सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने किया पुस्तक “देखो हमरी काशी” का विमोचन
सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने किया पुस्तक “देखो हमरी काशी” का विमोचन
वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ‘देखो हमरी काशी’ का विमोचन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान द्वारा शुक्रवार को काशी के रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर में किया गया।
सरकार्यवाह होसबाले ने कहा कि पुस्तक (देखो हमरी काशी) परिचय में काशी के बनारस नाम से जो प्रस्तावना राम बहादुर राय जी ने की है, वह पुस्तक को समझने के लिए एक चश्मा प्रदान करती है। लेखक पेट भरने के लिए दिल्ली में रहता है, परन्तु दिल भरने के लिए काशी आता है। काशी कब बनारस हुआ, यह मुझे नहीं पता। परन्तु काशी में जब रस आया तो यह बनारस हुआ। इसलिए इस पुस्तक में काशी कम है और बनारस ज्यादा है क्योंकि कहानी लिखते समय ऐसे लोगों का वर्णन है, जिनसे काशी, बनारस बनता है। शिवप्रसाद मिश्र “काशिकेय रुद्र” की रचना “बहती गंगा” का उल्लेख भी आवश्यक है। जिसमें ई.पू. 600 में कैसे यहाँ के पहले राज्य की स्थापना हुई, अंग्रेज कैसे काशी के प्रति आकर्षित हुए, दुनिया ने कैसे काशी की ओर देखना शुरू किया आदि के बारे में बताया गया है।
काशी तुलसी, रैदास, कबीर की है। काशी रामानंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद की है। काशी बिस्मिल्लाह खां, पं. हरी प्रसाद चौरसिया, पं. रविशंकर की है। काशी की परम्परा में ऐसे नामों की लम्बी सूची है। काशी में शिव जी पहले आए, कि गंगा जी पहले आईं, ये विद्वान लोग कह सकते हैं। काशी में शंकर आए और शंकराचार्य बने, बुद्ध को प्रसिद्ध काशी ने किया। विवेकानन्द को धैर्य यहीं से मिला। अपने प्रबुद्ध वर्ग जैसे पंडित, संगीतकार, ज्ञानी के कारण काशी की पहचान बनी। मगर बनारस की पहचान यहाँ की गली-कूचे के, यहाँ के मोहल्ले-बस्ती के, यहाँ के सामान्य लोगों के कारण बनी है। कोई नाई, कोई तेली, कोई मल्लाह, कोई जुलाहा, कोई अहीर, कोई पेपर वाला आदि सामान्यजन ने अपने जीवन के रस से काशी को कैसे बनारस बनाया वो कहानी इस पुस्तक में है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में पुस्तकें लिखी जाती हैं। वाशिंगटन, दिल्ली, मुंबई, कांची, आदि जगहों के बारे में भी पुस्तकें हैं। मगर जिस प्रकार इस शहर की संस्कृति को, जीवन को जिन अनाम लोगों, अनिर्दिष्टा वीरा, अज्ञात वीरा जैसे लोगों ने बनाया है, यह पुस्तक इसी प्रकार के लोगों की कहानी है। ऐसे लोगों ने जीवन के प्रवाह को, जीवन के ताने बाने को बनाए रखने में महती भूमिका निभाई है।
पुस्तक में जिस समाज को अपरिहार्य कहा गया, मैं उसे अविभाज्य कहना उपयुक्त समझता हूँ। क्या समाज केवल राजा, ज्ञानी, पंडितों, कलाकारों, संगीतकारों से ही पहचाना जाता है? बिलकुल, उनके श्रेष्ठ स्थान हैं, यह वर्ग समाज में मार्गदर्शक की भूमिका में हैं, वन्दनीय हैं। परन्तु लेखक ने समाज के ऐसे समूह का भी परिचय कराया है, जिनका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। काशी कहती है कि मैं किस किसमें हूँ? इसका उत्तर इस पुस्तक में उल्लिखित है। संघ के प्रचारक नाना डोबले जी ने अपनी एक रचना में उल्लिखित किया कि समाज सागर के तल में उनसे लोक और लोक संस्कृति का निर्माण हुआ। गुजराती में कहावत है – “सूरत में जमण और काशी में मरण” अर्थात पूरी दुनिया में काशी इसलिए भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहाँ मरना मंगलकारी है। काशी लौकिक और परमार्थ, दोनों का संतुलन रखने वाला अद्भुत शहर है। बेबाकी से सत्य को कहना यह भी काशी के भारतेन्दु और कबीर का ही काम था। एक समाज की संस्कृति के विकास में चिंतन करने वाले, लेख लिखने वाले लोगों के शब्दों पर यदि आपत्ति हो तो समाज को अपने बौद्धिक स्तर को, अपने परिपक्वता स्तर को पाना बाकी है। इसलिए मैं सहन करना शब्द का उपयोग नहीं करता, हमें देखना चाहिए। हर बात पर झगड़े, विवाद, द्वेष यही होते जाएँगे तो कविताएँ बन्द हो जाएंगी। लेखन लिखना मुश्किल हो जाएगा। दूसरों की भावना को सही दिशा, मार्गदर्शन देने वालों के सत्य को स्वीकार करके आगे बढ़ना, यह भी आवश्यक है। उपभोगवाद के कारण, तंत्र ज्ञान के कारण, संचार माध्यम के कारण, जीवन की गति बढ़ने के कारण जिन्दगी व्यापारीकरण की ओर चल रही है। मेरा लाभ, मेरी प्रतिष्ठा, भौतिक सुख की यातना में ही यदि हम रहना चाहेंगे तो सारी सुन्दरता केवल संग्रहालय में ही रह जाएगी। अपने जीवन को, संस्कृति के प्रवाह के निरंतर इस जागृत प्रवाह को बनाए रखना है तो हमें उस पर भी संयम रखना चाहिए। इस पर ध्यान देकर जीवन की सुगंध को बनाए रखने का दायित्व वर्तमान पीढ़ी पर भी है तथा उन्हें मार्गदर्शन देने वाले बड़े लोगों का भी है।