परिवार का आर्थिक सम्बल बनती ग्रामीण महिलाएं

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी- मैथिली शरण गुप्त की कविता की इन पंक्तियों को आज की महिलाओं ने अप्रासंगिक बना दिया है। वे घर संभालने के साथ साथ सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता के परचम लहरा रही हैं। इसमें ग्रामीण महिलाएं भी पीछे नहीं। वे सीमित संसाधनों और कम शिक्षा के बावजूद संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए परिवार की आजीविका को सशक्त बना रही हैं और गॉंवों में स्वरोजगार का अलख जगा रही हैं। इन्होंने पापड़, मंगोड़ी, अचार, मुरब्बे, दरी व कालीन बनाने जैसी कलाओं एवं बागवानी, गौ पालन, बकरी पालन व मधुमक्खी पालन जैसे व्यवसायों को नए आयाम दिए हैं। आज पापड़ के लिज्जत ब्रांड को तो कौन नहीं जानता।

बात मार्च 1959 की है जब जसवंती बेन ने परिवार की आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से छ: – सात घरेलू महिलाओं के साथ मिलकर सौ रुपए की पूंजी से इसे शुरू किया था। आज लिज्जत पापड़ का वार्षिक टर्न ओवर दो सौ करोड़ रुपए है और चालीस हजार से अधिक महिलाएं इसका हिस्सा हैं। इसी तरह सीकर के गॉंव बेरी की रहने वाली संतोष चौधरी ने अपने परिवार को आर्थिक तंगी से उबारने के लिए बागवानी के क्षेत्र में कदम रखा। उन्होंने कृषि उद्यान विभाग की मदद से अनार का बगीचा लगाया। अपने इस्तेमाल के लिए उन्होंने जैविक खाद व जैविक कीटनाशक अपने खेत में ही बनाने आरंभ किए। अनार के फलों से उन्हें सालाना 3.5 लाख की आय होती है और अनार के पौधे तैयार कर वे 6.5 लाख रुपए वार्षिक कमाती हैं।

आसाम की डालिमा चौधरी विभिन्न प्रकार के अचार, मुरब्बे, जैम, जेली इत्यादि का उत्पादन कर परिवार को आर्थिक मजबूती दे रही हैं। साथ ही वे गॉंव की अन्य महिलाओं को इसका प्रशिक्षण भी दे रही हैं।
कहते हैं कोशिशें यदि ईमानदार हों तो सफलता मिलती ही है। इसके लिए किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती, बस हौंसले मजबूत होने चाहिए। यह बात चरितार्थ होती है सीमा देवी पर। वे झारखंड के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक पश्चिमी सिंहभूम के मनोहरपुर प्रखंड के उनधन गॉंव की रहने वाली हैं। पति की दुर्घटना में असामयिक मृत्यु ने उन्हें हिलाकर रख दिया। घर में कमाई का कोई साधन नहीं था। ऐसे में उन्होंने स्वयं सहायता समूह से जुड़कर व कर्ज लेकर अपना कारोबार शुरू किया। आज कारोबार संभालने के साथ ही वे बेटी को उच्च शिक्षा दिला रही हैं। ग्रामीण इलाकों में स्वयं सहायता समूह ऐसी महिलाओं के लिए वरदान हैं। बिना जमा पूंजी जहां व्यक्ति को बैंक से कर्ज लेना मुश्किल होता है वहीं बैंक समूह को उसकी साख के अनुसार एक अच्छी क्रेडिट लिमिट दे देते हैं। जिसका फायदा समूह के सदस्यों को मिलता है।

महिलाएं भी एकता की इस ताकत को अब समझने लगी हैं। वे संगठित होकर काम कर रही हैं। हाल ही में पश्चिमी सिंहभूम के फुलवारी गॉंव में फुलवारी ग्राम संगठन की महिलाओं ने विकास का एक अनुकरणीय अध्याय लिखा। इस गॉंव तक पहुंचने के लिए कोई कच्ची सड़क तक नहीं थी, जिससे बारिश, बीमारी आदि में गॉंव से बाहर जाना मुश्किल काम होता था। समूह की महिलाओं ने रोज दो घंटे श्रमदान करके 6 महीने में एक कच्ची सड़क बना दी। झारखंड के ही खूंटपानी प्रखंड में महिलाओं के ही एक स्वयं सहायता समूह ने अपने प्रयासों से लगभग तीस वर्षों से बंद पड़ी हाट को वापस शुरू करवाया है। आज वहॉं सौ से अधिक दुकानें सजती हैं जिससे गॉंव की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। आज ग्रामीण महिलाएं परिवार को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के साथ साथ गॉंव में नशाबंदी, शौचालय बनवाने, पशु सखी के रूप में पशु पालने एवं उससे जुड़ी परेशानियां दूर करने, उन्नत खेती के गुर सिखाने तक में अपना योगदान दे रही हैं।

स्वरोजगार से जहॉं महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ा है वहीं स्वयं सहायता समूहों से जुड़ने से उन्हें साहूकार के चंगुल से मुक्ति मिली है। वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हुई हैं। नाबार्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश भर में लगभग 75 लाख स्वयं सहायता समूह विभिन्न बैंकों से जुड़े हुए हैं। इनमें से लगभग 48 लाख को बैंकों से सीधे ऋण की सुविधा उपलब्ध है। इनमें से करीब 82 प्रतिशत समूह महिलाओं के हैं।

इस तरह घूंघट में छिपे ये चेहरे मां, बेटी, बहन, बहू और पत्नी आदि विभिन्न भूमिकाओं में हमारी सांस्कृतिक धरोहर को समेटे भारत की प्रगति की अनोखी दास्तान लिख रहे हैं और अपने सहयोग से न जाने कितनी जिंदगियों की राह आसान बना रहे हैं।

  • डॉ. शुचि चौहान
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