बाबासाहेब अम्बेडकर और आरएसएस
पंकज जगन्नाथ जयस्वाल
महान नेता और संविधान के निर्माता डॉक्टर बाबासाहेब अम्बेडकर को समझने के लिए एक उचित परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाना चाहिए। कई अवसरों पर लोगों को गुमराह करने के लिए कई मीडिया आउटलेट्स और राजनीतिक दलों ने उन्हें गलत तरीके से उद्धृत किया है। भले ही उनका जीवन बचपन से ही संघर्षमय रहा हो, लेकिन समाज और देश के लिए उनके पास एक स्पष्ट दृष्टि थी। हमें सहृदय स्वीकार करना चाहिए कि एक समय में समाज में काफी सीमा तक असमानताएं थीं, भले ही इसके लिए नकली आर्यन आक्रमण सिद्धांत, मुगलों व अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को जिम्मेदार ठहराया जाए, लेकिन हम इन युक्तियों द्वारा दुर्व्यवहार के शिकार अपने भाइयों और बहनों की जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। इसलिए डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की असमानता के विरुद्ध लड़ाई तर्क सम्मत थी।
सामाजिक असमानता किसी भी राष्ट्र के लिए अभिशाप है। इसने भारत को सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत चोट पहुंचाई है। समाज को सामाजिक समरसता से जोड़ने के लिए हर संगठन और राजनीतिक दल को बाबासाहेब अम्बेडकर के बताए रास्ते पर चलना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस क्षेत्र में कार्यरत संगठनों में से एक है। वह न केवल सामाजिक समरसता में विश्वास करता है, बल्कि हम इसे लाखों स्वयंसेवकों के विशाल संघ परिवार में धरातल पर देख सकते हैं।
आरएसएस सदैव से वंचितों व पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास करता रहा है। वंचित और अन्य पिछड़े वर्गों के लोग मंदिर के महायाजक (पारंपरिक रूप से जाति ब्राह्मणों के लिए आरक्षित और निचली जातियों से वंचित) बनें, इस के लिए संघ ने शिक्षा का मुद्दा उठाया और सहायता भी की। संघ की कार्यशैली ही ऐसी है कि जिसने उसको जाना वह फिर दूर नहीं रह पाया, जुड़ता ही चला गया।
डॉ. अम्बेडकर भी संघ से बहुत प्रभावित थे। 1939 में वे सुबह संघ शिक्षा की कक्षा में आए और सभी कार्यक्रमों को देखा। दोपहर में उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार और अन्य स्वयंसेवकों के साथ भोजन किया और फिर एक घंटे तक ‘वंचित समाज और उनके उत्थान’ पर चर्चा की। उन्होंने देखा संघ शाखा में स्वयंसेवकों में कोई जातिगत भेदभाव नहीं है। उन्होंने लिखा, “यह पहली बार है जब मैं संघ के स्वयंसेवकों के शिविर का दौरा कर रहा हूं। मैं सवर्णों और हरिजनों के बीच पूर्ण समानता पाकर खुश हूं।”
आरएसएस के तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने सामाजिक समरसता पर अपने भाषण में कहा कि, हम पर मुट्ठी भर मुसलमानों और उससे भी कम अंग्रेजों ने शासन किया और हमारे अनेक भाइयों को जबरदस्ती कन्वर्ट किया। उन्होंने ‘ब्राह्मण, गैर-ब्राह्मण’, ‘सवर्ण और अस्पृश्य’ जैसे विवाद भी पैदा किए। इसके लिए हम केवल विदेशियों को दोष नहीं दे सकते और इस संबंध में स्वयं को दोषमुक्त नहीं कर सकते। इस तथ्य पर शोक करने की क्या बात है कि विदेशियों के साथ हमारे संपर्क और उनकी विभाजनकारी साजिशों के परिणामस्वरूप हमारी एकता बिखर गई थी?
आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का इस संबंध में एक अनूठा दृष्टिकोण था। जब भी यह विषय आता, तो वे कहते थे, हम अपनी दुर्दशा के लिए मुसलमानों और यूरोपीय लोगों को दोष देकर अपनी जिम्मेदारी से खुद को मुक्त नहीं कर सकते। हमें अपनी खामियों की तलाश करनी चाहिए। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारे बीच सामाजिक असमानता ने हमारे पतन में योगदान दिया है। जाति और उप-जाति प्रतिद्वंद्विता, साथ ही अस्पृश्यता जैसी विखंडनीय प्रवृत्तियाँ, सभी सामाजिक असमानताओं की अभिव्यक्तियाँ रही हैं। उनका कहना था कि, हिंदू संगठनवादियों के लिए यह एक नाजुक और कठिन मुद्दा है क्योंकि हमें अपने धर्म और संस्कृति पर बेहद गर्व है। सच है, ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिनके बारे में हमें उचित ही गर्व हो सकता है। इस भूमि के दर्शन और मूल्यों को दुनिया भर के विचारकों ने मानवता की शांति और प्रगति में एक अमूल्य योगदान के रूप में सराहा है। लंबे समय से चले आ रहे हमलों और ऐतिहासिक और राजनीतिक उथल-पुथल के सामने, ये जीवन मूल्य समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं। हम सभी स्वाभाविक रूप से यह मानने के इच्छुक हैं कि इन शाश्वत जीवन-सिद्धांतों को संरक्षित किया जाना चाहिए।
वर्ण व्यवस्था पर उनका कहना था कि यह मानवीय कमजोरी से अछूती नहीं रह पाई, परिणामस्वरूप विकृत और ध्वस्त हो गई। लेकिन कोई भी यह दावा नहीं कर सकता है कि इसके पीछे सिस्टम के रचनाकारों के इरादे नेक नहीं थे। हमारे यहॉं तो कहा गया है-
शूद्रोपी शीलसम्पन्नो गुणवान ब्राह्मणो भावेते
ब्रह्मनोपी क्रियाहीनः शूद्रत प्रत्यावरो भावेत।
एक शूद्र अपने नेक आचरण से ब्राह्मण बन सकता है, और एक ब्राह्मण उस शुद्धता के बिना शूद्र बन सकता है। अर्थात् केवल जन्म से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता। ऋष्यश्रृंग, विश्वामित्र और अगस्त्य जैसे महान ऋषि इसके वे उदाहरण हैं, जो ब्राह्मण के रूप में पैदा न होने के बावजूद तपस्या, पुण्य और प्राप्ति के माध्यम से ब्राह्मण बने। पुराणों के अनुसार, ऐतरेय ब्राह्मण और बाद में एक द्विइया के लेखक महिदास, एक शूद्र महिला के पुत्र थे। जाबाला को उनके गुरु द्वारा उपनयन समारोह के माध्यम से ब्राह्मण समूह में दीक्षा दी गई थी, इस तथ्य के बावजूद कि उनके कोई पिता नहीं थे। ये चीजें केवल इसलिए संभव थीं क्योंकि उन्होंने विरासत में मिली क्षमताओं की सीमाओं को पहचाना और व्यवस्था को लचीला बनाया। नतीजतन, प्रणाली सदियों तक चल सकती है।
आरएसएस जैसे संगठन की विनाशकारी आलोचना और उससे घृणा करने वालों को आरएसएस की सामाजिक समरसता के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं में भाग लेना चाहिए। तभी वे उसे समझ पाएंगे और जान सकेंगे कि आरएसएस सही मायनों में बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों पर चलकर उनके ध्येय को पूरा करने में संलग्न है।