परीक्षाओं की राजनीति, युवाओं के साथ धोखा
कौशल अरोड़ा
नई शिक्षानीति में संस्कारों पर बल देने के नवाचार के लिये सुझाव हैं। जिन्हें लागू करना राज्य की व्यवस्था का हिस्सा है। शिक्षाविद, शैक्षणिक संस्थायें और सलाहकार इसे लागू करें, यह राज्य की जिम्मेदारी है। जबकि सस्ती राजनीति की पराकाष्ठा है कि राज्यों में परीक्षाओं की राजनीति की जा रही है। अपने चुनावी वायदों को लागू करने में भारतीय राजनीति किस हद तक प्रदर्शन करने को मजबूर हो गई है, इसका ताजा उदाहरण, आईआईटी, मेडिकल कॉलेजों, प्रशासनिक परीक्षाओं आदि में प्रवेश के लिए आयोजित परीक्षाओं का विरोध देखने को मिल रहा है।
युवाओं के भविष्य से अपने राजनीतिक हित साधने के प्रयास वे तथाकथित राजनीतिक दल कर रहे हैं जो शक्तिविहीन होने की लड़ाई जनता से लड़ रहे हैं। आज का विरोध इन परीक्षाओं को आगे खिसकाने के लिए धरना-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रह गया बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया है। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इन परीक्षाओं को कराने के अपने आदेश के विरुद्ध दायर पुनर्विचार याचिकाओं को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने याचिका स्वीकार किये बिना ही ऐसी याचिकाओं को एक बेंच में लेकर उन्हें एक आदेश से खारिज कर दिया। यही भारतीय इतिहास में शिक्षा के लिये अच्छे दिनों को अच्छा नहीं करने वालों के मुख को हमेशा के लिये बन्द करने का अवसर मात्र है। और अच्छा होता कि याचिकाकर्ता पर निजी जुर्माना भी लगाया जाता और न्यायालय इनसे लिखित में इस तरह के कार्य में अवरोधक नहीं बनने का वचन भी लेता। हैरान परेशान करने वाली बात यह है कि ये याचिकाएं जिन व्यक्तियों द्वारा एकल या समूह में दायर की गई हैं, उनमें कुछ राज्यों के शिक्षामंत्री भी रहे हैं। ऐसा गैर जिम्मेदाराना क़दम उन व्यक्तियों द्वारा उठाया जा रहा है जो शिक्षा में रोजगार की दुहाई देते हैं। जो शिक्षा को रोजगारोन्मुख या शिक्षा को पेशेवर बनाने की हामी भरते हैं। सबसे बड़ी विडम्बना भी यही है कि राज्य का शिक्षामंत्री ही राष्ट्रीय महत्व की परीक्षाओं के विरुद्ध हो।
परीक्षा के विरोध में बिना ठोस कारण के परीक्षार्थी अहित, पाठ्यक्रम आदि के बिना न्यायालय में जाना दिन-ब-दिन बढ़ने वाले कॉम्पिटिशन को बढ़ावा दे रहा है। प्रतियोगियों के सामने अधिकतम आयु पार हो जाने पर अवसर खोने से निराशा, नकारात्मकता उपजती है ।
राष्ट्रीय आराधना मानी जाने वाली इन परीक्षाओं का विरोध करने वाले राज्यों में बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र सबसे आगे हैं। ये वे राज्य हैं जहाँ गठबंधन की या फिर कांग्रेस की सरकारें हैं। इन राज्यों के शिक्षामंत्रियों को शिक्षा की सामान्य जानकारी होनी चाहिये कि इन परीक्षाओं को और टालना युवाओं को रोजगार से दूर रखने और राष्ट्रीय विकास में बाधक बनने जैसा कदम है। इसके परिणाम, अंततः लाखों छात्रों की मेहनत बेकार जाएगी? यदि नहीं तो फिर उन्होंने क्या सोचकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि वह परीक्षाएं कराने के अपने निर्णय पर फिर से विचार करे?
राजस्थान के शिक्षामंत्री को तो यह भी बताना चाहिए कि आखिर उनके राज्य में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की पूरक परीक्षाएं क्यों हो रही हैं? राज्यों में निजी कोचिंग संस्थान अनुमति से पूर्व क्यों खोल दिये गये? अब छात्रावास और लाइब्रेरी भी खोल दिये हैं। राज्य में प्रतियोगी परीक्षाएँ हो रहीं है। जिनमें लाखों की संख्या में अभ्यार्थी एक जिले से दूसरे जिले में आ-जा रहे हैं। बसों के अन्दर तो अन्दर, छत पर भी यात्रा हो रही है। क्या, राजस्थान कोरोना महामारी से मुक्त हो गया है या फिर ऐसा कुछ है कि मात्र इन राष्ट्रीय पहचान बना चुकी जेईई और नीट की परीक्षाओं में भाग लेने वाले छात्र उनके दल के मतदाता नहीं हैं?
सम्भवतया राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। कई बार तो वह महज संकीर्ण स्वार्थों को पूरा करने के लिए की जाती है तो कई बार यह पद प्रतिष्ठा बचाये रखने के लिये। लेकिन अब ये राजनीति किनके लिये की जा रही है जो कोचिंग सेंटरों से मत बटोरने का पाठ पढ़ा रहे हैं या फिर अयोग्य को योग्य बनाने के लिये परीक्षा में बेधड़क उम्मीदवार बदल कर तकनीक का दुरुपयोग करके चयनित करवा रहे हैं। यह उन सभी के विरुद्ध इन सरकारों की मूक सहमति है जो राजनीति का मोहरा बन चुकी हैं।
ऐसे में देश मे ऐसा आयोग होना चाहिये जो राज्य के कर्मचारी चयन आयोग और स्वतंत्र संस्थओं के क्रियाकलापों पर नज़र रखे, उनके लिये समय-समय पर जारी वार्षिक कलेण्डर, पाठयक्रम पर चलने के लिये वचनबद्ध करे। संस्थाओं को पद अनुसार पाठयक्रम उपलब्ध करवाए। यह भारतीय युवा शक्ति की देश के विकास में लगने वाली ऊर्जा को राजनीति का शिकार होने से बचाने के लिये अनिवार्य है।