पहाड़ों में लगते हैं कुँवारों के मेले, मिलता है जीवनसाथी का वरदान

अनूठी लोक परम्परा / आमलकी ग्यारस मेला / 10 मार्च 2025
डॉ. दीपक आचार्य
पहाड़ों में लगते हैं कुँवारों के मेले, मिलता है जीवनसाथी का वरदान
राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के जनजाति समाज की साँस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं का मनोहारी दिग्दर्शन कराने वाले राजस्थान के दक्षिणांचल (बाँसवाड़ा, डूँगरपुर एवं आस-पास के क्षेत्र) में प्रत्येक दिन एक नया पर्व और आशाओं का संदेश लेकर आता है। यहाँ वर्ष भर कहीं न कहीं पर्व-उत्सवों और मेलों की धूम लोक जीवन के उत्सवी लीला विलास को प्रकट करती है। इसमें अंचल के लोग पूरी श्रद्धा और मस्ती के साथ हिस्सा लेते हैं और जीवन के आनन्द को बहुगुणित कर मौज-मस्ती के साथ जीते हैं।
हर परंपरा है अनूठी
यूं तो भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में उत्सवी वातावरण की प्राचीन रीतियां और लोक परम्पराएं देश के विभिन्न हिस्सों में बदले हुए रूपाकारों के साथ देखी जा सकती हैं, लेकिन राजस्थान के इस दक्षिणांचल में कई ऐसी मनोहारी परम्पराएँ लोक जीवन का अहम् हिस्सा रही हैं, जिनका दिग्दर्शन परम्परागत तरीके से पूरी विलक्षणता के साथ होता है। वागड़ अंचल में होली मौज-मस्ती का विराट फलकों वाला वार्षिक पर्व है, जो समूचे क्षेत्र में दो-चार दिन नहीं बल्कि पखवाड़े भर तक परम्परागत उत्सवी आनन्द के साथ मनाया जाता है। इसकी शुरुआत होली से चार दिन पूर्व आमलकी ग्यारस से होती है। इस दिन वागड़ अंचल में देवालयों में मेले भरते हैं और फागुन के रस-रंगों का दरिया फूट पड़ता है। आमली ग्यारस पर समूचा वनांचल सब कुछ भुलाकर दाम्पत्य रसों और रंगों के आवाहन में रमा रहता है।
आँवले का पेड़ दिलाता है जीवनसाथी
जनजातीय क्षेत्रों में आमली ग्यारस का पर्व कुँवारे युवक-युवतियों के लिए पसन्दीदा जीवनसाथी पाने की इच्छा पूरी करने का वार्षिक पर्व होता है। इस दिन लगने वाले मेलों में कुँवारी जनजातीय युवतियां एवं युवक उल्लास के साथ हिस्सा लेते हैं और श्रीकृष्ण का स्मरण कर आँवला वृक्ष की पूजा तथा परिक्रमा करते हैं। पुराने जमाने से यह मान्यता चली आ रही है कि आमली ग्यारस के दिन लगने वाले मेलों में आँवला वृक्ष की पूजा तथा परिक्रमा करने से अगली आमली ग्यारस से पूर्व मनोवांछित जीवनसाथी अवश्य प्राप्त हो जाता है। इस दिन युवक युवतियां आँवले के पेड़ की पूजा-अर्चना करने के साथ ही इसके चारों ओर दीप श्रृंखलाएं सजाते हैं तथा फल, द्रव्य एवं उपहार आदि लेकर विषम संख्या में परिक्रमाएं करते हैं व हर फेरे के साथ इस वृक्ष के मूल में फल, पैसा, सूखा मेवा आदि चढ़ाते हैं। कनेर के फूल एवं पत्तियां भी अर्पित की जाती हैं। वनांचल के इस पारम्परिक पौराणिक वेलेन्टाईन डे के दिन ये युवा आँवला वृक्ष की टहनियाँ अपने हाथों में रखते हैं और फागुनी मौज-मस्ती में झूमते फागुनी श्रृंगार गीत गाते-थिरकते हुए इन्हें अपने घर ले जाते हैं। इनकी पक्की मान्यता है कि आँवला वृक्ष में बैठे देवता वर्ष भर के भीतर पसन्दीदा जीवनसाथी के साथ उनका विवाह करा ही देते हैं। जीवनसाथी पाने की तीव्र आकांक्षा में रमे हुए युवा फागुनी लोक लहरियाँ गूंजाते हुए मेले का माहौल श्रृंगार रसों से भर देते हैं। तरुणाई की महक बिखेरते ये समूह परस्पर गुड़ तथा इस पर्व के लिए विशेष रूप से बनी मिठाई ‘माज़म’ खिलाकर मुँह मीठा करते हैं। ये कुँवारे वर्ष भर कोई उपवास करें या न करें लेकिन आमली ग्यारस को दिन भर उपवास अवश्य रखते हैं।
शादीशुदा भी आते हैं आभार जताने
इन मेलों में वे लोग भी आते हैं, जिन्होंने बीती आमली ग्यारस को जीवनसाथी पाने की मन्नत मांगी थी और इसके बाद परिणय सूत्र में बँध गए। ये लोग आँवला वृक्ष की पुनः पूजा कर श्रीफल वघेरते हुए भगवान का आभार प्रकट करते हैं। इसके साथ ही भावी जीवन में अक्षुण्ण सुख-सौभाग्य और समृद्धि की कामना करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, आँवला वृक्ष भगवान विष्णु को प्रिय है और इसकी पूजा-परिक्रमा करने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्ति से जीवन में सौभाग्य का उदय होता है। आमली ग्यारस पर बाँसवाड़ा जिले में मोटागांव के समीप घूड़ी रणछोड़ तीर्थ, महाबली भीम के नाम से प्रसिद्ध भीमकुण्ड धाम, मध्यप्रदेश सीमा से सटे कुशलगढ़ क्षेत्र, नाहली के मंगलेश्वर महादेव मन्दिर, डूंगरपुर जिले के जसैला एवं लिखतिया के मन्दिरों, गुजरात सीमा से सटे सीमलवाड़ा क्षेत्र सहित वागड़ अंचल के विभिन्न हिस्सों में मेलों का वातावरण फागुनी रंगों की सौरभमयी वृष्टि करता है।
