बाबा बिरसा मुंडा जयंती मनाने से ईसाई मिशनरियां परेशान क्यों?
जनजाति गौरव दिवस 15 नवंबर पर विशेष
लक्ष्मण राज सिंह मरकाम
बाबा बिरसा मुंडा विश्वरत्न हैं। उन्होंने ब्रिटिश शासन के धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लिया और सभी जनजातियों को एकत्रित कर मतांतरित हो चुके जनजाति समाज के लोगों को बिरसाइयत पंथ की दीक्षा दी।
बाबा बिरसा ने कहा की चर्च, सेना अधिकारी और बिचौलिये सब की एक ही टोपी है, “साहब साहब टोपी एक“ इन टोपी वालों के झाँसे में नहीं आना है। हमें सात्विक जीवन जीते हुए स्वराज्य स्थापित करना है, जिसमें स्वधर्म सुरक्षित हो, “अबुआ दिशोम अबुआ राज “ …। उनकी इस क्रांति को महान उलगुलान क्रांति के नाम से जाना गया।
लेकिन इस क्रांति से तब के ईसाई मिशन को सबसे बड़ी हानि हो रही थी, उसके मुख्य कारण थे :
- बाबा बिरसा का बपतिस्मा (मतांतरण) बचपन में कराने और ईसाई मिशन में पढ़ाने के बाद भी वे ईसाई मिशन के मुफ़्त शिक्षा के झाँसे में नहीं आए।
- उन्होंने सनातन धर्म की दीक्षा दी और पवित्र तुलसी के पौधे को पूजने का आदेश दिया
- बाबा बिरसा की क्रांति का आधार स्वधर्म से स्वराज्य की ओर था। इसीलिए उनके आह्वान पर बड़ी संख्या में जनजाति समाज के मतांतरित लोग वापस बिरसाइयत और सनातन प्रकृति पूजा की ओर वापस आ रहे थे।
- बाबा के कारण लोगों ने दूसरे देशों में मज़दूरी के लिए जाने से मना कर दिया, जिस कारण ब्रिटिश हुकूमत को सस्ते मज़दूर मिलने में कठिनाई हो रही थी।
इन सब बातों से डर कर फ़ादर होफ्मेन ने बिरसा और बिरसाइयत को समाप्त करने की योजना बनाई, जिसकी स्वीकृति चर्च ऑफ़ इंग्लैंड से मिलने के बाद सेना और कमिश्नर सभी को उनकी योजना का हिस्सा बनना पड़ा।
बाबा का संदेश इतना प्रभावी था कि जब उनके कहने पर 6000 ईसाइयों ने ईसाई मत त्याग दिया तो इससे दुखी होकर फ़ादर होफ्मेन ने बंगाल के गवर्नर को पत्र लिखा “बड़ी कठिनाई से हम लोगों को ईसाई बना रहे हैं और बिरसा मुंडा अपनी एक आवाज़ से उन्हें ईसाइयत छुड़वा दे रहा है, इसे शीघ्र समाप्त करवाना होगा।“ इस पर गवर्नर ने वहाँ के कमिश्नर से उत्तर माँगा, लेकिन कमिश्नर ने कहा कि बिरसा शांतिपूर्ण ढंग से स्वधर्म का प्रचार कर रहे हैं, उनके विरुद्ध उत्पात करने के कोई सबूत नहीं हैं।
इस उत्तर से दुखी होकर फ़ादर होफ्मेन के कहने पर ही, कुछ मतांतरित ईसाइयों ने चर्च में आग लगा दी और दोष बाबा बिरसा पर लगा दिया। इस घटना के बाद, बाबा बिरसा को उनके कई अनुयायियों के साथ बंदी बना लिया गया। मुक़दमे के पहले ही फ़ादर होफ्मेन का झूठ कहीं ना पकड़ा जाए, इसीलिए उन्होंने बाबा बिरसा के खाने में ज़हर मिलवा दिया। उनकी मृत्यु ज़हर से हुई, यह जाँच भी षड्यंत्र पूर्वक दबा दी गई। लेकिन बाबा का संदेश अब चिंगारी नहीं आग का रूप ले चुकी थी और तब ध्यान भटकाने और धर्मांतरण जारी रखने के लिए CNT एक्ट बनाया गया।
आज स्वतंत्रता के बाद तीन टोपियों में से अंग्रेज सेना और अंग्रेज बिचौलिये / एजेंट तो भारत से जा चुके हैं, लेकिन बाबा बिरसा को ज़हर देकर मारने वाले और उनके अनुयायी चर्च, बाबा की इस कहानी को आम जनजाति समाज के लोग जो आज भी सनातन और बाबा के रास्तों पर चल रहे उन तक नहीं पहुँचने देना चाहते हैं।
कुछ राष्ट्रप्रेमी संगठनों ने बाबा की जयंती को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया है, ताकि पूरे जनजाति समाज को उनके नायकों को स्मरण करने का एक राष्ट्रीय दिन प्राप्त हो सके।
इस कहानी को जब भी आप जनजातियों के बीच ले जाएँगे तो मिशन और उसके समर्थित संगठन आपका विरोध करेंगे, अनर्गल बातों से भटकायेंगे, बोलेंगे की आदिवासी हिंदू नहीं होते हैं तो हिंदुओं को बाबा की जयंती मानने का अधिकार नहीं है। ध्यान रखें यह सारा विरोध चर्च समर्थित है ताकि उनके साहबों की टोपियाँ आगे भी सुरक्षित रहें। उनका विरोध ही हमारी जीत है और बाबा को हमारा समर्पण … । यह विरोध हमें बाबा बिरसा के उलगुलान की आख़िरी बची टोपी “मिशन“ को देश से बाहर करके समस्त जनजातियों के सनातन स्वधर्म को पुनः स्थापित का साहस देगा। बाबा बिरसा सदैव हमारे हृदय में निवास करें।