बॉलीवुड का भारतीयता से इतना दुराग्रह क्यों?
मुरारी गुप्ता
बॉलीवुड का ब्राह्मणों के प्रति पूर्वाग्रह कोई नई बात नहीं है। आज से पांच दशक पुरानी फिल्मों को देख लीजिए या अभी हाल में ताजा रिलीज हुई भूल भुलैया के दूसरे भाग को देख लीजिए। बॉलीवुड में एक विशेष प्रकार के फिल्मकारों, निर्देशकों और निर्माताओं में भारतीय समाज के ब्राह्मण वर्ग को बदनाम करने, उसे फिल्मों में पाखंडी तथा आडंबर वाला व्यक्ति बताने के हर संभव प्रयास किए गए हैं।
अनीस बजमी की ताजा फिल्म भूल भुलैया के पार्ट 2 में छोटा पंडित और बड़ा पंडित नाम के दो चरित्र दिखाए गए हैं। पूरी फिल्म के दौरान बड़ा पंडित और छोटा पंडित के वस्त्र और उनके आवरण को जिस बेहूदा ढंग से फिल्म में दिखाया है वह किसी भी समाज को क्रोधित करने के लिए पर्याप्त है।
यह सही है कि फिल्मकार को अपनी कहानी और फिल्म को दिखाने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। परंतु क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वह समाज के किसी भी प्रतिष्ठित वर्ग को एक पाखंडी और आडंबरी के रूप में प्रस्तुत कर सकता है? अनीस बजमी की इस फिल्म में जिस तरह से पंडित वर्ग को लालची पाखंडी और आडंबर युक्त बताया है वह घोर निंदनीय है। हालांकि बॉलीवुड सिनेमा भारतीय पुलिस, कानून व्यवस्था, राजपूत, ब्राह्मण तथा वैश्य वर्ग को जिस तरह से पिछले 70 वर्षों से प्रदर्शित करता आ रहा है, उसे देखते हुए अनीस बजमी का यह प्रयास कोई नई बात नहीं है। बॉलीवुड बरसों से अपनी फिल्मों के माध्यम से हिंदू समाज के प्रतिष्ठित प्रतीक चिन्हों के साथ जिस तरह भद्दा और बेहूदा मजाक करते रहा है, वह हिंदू समाज की अनावश्यक अति सहनशीलता को प्रदर्शित करता है।
बॉलीवुड जगत के प्रतिष्ठित और बड़े कलाकार भी इससे अछूते नहीं हैं। उन्होंने भी हिंदू समाज और भारतीय सनातन परंपराओं के प्रतीकों को अनेकों बार भद्दे तरीके से फिल्मों में प्रदर्शित किया है। आमिर खान की फिल्म पीके को देख लें, चाहे विशाल भारद्वाज की फिल्म हैदर को। जिस तरह फिल्म पीके में महादेव के चरित्र के साथ बेहूदा मजाक किया गया था, उसी तरह फिल्म हैदर में कश्मीर के मार्तंड मंदिर को शैतान की गुफा के रूप में दिखाया गया था। क्या किसी मजहबी प्रतीक के साथ फ़िल्मकार ऐसा करने का साहस कर सकते हैं?
यह बॉलीवुड फिल्मों का और हमारे फिल्मकार जगत का दुर्भाग्य ही है कि वह हमेशा भारतीय सनातन परंपराओं और धार्मिक चिन्हों के साथ बदसलूकी करते रहे हैं। बॉलीवुड फिल्मों ने जिस तरह भारतीय परिवारों की व्यवस्थाओं का मजाक उड़ाया है वह अक्षम्य अपराध है। सौभाग्य से पिछले कुछ वर्षों से भारतीय समाज में अपने धार्मिक और सामाजिक प्रतीकों और परंपराओं को लेकर एक चेतना का जागरण हुआ है। इसका असर निश्चित रूप से बॉलीवुड फिल्मकारों पर पड़ा है। विशेषकर विज्ञापन जगत अब काफी सचेत होकर भारतीय प्रतीकों और धार्मिक चिन्हों के साथ व्यवहार करने लगा है।
भारतीय समाज की उदासीनता कई बार अनीस बजमी जैसे फिल्मकारों को अपने ही धार्मिक प्रतीकों और परंपराओं के साथ दुर्व्यवहार करने का अवसर देती है। यह समय है कि भारतीय समाज के अग्रणी और गणमान्य लोग तथा बुद्धिजीवी वर्ग आगे आकर सिनेमा की दुनिया में भारतीय समाज के चरित्र चित्रण पर कड़ी निगरानी रखें। अन्यथा जो छवियां सिनेमा जगत पर्दे के माध्यम से भारतीय समाज की लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहा है, उससे भारतीय समाज की नई पीढ़ी में अपने ही समाज के प्रति अविश्वास पैदा होने का खतरा है। इस तरह की गतिविधियों और चित्रण का लोकतांत्रिक माध्यमों से पुरजोर विरोध होना आवश्यक है। अन्यथा सिनेमा जगत भारतीय समाज की सदाशयता का लाभ हमेशा उठाता रहेगा।