बॉलीवुड और आभासी दूरियाँ : पर्दा हटने लगा है

बॉलीवुड और आभासी दूरियाँ : पर्दा हटने लगा है

डॉ. अरुण सिंह

बॉलीवुड और आभासी दूरियाँ : पर्दा हटने लगा है

वर्तमान इंटरनेट क्रांति के दौर में राजनीति, क्रिकेट और अन्य क्षेत्रों के अलावा सिनेमा व बॉलीवुड का भी आभासी परिदृश्य बदल रहा है। पिछले दशक से तो निस्संदेह अभूतपूर्व परिवर्तन देखने मिल रहे हैं। भारत में 1976 में टेलीविजन पर दूरदर्शन प्रारंभ किया गया। कालांतर में हिंदी फिल्में भी प्रसारित की जाने लगीं। परंतु 1970 व 80 के उन दशकों में टेलीविजन पर फिल्मों की उपलब्धता बहुत कम होती थी। व्यावसायिक सिनेमा ही लोकप्रिय सिनेमा के रूप में उभर रहा था। देश के ग्रामीण अंचल के लिए मुख्यतः यह सिनेमा अल्प मात्रा में उपलब्ध था। छोटे कस्बों के फ़िल्मी पर्दों पर प्रायः पुरानी फिल्में दिखाई जाती थीं। नई प्रदर्शित होने वाली फिल्में तो सामान्यतया बड़े शहरों के उच्च/मध्यम वर्ग के लिए ही उपलब्ध थीं।

इन दशकों की व्यावसायिक फिल्मों का कथानक प्रायः काल्पनिक होता था। मार-धाड़ और भावनात्मक प्रेम कहानी से युक्त ये फिल्में दर्शक को एक अलग ही कल्पना संसार में ले जाती थीं। उस दौर के समानांतर सिनेमा की पहुंच आम जन तक नहीं थी तथा कला सिनेमा का दर्शक वर्ग भी भिन्न ही हुआ करता था। वस्तुतः, आम दर्शक और सिनेमा संसार के बीच की आभासी दूरी बहुत अधिक थी। बॉलीवुड के कलाकार और कहानियाँ आम भारतीय जन-जीवन से अधिक मेल नहीं खाते थे। फिल्मों में दिखाया जाने वाला उनका चकाचौंध युक्त जीवन किसी यूटोपिया से कम नहीं था। विशेष तथ्य यह है कि कलाकारों के वास्तविक जीवन, उनकी सोच, विचारधारा, जीवनचर्या तथा रहन-सहन की झलक दर्शक तक नहीं पहुँच पाती थी। कलाकार मात्र एक कल्पित वस्तु ही था। टेलीविजन की स्क्रीन के बाहर वह कभी नहीं आ पाता था। अपितु वह तो टेलीविजन के भीतर भी कैमरे में पकड़ा गया कोई यूटोपियाई चरित्र था।

सूचना क्रांति के इस दौर में कलाकार अब फ़िल्मी कैमरे के अलावा मीडिया व आम जन के कैमरे के दायरे में भी आने लगा है। फ़िल्मी चरित्र के अतिरिक्त उसका वास्तविक चरित्र भी दृष्टिगोचर है। आभासी दूरी अब घटने लगी है। वास्तविकता पर जो पर्दा ढंका हुआ था, वह अब हटने लगा है। फ़िल्मी दुनियाँ के सकारात्मक/नकारात्मक पहलू सामने आ रहे हैं। यू-ट्यूब तथा अन्य सोशल मीडिया के माध्यमों द्वारा यह आभासी दूरी घटाई जा रही है। इन माध्यमों तक पहुँच भी अब बहुत सस्ती हो गयी है। कलाकारों के साक्षात्कार अब आसानी से देखे जा सकते हैं। रजत शर्मा की आपकी अदालत में बहुत से कलाकार/फिल्मकार आ चुके हैं।

पैपराज़ी, मीडिया/फ़िल्म पत्रकार, वीडियो मेकर्स इत्यादि फ़िल्मी हस्तियों के वीडियो प्रसारित करते रहते हैं। वे आम लोगों के पास फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर इत्यादि के माध्यम से उपलब्ध हो रहे हैं। पेज थ्री पार्टियों की पत्रिकाओं की जगह अब दृश्य साधनों ने ले ली है। वूम्पला जैसे चैनल सिने सितारों के वीडियो प्रसारित कर रहे हैं। कलाकार हवाई अड्डे, होटल आदि स्थानों पर आते-जाते दिखाई देते हैं। दर्शक/प्रशंसक उनके साथ सेल्फी लेते हैं और उन्हें अपने स्मार्ट-फ़ोन में रक्षित करते हैं।

कई कलाकार फेसबुक जैसे ऍप्लिकेशन पर अपने पेज के माध्यम से दर्शक वर्ग से लगातार संपर्क में रहते हैं। आशुतोष राणा इसके उपयुक्त उदाहरण हैं। कई कलाकारों के बारे में जो आदर्शवादी दृष्टिकोण दर्शकों के मन में होता था, वह अब वास्तविकता के दायरे में आ रहा है। प्रायः अभिनेता/अभिनेत्री साक्षात्कारों में यह स्वीकार भी करते हैं कि उनका व्यावसायिक जीवन वास्तविक जीवन से बहुत भिन्न होता है। इस घटती दूरी का प्रभाव यह भी है कि कलाकारों के प्रति आम जन का सकारात्मक/ नकारात्मक दृष्टिकोण भी उजागर हो रहा है।

हाल ही में अभिनेता इरफ़ान खान और ऋषि कपूर की मृत्यु के पश्चात लोगों की विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आईं। अभिनेता सुशांत सिंह की आकस्मिक मृत्यु ने पूरे बॉलीवुड के परिदृश्य को एक नई दिशा दे दी है। नवोदित कलाकारों के लिए सोशल मीडिया के माध्यम वरदान सिद्ध हो रहे हैं। उन्हें अपनी प्रतिभानुसार पहचान भी मिल रही है। मिथिला पालकर और तृप्ति डिमरी इनमें शामिल हैं। अपनी फिल्मों के प्रमोशन हेतु कलाकार महानगरों के कॉलेज/विश्वविद्यालयों में युवा वर्ग से सामने बहुतायत में जाने लगे हैं। आजकल कलाकारों के घर तथा वैनिटी वैन में भी साक्षात्कार होने लगे हैं। सोशल मीडिया पर भी फ़िल्म प्रोमोशन होने लगा है। महेश भट्ट की फ़िल्म सड़क-2 के ट्रेलर के प्रति आम दर्शक की प्रतिक्रिया स्वयं महेश भट्ट के प्रति आक्रोश है। महेश भट्ट के कट्टरवादी/अतिशयवादी भाषण/बयान जनता तक पहुँच रहे हैं। रियलिटी शो कितने भी पटकथा में बंधे हुए हों, पर वास्तविकता वहाँ भी दिखायी दे रही है। कपिल शर्मा शो इसका अच्छा उदाहरण है। अभिनेता अक्षय कुमार द्वारा प्रधानमंत्री मोदी का साक्षात्कार अपने आप में एक अनूठा उदाहरण है। बॉलीवुड अब दूर की दुनिया नहीं लगता, वह फ़िल्मी कैमरामैन की गिरफ्त तथा सिनेमा हॉल व यू-ट्यूब की महंगी सुविधा से बाहर निकल आया है। इसकी श्वेत/स्याह परतें अब खुल रही हैं।

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