहा है कि इस्लाम को बचाने के लिए यह आवश्यक है। समाज के कुछ नेताओं का मानना है कि हिन्दू राष्ट्र का दर्जा समाप्त होने के बाद से नेपाल में ईसाई मिशनरियां ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। मिशनरी इस स्थिति का फायदा उठाकर लोगों को कन्वर्ट रही हैं। यूसीपीएन माओवादी के मुस्लिम मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष उदबुद्दीन फ्रू भी मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार करते हैं। राष्ट्रवादी मुस्लिम मोर्चा के अध्यक्ष बाबू खान पठान ने हिमालयन टाइम्स को बताया कि मुसलमान देश की धर्मनिरपेक्षता पहचान नहीं चाहते हैं। 80 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या देश की हिन्दू पहचान बहाल करने के पक्ष में है।
उल्लेखनीय है कि राजशाही समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और कई हिन्दूवादी संगठन काफी समय से नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र का दर्जा देने के लिए अभियान चला रहे हैं। पिछले महीने राजनीतिक दलों के बीच नए संविधान में देश की धर्मनिरपेक्ष पहचान समाप्त करने को लेकर सहमति बनी थी। इसके बाद से यह मांग और तेज हो गई है।
हिमालय की गोद में बसा नेपाल एक छोटा और सुंदर देश है। पूरी दुनिया में नेपाल ही एकमात्र ऐसा देश है, जिसे आज तक कोई दूसरा देश परतंत्र नहीं बना पाया। इसलिए यहां स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाया जाता। किंतु चीन के लगातार बढ़ रहे हस्तक्षेप के चलते लोगों को लगने लगा कि कहीं यह हिन्दू धर्मावलंबी देश अपनी मौलिक संस्कृति व स्वतंत्रता न खो दे। नेपाल एक दक्षिण एशियाई देश है। नेपाल के उत्तर में तिब्बत है। जिसे चीन निगलता जा रहा है। दक्षिण पूर्व व पश्चिम में भारत की सीमा लगती है। नेपाल की 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दू है,,इसलिए वह प्रतिशत के आधार पर सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलंबी देश है। नेपाल में लंबे समय तक राजशाही रही है। किंतु राजशाही के खूनी दुखद अंत के बाद यहां माओवादी नेता प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने से सामंतशाही सिमटती चली गई और 18 मई 2006 को राजा के अधिकारों में कटौती कर नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर माओवादी लोकतंत्र की शुरूआत हो गई। तभी से चीनी हस्तक्षेप के चलते यहां के मूल स्वरूप को बदलने के अलावा भारत के साथ संबंध खराब होने की शुरूआत भी हो गई थी। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने चीन के दबाव में न केवल भारत से शत्रुतापूर्ण संबंधों की बुनियाद रखी, बल्कि चीनी सेना को खुली छूट देकर अपनी जमीन भी खोनी शुरू कर दी। जाहिर है, नेपाल में लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना तो हो गई, लेकिन लचर नेतृत्व के चलते यह देश अपना अस्तित्व खोने की कगार पर आ खड़ा हुआ था।
हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल और भूटान ऐसे देश हैं, जिनके साथ हमारे संबंध विश्वास और स्थिरता के रहे हैं। यही कारण है कि भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुई सुलह, शांति और मित्रता की संधि आज भी कायम है। नेपाल और भूटान से जुड़ी 1850 किमी लंबी सीमा रेखा बिना किसी मजबूत पहरेदारी के खुली है। बावजूद चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह कोई विवाद नहीं है। बिना पारपत्र के आवाजाही निरंतर है। लगभग 60 लाख नेपाली भारत में काम करके रोजी-रोटी कमा रहे हैं। 3000 नेपाली छात्रों को भारत हर साल छात्रवृत्ति देता है। नेपाल के विदेशी निवेश में भी अब तक का सबसे बड़ा 47 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ता चला गया। हालांकि नरेंद्र मोदी ने अगस्त 2014 में नेपाल की यात्रा करके बिगड़ते संबंधों को आत्मीय बनाने की सार्थक पहल की थी, किंतु भारतीय मूल के मधेशियों के आंदोलन ने इस पर पानी फेर दिया था।
अब नेपाल और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों के अंतर्गत ऐतिहासिक पारगमन व्यापार समझौते समेत 10 समझौतों की शुरूआत करके नेपाल ने चीन से रिश्ते मजबूत कर लिए थे, उनमें अब दरार आना शुरू हो गई है। चीन ने नेपाल को सस्ते ऋण के माध्यम से अपनी गिरफ्त में लेने के प्रयास किए थे। दोनों के बीच तिब्बत के रास्ते रेलमार्ग बनाने पर संधि हुई है। चीन ने काठमांडू से लगभग 200 किमी दूर पोखरा में क्षेत्रीय हवाई अड्डा निर्माण के लिए नेपाल को 21000 डॉलर का सस्ती ब्याज दर पर ऋण दिया है। मुक्त व्यापार समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए हैं। नेपाल में तेल और गैस की खोज करने पर भी चीन सहमत हुआ है। इसके लिए वह नेपाल को आर्थिक और तकनीकी सहायता देने को तैयार हो गया है। चीन ने नेपाल में अपने व्यावसायिक बैंक की शाखाएं भी खोल दी हैं। नेपाली बैंक भी अपनी शाखाएं चीन में खोल रहे हैं। संस्कृति, शिक्षा और पर्यटन जैसे मुद्दों पर भी चीन का दखल नेपाल में बढ़ गया है।
लम्बे समय से इन्हीं कुटिल कूटनीतिक चालों के चलते कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक चीन ने माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में लिया और नेपाल के हिन्दू राष्ट्र होने के संवैधानिक प्रावधान को समाप्त करके प्रचंड को प्रधानमंत्री बनवा दिया था। चीन नेपाल की पाठशालाओं में चीनी अध्यापकों से चीनी भाषा मंदारिन की मुफ्त में शिक्षा नेपाली नागरिकों को दिलवा रहा है। इन पाठशालाओं की संख्या 19 से बढ़कर अब 50 हो गई है। चीन इस बहाने नेपाल में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक संबंधों का नया इतिहास गढ़ने में लगा था। किन्तु देउबा ने चीन की इन करतूतों पर पानी फेरना शुरू कर दिया है।
भारत के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी चीन के लोकतांत्रिक मुखौटे में छिपी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को नहीं समझा। परिणामस्वरूप चीन की हड़प नीतियों के विरुद्ध न तो वह कभी दृढ़ता से खड़ा हो पाया और न ही कड़ा रुख अपनाकर विश्व मंच पर अपना विरोध दर्ज करा पाया। उल्टे हमारे प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी ने तिब्बत को चीन का अविभाजित हिस्सा मानने की उदारता ही जताई। इसी खूली छूट के चलते ही बड़ी संख्या में तिब्बत में चीनी सैनिकों की घुसपैठ शुरू हो गई। इन सैनिकों ने वहां की सांस्कृतिक पहचान, भाषाई तेवर और धार्मिक संस्कारों में पर्याप्त दखलंदाजी कर दुनिया की छत को कब्जा लिया। अब तो चीन तिब्बती मानव नस्ल को ही बदलने में लगा है। दुनिया के मानवाधिकारी वैश्विक मंच कह भी रहे हैं कि तिब्बत विश्व का ऐसा अंतिम उपनिवेश है, जिसे हड़पने के बाद वहां की सांस्कृतिक अस्मिता को एक दिन चीनी अजगर पूरी तरह निगल जाएगा। ताइवान का यही हश्र चीन पहले ही कर चुका है। चीन ने दखल देकर पहले इसकी सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट-भ्रष्ट किया और फिर ताइवान का बाकायदा अधिपति बन बैठा। हांगकांग और नेपाल में भी चीन इसी रणनीति को अपनाकर इन्हें अपने विस्तारवादी खूनी शिकंजे में कस रहा है। इसलिए देश की जागरूक जनता अब नेपाल की राजशाही की वापसी के साथ-साथ इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग कर रही है।