इमरजेंसी के भ्रष्ट नौकरशाही तंत्र का चेहरा : कागज़ (फिल्म समीक्षा)
डॉ. अरुण सिंह
- फिल्म : कागज
- कलाकार : पंकज त्रिपाठी, सतीश कौशिक, मोनल गज्जर
- निर्देशक : सतीश कौशिक
सुविज्ञात निर्देशक सतीश कौशिक ने एक फ़िल्म बनाई है अभी – कागज़। यह साधारण और प्रभावोत्पादक फ़िल्म 1975 के आपातकाल के दौरान एक निर्धन किसान के साथ हुए अन्याय की कहानी है। इसे सच्ची घटानाओं से प्रेरित बताया गया है।
भरतलाल एक सामान्य बैंड वादक है। अपने छोटे से इस जीविका के साधन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसे सरकारी ऋण की आवश्यकता पड़ती है, पर सरकारी कागज़ पर तो वह मृत घोषित है।
भारत में स्वतंत्रता के पश्चात अंग्रेज़ी कानून की विरासत को ही पूरे तंत्र में घसीटा गया। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल में जनता के साथ घोर अन्याय ही हुआ। भरतलाल जीते जी मृत घोषित हो गया। हर जगह उत्तर मिलता है : कागज़ बोलता है। न्यायालय तो खुले हैं, पर वहाँ न्याय के अलावा सब कुछ मिलता है। सरकारें बदलती हैं, पर तंत्र नहीं। नौकरशाही व्यवस्था जस की तस रहती है। भरतलाल सब कुछ खो देता है, पर अपना विश्वास और हिम्मत नहीं खो पाता। अशर्फी देवी और जगनपाल दोनों ही नेता भरतलाल को हास्यास्पद बनाकर छोड़ देते हैं। वकील साधोराम को सहानुभूति है। पत्रकार सोनिया भरतलाल के संघर्ष को एक विमर्श प्रदान करती है, जो अंततः उसे स्थापित करता है। उत्तरवर्ती सरकारें तंत्र को सुधारने के लिए बहुत प्रयत्न कर रही हैं, पर इस सुधार के क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व नौकरशाही पर है।
सटीक चित्रण