विजयी सैन्य शक्ति के प्रतीक ‘पांच प्यारे’ और पांच ‘ककार’
धर्मरक्षक वीरव्रती खालसा पंथ – भाग-10
नरेंद्र सहगल
विजयी सैन्य शक्ति के प्रतीक ‘पांच प्यारे’ और पांच ‘ककार’
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा स्थापित ‘खालसा पंथ’ किसी एक प्रांत, जाति या भाषा का दल अथवा पंथ नहीं था। यह तो संपूर्ण भारत एवं भारतीयता के सुरक्षा कवच के रूप में तैयार की गई खालसा फौज थी। खालसा के प्रथम पांच प्यारे देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, वर्गों एवं भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। जिस तरह आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना करके भारत को एक सूत्र में पिरोया था, इसी तरह दशम पिता ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों से पांच प्यारे चुनकर राष्ट्रीय एकता का नगाड़ा बजा दिया।
उत्तर भारत (लाहौर) से खत्री दयाराम, दक्षिण भारत (बीदर) से नाई साहब चंद, पूर्वी भारत (जगन्नाथपुरी) से कहार हिम्मतराय, पश्चिमी भारत (द्वारका) से धोबी मोहकम चंद, दिल्ली से जाट धर्मदास। इस तरह दशम गुरु ने जाति, क्षेत्र, मजहब के भेदभाव को मिटाकर सभी भारतवासियों अर्थात हिन्दू समाज का सैन्यकरण कर दिया। यह एक ऐसा क्रांतिकारी सफल प्रयास था, जिससे एक भारत, अखंड भारत की भावना का जागरण हुआ। खालसा पंथ भारत की इसी भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतिबिंब है।
खालसा पंथ की सिरजना दशमेश पिता के संगठन-कौशल, बौद्धिक क्षमता, पूरे देश में उनके प्रभाव का विस्तार, उनके शिष्यों की गुरु के प्रति आस्था का दर्शन है। देशभर में इस समागम में पहुंचने के संदेश भेजे होंगे। पैदल चलकर अथवा घोड़ों की सवारी से और वह भी समय पर पहुंचकर अनुशासनबद्ध होकर एक स्थान पर बैठना, ठहरना और भोजन इत्यादि की व्यवस्था से गुरु जी की कार्यक्षमता का पता चलता है। कितनी सोची-समझी योजना थी यह।
जाति, भाषा, क्षेत्र में बंटे हिन्दू समाज को एक स्थान पर एकत्रित करने का असहाय कारज दशमेश पिता ने कर दिखाया। इससे यह भी पता चलता है कि गुरु नानकदेव जी से गुरु तेगबहादुर जी तक सभी गुरुओं ने अपने परिश्रम एवं बलिदानों से सारे भारत में एक ऐसा धरातल तैयार कर दिया था, एक ऐसा ठोस अध्यात्मिक आधार बना दिया था, एक ऐसी बुनियाद रख दी थी..जिस पर खालसा पंथ की सिरजना हुई।
दशम गुरु ने खालसा पंथ (सिक्ख सेना) के निर्माण के बाद अपने इन धर्मरक्षक सेनानियों को एक निश्चित मर्यादा (लक्ष्मण रेखा) की परिधि में रहने का आदेश दिया।
- अमृत-पान करने के पश्चात बनने वाला प्रत्येक सिक्ख अपने नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ेगा। इसी तरह महिलाएं अपने नाम के साथ कौर (शेरनी) जोड़ेंगी। खालसा पंथ में महिला एवं पुरुष एक समान माने जाएंगे।
- संगत एवं पंगत अर्थात एक पंक्ति, एक समूह और समान अधिकार के सिद्धांतों पर सभी सिक्ख एक साथ चलेंगे। सिक्ख पुरुष तथा महिलाएं किसी भी प्रकार का नशा (शराब,तंबाकू आदि) नहीं करेंगे।
- राष्ट्र, समाज तथा धर्म की रक्षा करने के लिए गुरु के सिक्ख सदैव तैयार रहेंगे।
- सभी सिक्ख (स्त्री पुरुष) बाल नहीं कटवाएंगे. अमृतसर का पवित्र हरिमंदिर एवं वहां का सरोवर सिक्खों का तीर्थस्थल होगा।
- पांच सिक्खों के साथ खालसा पंथ पूर्ण माना जाएगा. पांच में परमेश्वर पर आधारित सिद्धांत के अंतर्गत पांचों सिक्ख गुरु के रूप में होंगे और इस ‘पंच परमेश्वर’ को गैर सिक्खों को अमृत-पान करवाकर सिक्ख सजाने का अधिकार होगा। अमृत-पान की इस व्यवस्था को पाहुल (प्रसाद) भी कहा जाता है।
- खालसा पंथ में दीक्षित होने के बाद सिक्खों की जाति एवं वर्ण आदि सब भेदभाव समाप्त हो जाएंगे। सभी मनुष्य परमात्मा की संतान हैं। ‘एक पिता एकस के हम बालक।’
- शस्त्र धारण करना, शस्त्र चलाना एवं युद्ध करना गुरु के सिक्खों का धर्म (कर्तव्य) होगा, जो सिंह युद्ध में लड़ते हुए स्वधर्म के लिए बलिदान होंगे, वे महान सिक्ख कहलाएंगे और अपने बलिदान के लिए ऊंची पदवी के हकदार होंगे।
- प्रत्येक सिक्ख कर्मकांडों से दूर रहकर भारत के पवित्र स्थानों, तीर्थों, वैचारिक आधार और संस्कारों को सम्मान देगा और इनकी रक्षा के लिए तत्पर रहेगा।
- अमृत पान किए हुए सिक्खों के लिए पांच ककारों का धारण करना आवश्यक होगा, यह पांचों ककार इस प्रकार हैं –
प्रथम ककार ‘केश’
भारत की सनातन संस्कृति में जटाओं का विशेष महत्व है। आध्यात्मिक शक्ति के प्रकाश स्तंभ हमारे प्राचीन ऋषि मुनि केश एवं दाढ़ी रखते थे। यह प्रथा आज भी भारतीय संतों में प्रचलित है। खालसा पंथ के संस्थापक दशम गुरु ने इसी सनातन परंपरा का अनुसरण करने का आदेश अपने सिक्खों को दिया है। यह परमपिता परमात्मा को तन-मन समर्पित करने की एक श्रेष्ठ प्रक्रिया है।
द्वितीय ककार ‘कड़ा’
कड़ा रक्षाबंधन का स्थाई संदेश है। स्वधर्म एवं राष्ट्र-समाज की रक्षा करने का एक संकल्प है यह कड़ा। कलाई पर पहना जाने वाला लोहे का यह बंधन गुरु के सिक्खों को यह सदैव स्मरण करवाता रहता है कि वह मर्यादित खालसा के रूप में धर्मरक्षक के नाते सदैव तैयार रहेंगे। इसे ही हमारे प्राचीन शास्त्रों में ‘नित्य सिद्ध शक्ति’ कहा गया है। परम पुरुष के द्वारा रचित कालचक्र का प्रतीक भी है यह कड़ा, जिसका ना कोई आदि है और ना ही अंत। इस प्रकार दशम गुरु ने भारत अथवा हिन्दू की सशस्त्र भुजा खालसा पंथ को अमरत्व प्रदान करके उसे अमर कर दिया।
तृतीय ककार ‘कृपाण’
सनातन हिन्दू संस्कृति अथवा भारतीय जीवन पद्धति ‘शस्त्र और शास्त्र’ के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात् शास्त्रों की रक्षा के लिए शस्त्र और शस्त्रों को मर्यादा में रखने के लिए शास्त्र। सृष्टि के आदि देव शिव ने अधर्म के अस्तित्व को मिटाने के लिए त्रिशूल धारण किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने राक्षसी आतंक को समाप्त करने के लिए धनुष-बाण उठाया था। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने असत्य का अंत करने के लिए सुदर्शन चक्र तक उठा लिया था। इसी वीर परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दशम गुरु ने धर्मरक्षक खालसा पंथ की सिरजना की और प्रत्येक खालसा (सैनिक) को कृपाण धारण करने का आदेश दिया। कृपाण शक्ति की देवी दुर्गा के हाथों में शोभायमान है। गुरु द्वारा रचित ‘चंडी की वार’ में कृपाण की स्तुति की गई है। ‘प्रथम भगौती सिमरिए’ अर्थात सर्वप्रथम भगवती (तलवार) की आराधना कहकर कृपाण को दुष्ट दलन (दुष्टों का नाश) के लिए आवश्यक समझा गया है। भारत में सनातन काल से ही शस्त्र पूजन का विधान चला आ रहा है। वैसे भी एक सैनिक के लिए शस्त्र बहुत आवश्यक होता है।
चतुर्थ ककार ‘कंघा’
कंघा जहां केशों की सफाई के लिए जरूरी है, वहीं पंच तत्वों से निर्मित मानव के शरीर की स्वच्छता का भी दिशानिर्देश है। युद्ध क्षेत्र में लड़ रहे सैनिक का शरीर यदि चुस्त-दुरुस्त नहीं होगा तो वह फुर्ती के साथ शत्रु पर प्रहार नहीं कर सकता। कंघे के द्वारा केशों की सफाई करने से दिमाग भी तरोताजा रहता है। दिमाग की स्वच्छता से ही युद्ध क्षेत्र में सही और तुरंत निर्णय लिया जा सकता है। इस तर्क का एक दूसरा पक्ष भी है। जैसा पहले कहा गया है कि ‘केश’ हमारी आध्यात्मिक ऋषि परंपरा के परिचायक हैं। इस परंपरा को शुद्ध सात्विक और समय के अनुकूल बनाए रखने का भाव भी इस कंघे से प्रकट होता है।
पंचम ककार कछैहरा (कच्छा)
घुटनों तक के लंबे कच्छे को पांचवी मर्यादा (ककार) के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे सैन्य स्फूर्ति, चुस्त वेशभूषा, सुविधाजनक घुड़सवारी और आसान उपलब्धता जैसी व्यवहारिकता दृष्टिगोचर होती है। कछैहरे का भाव दृढ़ मानसिकता से भी है। रणक्षेत्र में मन डावांडोल न हो। सैनिक का ध्यान किसी लालसा अथवा आकर्षण में ना फंस जाए। स्वयं की वृतियों पर नियंत्रण रखना सैनिक के जीवन का आवश्यक भाग होता है, इसी का एक गहरा दिशानिर्देश है यह पांचवा ककार कछैहरा।
अतः यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा दीक्षित किए गए ‘पंज प्यारे’ (प्रारंभिक) और उनकी सैन्य वेशभूषा (पांच ककार) तथा उनका दर्शन शास्त्र ही वर्तमान खालसा पंथ का आधार है। इस आधार अर्थात नींव में भारत की सनातन संस्कृति की स्वर्णिम ईंटें जुड़ी हुई हैं।
………..क्रमश:
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक)