संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के संकलित विचार- भारतभूमि, अपना तीर्थस्थान
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भारतभूमि से पवित्रतर और कुछ नहीं हो सकता। इस भूमि की धूलि का एक-एक कण, जड़ और चेतन प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक काष्ठ और प्रस्तर, प्रत्येक वृक्ष एवं नदी हमारे लिए पवित्र है। इस भूमि के बच्चे के हृदय में यह प्रगाढ़ भक्ति सदैव जीवित रखने हेतु ही पूर्व काल में यहाँ इतने विधि-विधानों एवं लोकाचारों की स्थापना हुई थी। नित्य होनेवाली विविध धार्मिक क्रियाओं में विशिष्ट स्थान के उल्लेख के साथ भारतवर्ष की समग्र विशालता का संबंध स्थापित किया जाता है।
हमारे सभी महत्त्व के धार्मिक संस्कार भूमि पूजन से आरंभ होते हैं। यह एक प्रथा है कि प्रातःकाल में जैसे ही हिन्दू निद्रा को त्यागता है, सर्वप्रथम वह पृथ्वी माता से इस बात के लिए क्षमायाचना करता है कि दिन भर वह उसे अपने पैरों से स्पर्श करने के लिए विवश है।
_समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥_
( देवि! समुद्र तुम्हारा परिधान है, पर्वत स्तनमंडल हैं, जिनका वात्सल्य रस नदियों में प्रवाहित हो रहा है। हे विष्णु-पत्नी! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। मेरे पैरों के स्पर्श होने की धृष्टता क्षमा करना।)
यह एक साधारण कार्य है, किंतु इसके द्वारा प्रत्येक प्रातःकाल हमारे मस्तिष्क में इस माता की भक्ति का विचार आता है, जो दिव्य माँ आदिशक्ति की अति उदात्त भक्ति का ही भाव है। यह प्रशिक्षण इतनी गहराई तक पहुँचा हुआ है कि सामान्य दैनिक कार्यों में भी हमें उस अनुभूति की झलक मिल जाती है। जब कोई बच्चा खेल-खेल में भूमि को रौंदता है तो माता कहती है, ‘पुत्र, धरती माता को ठोकर मत मारो।’ अथवा यदि स्वभावानुसार वह पृथ्वी को नाखून से कुरेदता है तो वह कहती है, ‘प्यारे बच्चे, यह मत करो पृथ्वी माँ को कष्ट होगा। एक साधारण किसान भी जब खेत में हल जोतता है, तो पहले क्षमा याचना करता है। ऐसी है हमारी सजीव-परंपरा।
यह देश हमारे लिए कभी निर्जीव अचेतन पदार्थ नहीं रहा। सदैव समान भाव से अपने बच्चों के लिए सजीव दिव्य माँ के रूप में रहा है, चाहे वे बच्चे निम्नतम वर्ग के हों अथवा उच्चतम वर्ग के।
स्वामी विवेकानंद जी जब इंग्लैंड से भारत के लिए चलने लगे तो उनसे पूछा गया कि इंग्लैंड और अमरीका के समान समृद्ध देशों की यात्रा करने के पश्चात् अब अपनी मातृभूमि के संबंध में उनके क्या विचार हैं? उन्होंने कहा, ‘भारत से मैं पहले प्यार करता था, किंतु अब तो उसकी धूलि का एक-एक कण मेरे लिए अत्यंत पवित्र है, मेरे लिए वह तीर्थस्थान हो गया है।
हम करें राष्ट्र आराधन, तन से, मन से, धन से।
तन मन धन जीवन से, हम करें राष्ट्र आराधन॥