गांधी जी चाहते तो रुक सकती थी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (भाग-14)
नरेन्द्र सहगल
गांधी जी चाहते तो रुक सकती थी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी
मां भारती के हाथों और पांवों में पड़ी हुई परतंत्रता की जंजीरों को तोड़ डालने के लिए देश में दो प्रयास चल रहे थे। एक सशस्त्र क्रांति द्वारा क्रूरता की सारी हदें पार करने वाले अंग्रेजों को भारत से भगाना और दूसरा अहिंसा के मार्ग पर चलकर सत्याग्रह करते हुए अंग्रेजों को भारत को स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य करना। यद्यपि इन दोनों मार्गों का उद्देश्य एक ही था- भारत की स्वतंत्रता, तो भी कहीं ना कहीं इन दोनों के बीच न्यूनाधिक टकराव की स्थिति भी थी। यह देश का दुर्भाग्य था। विदेशी शासकों ने हमारी इस स्वयं निर्मित कमजोरी का भरपूर लाभ उठाया।
एक पुलिस अफसर सांडर्स की हत्या और असेंबली में हुए जोरदार धमाके के बाद अंग्रेज सरकार किसी भी प्रकार से क्रांतिकारियों के पूर्ण सफाए और अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों के साथ तालमेल की रणनीति पर चलने लगी थी। विदेशी शासकों द्वारा प्रारंभ से ही अपनाई जा रही ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का ही यह एक स्वरूप था। इसी रणनीति के फलस्वरूप सशस्त्र क्रांतिकारी और अहिंसा के पुजारियों में कभी समन्वय नहीं बन सका।
सरकारी हलकों में तहलका मचा देने वाली दोनों घटनाओं सांडर्स वध और असेंबली में बम धमाकों की सारी जानकारी दो मुखबिरों से प्राप्त करने के पश्चात प्रशासन ने लगभग 32 लोगों को अपराधी करार दे दिया। दुर्भाग्य से इनमें से 7 युवकों को सरकार ने दबाव की नीति अपनाकर और धन का लालच देकर सरकारी गवाह बनाने में सफलता प्राप्त कर ली। 9 अपराधी युवक भाग जाने में सफल रहे। अतः शेष 16 पर सरकार ने अभियोग चला दिया।
ऐतिहासिक मुकदमे को सरकार द्वारा नियुक्त एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। इसे अपराधियों की गैर हाजिरी में भी कार्यवाही करने और सजा देने के लिए अधिकृत कर दिया गया। कल्पना कीजिए कि न्यायालय में अपराधी नहीं, उनका कोई वकील भी नहीं, तो भी मुकदमे का यह नाटक चलता रहा और एक दिन अचानक निर्णय सुना दिया गया। 2 अक्टूबर 1930 को सुनाए निर्णय में हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना के चीफ कमांडर सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी का हुक्म सुना दिया गया। सात अभियुक्तों को आजीवन कारावास का दंड मिला। दो को सात वर्ष कैद की सजा मिली और तीन को मुक्त कर दिया गया।
तीनों क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी पर लटकाया जाएगा, यह समाचार बिजली की तरह पूरे देश और विदेश में पहुंच गया। भारत की तमाम जनता विशेषकर क्रांतिकारी युवकों की भवें तन गईं। भारतवासी तिलमिला उठे। पूरे देश में इस तानाशाही निर्णय के विरुद्ध प्रदर्शनों और जुलूसों का तांता लग गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत माता के इन तीनों वीर सपूतों की सजा ए मौत के सरकारी फैसले को वापस लेने के लिए ब्रिटिश सरकार पर भारी दबाव पड़ने लगा।
पूरे देश में तेज गति से बढ़ते चले जा रहे इस आक्रोश को शांत करने के लिए सरकार ने पहले गांधी जी को जेल से रिहा कर दिया। वायसराय लॉर्ड इरविन के साथ गांधी जी की ऐतिहासिक मुलाकात के फलस्वरूप जेलों में बंद सभी अहिंसक सत्याग्रही छोड़ दिए गए। मगर गांधी जी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को दी जाने वाली मौत की सजा का ज्वलंत मुद्दा इस बातचीत में नहीं उठाया। गांधीजी चाहते तो भारत माता के इन तीनों क्रांति योद्धाओं को बचाया जा सकता था।
इसमें दो मत नहीं हो सकते कि गांधी जी एक ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने कांग्रेस के दोनों दोनों धड़ों गरम दल और नरम दल को एक मंच पर लाकर विदेशी हुकूमत के विरुद्ध अहिंसक सत्याग्रह को प्रारंभ किया था। गांधीजी के देशभक्ति से भरपूर व्यक्तित्व के कारण ही सारे भारतवासी एक मंच (कांग्रेस) की छत्रछाया में एकजुट हो गए। गांधी जी एक महान नेता थे और 1919 से 1947 तक के कालखंड में वे एक निर्विवाद स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सम्मानित थे।
उल्लेखनीय है कि उसी समय देश को स्वतंत्र करवाने के उद्देश्य से देशव्यापी सशस्त्र क्रांति भी अपने व्यापक रूप में थी। यह क्रांतिकारी भी महात्मा गांधी जी का भरपूर सम्मान करते थे। परंतु उनका मार्ग भिन्न था। यदि गांधी जी को सत्याग्रह के मार्ग पर चलने का अधिकार था तो इन क्रांतिकारियों को भी सशस्त्र क्रांति का असरदार मार्ग अपनाने का अधिकार था। और फिर इन देश-भक्तों ने तो वही मार्ग अपनाया था जो प्रभु श्रीराम, योगेश्वर कृष्ण, राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया था। सत्याग्रह करके जेल में जाना निश्चित रूप से देश की स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक श्रेष्ठ मार्ग था। परंतु अपने प्राण हथेली पर रखकर विदेशी शासकों के साथ सीधी लड़ाई लड़ने के मार्ग को कम करके आंकना अत्यंत निंदनीय है।
सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी से कुछ दिन पहले सुखदेव ने गांधी जी को एक पत्र लिखा – “अंग्रेजों के साथ समझौता करके आपने अपना आंदोलन समाप्त कर दिया। आप के आंदोलन के सभी बंदी छूट गए हैं, किन्तु क्रांतिकारी बंदियों के बारे में आपने कुछ नहीं सोचा। 1915 के गदर दल के बंदी आज भी जेलों में सड़ रहे हैं। यद्यपि उनकी सजा पूरी हो चुकी हैं। मार्शल लॉ के बीसियों बंदी आज भी जीवित ही कब्रों में दफन हैं। बब्बर खालसा अकाली आंदोलन के सैकड़ों बंदी भी जेलों में यातनाएं भुगत रहे हैं — अनेकों क्रांतिकारी फरार हैं, जिनमें कई स्त्रियां भी हैं। लगभग एक दर्जन बंदी मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन देशभक्तों के बारे में कुछ क्यों नहीं करते? — इन परिस्थितियों में हमसे आंदोलन समाप्त करने की आप की अपील क्या नौकरशाही का साथ देने के बराबर नहीं है?”
इसी प्रकार प्रसिद्ध क्रांतिकारी यशपाल ने अपनी पुस्तक सिंहावलोकन में लिखा है – “गांधीजी शराब विरोध के लिए सरकारी शक्ति से जनता पर दबाव डालना नैतिक समझते थे। परंतु भगत सिंह आदि की फांसी रद्द करने के लिए विदेशी सरकार पर जनमत का दबाव डालना अनैतिक समझते थे। — सर्वसाधारण के लिए यह समझ सकना कठिन है कि जन-भावना के प्रतीक बन चुके भगत सिंह आदि की प्राण रक्षा को समझौते की शर्त बताने में गांधीजी असमर्थ क्यों थे? — सर्वसाधारण को इस बात से क्षोभ हुआ कि गांधी जी ने इन बलिदानियों को फांसी ना दिए जाने के प्रश्न को उचित महत्व नहीं दिया।”
उस समय के कांग्रेस पार्टी के अखिल भारतीय अध्यक्ष डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास’ में लिखा है कि – “उस समय सरदार भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी महात्मा गांधी से कम प्रसिद्ध ना थे। जनता को विश्वास था कि इस सहानुभूति के वातावरण का लाभ उठाकर गांधीजी अपनी बातचीत की सबसे पहली शर्त भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को हटाने के रूप में करेंगे और यह लगता था कि उस अवस्था में इन तीनों क्रांतिकारियों के प्राण बच जाएंगे। परंतु भारत के करोड़ों लोगों की आशाओं पर पानी फिर गया।”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रचारक और भारतीय जनता पार्टी के प्रसिद्ध नेता शांता कुमार जी ने अपनी पुस्तक ‘धरती है बलिदान की’ में लिखा है – “गांधी जी भारत माता के एक अनन्य पुजारी थे। परंतु इस बात को इतिहास की ईमानदार लेखनी कभी लिखना ना भूलेगी की हिंसा को अनावश्यक महत्व दिए जाने के कारण कुछ महान क्रांतिकारी देश भक्तों की उपेक्षा करने की हिमालय सी गलती महात्मा गांधी जी से हो गई। इतिहास सदा एक प्रश्न पूछता रहेगा कि यदि गांधीजी स्वामी श्रद्धानंद जैसी पवित्र आत्मा के हत्यारे अब्दुल रशीद के प्राणों की भिक्षा अंग्रेज सरकार से मांग सकते हैं तो क्या कारण था कि करोड़ों भारतवासियों के आदर और स्नेह के प्रतीक इन तीनों बलिदानियों की सजा कम करने की मांग ना कर सके। इस बात का अत्यंत खेद है कि गांधीजी देशभक्त क्रांतिकारियों से सदा घृणा करते रहे और उनके हृदय में राष्ट्रभक्ति की जलती प्रखर ज्योति को ना देख सके। देश के कार्य के लिए तिल तिल कर जलने वाले वह मां भारती के अमर पुजारी कितनी वेदना का अनुभव करते होंगे। ऐसे नेताओं के ऐसे व्यवहार पर।”
जैसे-जैसे इन तीनों वीर योद्धाओं की फांसी का समय निकट आता गया, वैसे-वैसे ही देशवासियों के मन में उभरता क्षोभ सीमा लांघने लगा। जनता ने महात्मा गांधी जी समेत कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं पर कुछ करने के लिए दबाव डालना शुरू किया। परंतु भारत माता के अहिंसक पुजारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी।
उल्लेखनीय है कि सरदार भगत सिंह का पूरा परिवार ही राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों का परिवार था। वैसे भी आर्य समाज की पृष्ठभूमि वाला परिवार राष्ट्रीय, धार्मिक और सामाजिक भावनाओं से ओतप्रोत था। अतः युवा पुत्र की देश के लिए बलिदान होने के जज्बे की सभी सराहना करते थे। परंतु पिता का हृदय अपने 23 वर्षीय जवान पुत्र की फांसी के समाचार से हिल गया। ना चाहते हुए भी भगत सिंह के पिता ने भारत के वायसराय को एक पत्र लिखा। जिसमें अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिए निवेदन किया गया था।
जब वीर क्रांतिकारी भगत सिंह को अपने पिता द्वारा लिखे इस प्रार्थना पत्र की जानकारी मिली तो यह युवा पुत्र क्रोध से लाल-पीला हो गया। इस मानसिक आघात से भगत सिंह कराह उठे – “मेरे पिता ने मेरी पीठ में छुरा घोंप दिया है।” इससे पहले कि वायसराय को लिखा पत्र कहीं अपना असर ना दिखा दे, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने वायसराय को एक पत्र लिख दिया — “हम कोई चोर, डाकू या लुटेरे नहीं हैं। यदि आपको वीरता के प्रति थोड़ा भी आदर शेष है तो हमें युद्ध भूमि में सैनिकों की तरह बंदूक की गोलियों से मारने की आज्ञा दे दीजिए।”
इन क्रांतिकारियों को फांसी के तख्ते पर लटकाने के लिए 24 मार्च का दिन तय किया गया था। परंतु जनता के अनियंत्रित होते जा रहे क्रोध को भांप कर सरकार ने अपना निर्णय बदल दिया। फांसी सदैव प्रातः के समय देने का प्रावधान है। जेल में फांसी देने के नियम और एक सभ्य समाज के रीति रिवाजों का गला घोटकर सरकार ने इन तीनों को 23 मार्च की रात को ही फांसी पर लटकाने का निर्णय ले लिया।
रात के अंधेरे में इन तीनों को कोठरी से बाहर निकाला गया। इन्हें तुरंत समझ में आ गया कि यह उनकी मौत का वारंट है। बस फिर क्या था इन तीनों ने पूरी ताकत से नारे लगाए “इंकलाब जिंदाबाद” — “क्रांति अमर रहे” — “ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो”। इस भयंकर, क्रोधित और गगनभेदी स्वरों में ब्रितानिया हुकूमत को धराशाई करने की ललकार थी। तीनों देशभक्त पूरे जोश में थे। तभी भगत सिंह ने अपने सामने खड़े एक पुलिस अधिकारी से सीना तान कर कहा – “आज आप देखेंगे कि स्वतंत्रता के मतवाले किस प्रकार भय रहित होकर मौत को भी चूम सकते हैं”।
आकाश को भी फाड़ देने वाले उद्घोषों से जेल की दीवारें भी कांप उठीं। इन तीनों सुकुमार क्रांतिकारियों ने एक-दूसरे की ओर विदाई की अंतिम मुस्कान बिखेरी और स्वयं ही फांसी घर की ओर चल दिए। मस्ती से उछलकर तीनों ने फांसी का फंदा स्वयं अपने हाथों से अपने गले में डाल दिया। जल्लाद ने रस्सी खींची और सबके सामने इन तीनों स्वतंत्रता सेनानियों के युवा स्वस्थ शरीर लाशों में तब्दील हो गए। वतन पर बलिदान हो गए मां भारती के तीनों लाल।
सरकार की घबराहट और बौखलाहट इतनी बढ़ गई थी कि इन तीनों युवकों के शवों को उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया। रात के अंधेरे में उनके पार्थिव शरीर को एक गाड़ी में डालकर लाहौर के निकटवर्ती फिरोजपुर नगर में ले जाकर सतलुज नदी के किनारे मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। सरकार को भय था कि यदि उनके पार्थिव शरीरों का संस्कार करने की स्वीकृति दे दी तो विशाल शव यात्रा निकलेगी और लाखों लोग एकत्र होकर अपने बलिदानियों को श्रद्धांजलि देंगे। अनेक क्रांतिकारी भी हुतात्माओं को कंधा देने आएंगे। कोई बहुत बड़ा हिंसक हादसा हो सकता है।
कितने दुख की बात है जो देशभक्त क्रांतिकारी अपनी भरी जवानी में देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे, जेल में नारकीय जीवन जीते हुए असहनीय यातनाएं सहन करते रहे और फांसी के फंदे पर भी विदेशी हुकूमत के विनाश की कामना करते रहे, उन हुतात्माओं का अंतिम संस्कार भी उनके परिवार और देशवासियों द्वारा नहीं हो सका। राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए मर मिटने वाले इन क्रांतिकारी बलिदानियों को हमारा प्रणाम। इंकलाब जिंदाबाद।
…………जारी