भाग दो – प्रताप की प्रतिज्ञा
अनमोल
जिस समय महाराणा प्रताप ने मेवाड़ का सिंहासन संभाला उस समय परिस्थितियाँ अत्यन्त विषम थीं। अकबर संपूर्ण भारत पर इस्लामिक परचम लहराना चाहता था। उसके कपटीपन व क्रूरता के आगे भारत के कई नरेश झुक गए थे। कई वीर प्रतापी राज्यवंशों के उत्तराधिकारियों ने अपनी कुल मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगलिया वंश से वैवाहिक संबंध तक स्थापित कर लिए थे। कुछ स्वाभिमानी राजघरानों के साथ ही प्रताप ने भी अपने पूर्वजों की मर्यादा की रक्षा का संकल्प लिया और मेवाड़ छोटा होते हुए भी ताकतवर दिल्ली के समक्ष चुनौती बना, इसलिए प्रताप तुर्क अकबर की आंखों में सदैव खटका करते थे।
मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए अकबर ने चार वर्षों में छह बार सन्धि के प्रयास किए। अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अन्य राजाओं की तरह उसके कदमों में झुक जाएं। अनेक प्रयासों के उपरांत भी जब तुर्क अकबर महाराजा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने आमेर के महाराजा भगवानदास के भतीजे कुंवर मानसिंह जिसकी बुआ जोधाबाई अकबर जैसे मलेच्छ से ब्याही गई थी। वह विशाल सेना के साथ डूंगरपुर के शासक को अधीनता स्वीकारने हेतु विवश करते हुए महाराणा प्रताप को समझाने हेतु उदयपुर पहुंचे। मानसिंह ने उन्हें अकबर की अधीनता स्वीकार करने की राय दी, लेकिन प्रताप ने अपनी स्वाधीनता बनाए रखने की बात दृढ़ता से की और मानसिंह के साथ भोजन करना भी उचित नहीं समझा एवं युद्ध में ही सामना करने की घोषणा भी कर दी।
इधर प्रताप ने अनुमान लगा लिया था कि अब मुगल साम्राज्य का मेवाड़ पर आक्रमण निश्चित होगा। उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा ली
कि जब तक मैं अपनी पावन मातृभूमि को मुक्त नहीं करवा लेता तब तक महलों में नहीं रहूंगा, न शैय्या पर सोऊँगा, न ही सोने चाँदी के बर्तनों में भोजन करूँगा। घास ही मेरा बिछौना होगा व पत्ते ही भोजन पात्र होंगे।
प्रताप की प्रतिज्ञा का मेवाड़ की प्रजा ने भी उचित प्रतिसाद दिया। शत्रु की सेना को अन्न जल नहीं मिले इसलिए अपनी खड़ी फ़सल में आग लगा दी। कुओं में कचरा डाल दिया क्योंकि वह भी तो आज़ादी की दीवानी थी।
क्रमश: