भारतीय नवसंवत्सर की वैज्ञानिक सुंदरता

डॉ. अभिमन्यु
भारतीय नवसंवत्सर की वैज्ञानिक सुंदरता
भारतीयों द्वारा हर वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नए संवत्सर (वर्ष) का स्वागत बड़े ही हर्षोल्लास के साथ किया जाता है। लोग अपने घरों को रंगोलियां बनाकर सजाते हैं, नए-नए पकवान बनाए जाते हैं और दीप प्रज्वलित कर नए संवत्सर का आनंद उठाया जाता है।
जब हम इस प्रश्न पर पहुंचते हैं कि भारत में इसी समय नया संवत्सर क्यों प्रारंभ होता है, तो इसके पीछे छुपी हुई वैज्ञानिक सुंदरता आश्चर्यचकित कर देती है। इसको समझने के लिए हमें थोड़ी बहुत भौगोलिक घटनाओं को समझना होगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी अपनी अक्ष पर साढ़े 23 डिग्री झुकी हुई है और वह अपनी धुरी पर घूमती हुई 29.6 किमी प्रति सेकंड की गति से 365 दिन 5 घंटे 48 मिनट 46 सेकंड में सूर्य की अंडाकार परिक्रमा पूर्ण करती है। अपनी परिक्रमा पूर्ण करने के दौरान पृथ्वी के दिन रात के समय में अंतराल आ जाता है। पृथ्वी अपने इस परिक्रमा पथ पर चार स्थितियों का निर्माण करती है, जिन्हें हम बसंत विषुव, ग्रीष्म संक्रांति, शरद विषुव और शीत संक्रांति के नाम से जानते हैं। इनके लिए क्रमशः आदि विषुव नाभि, उत्तर नाभि, मध्य विषुव नाभि तथा दक्षिण नाभि जैसे नाम का भी प्रयोग किया जाता है।
पृथ्वी 21/ 22 जून को तथा 22 /23 दिसंबर को प्रत्येक वर्ष क्रमशः ग्रीष्म संक्रांति तथा शीत संक्रांति की स्थिति में होती है। ग्रीष्म संक्रांति की स्थिति में सूर्य की लम्बवत स्थिति कर्क रेखा पर एवं शीत संक्रांति की स्थिति में सूर्य की लंबवत स्थिति मकर रेखा पर होती है। ग्रीष्म संक्रांति में दिन बड़े (अर्थात 13 घंटे 26 मिनट का) व रात्रि छोटी ( अर्थात 10 घंटे 34 मिनट की) होती है, जबकि शीत संक्रांति में दिन छोटे और रात्रि बड़ी होती है। दक्षिणी गोलार्ध में इन दोनों संक्रांति स्थिति पर स्थितियां ठीक इसके विपरीत होती हैं।
अब अगर हम बसंत विषुव और शरद विषुव स्थितियों की बात करें, तो ये क्रमशः 21 मार्च और 23 सितंबर को सूर्य की स्थिति भूमध्य रेखा पर लंबवत होने के कारण बनती हैं। इन स्थितियों में उत्तरी तथा दक्षिणी दोनों गोलार्द्ध में दिन-रात समान अर्थात 12-12 घंटे के होते हैं। सिर्फ अंतर यह रहता है कि उत्तरी गोलार्द्ध में बसंत विषुव पर बसंत ऋतु होती है, तो दक्षिणी गोलार्द्ध में शरद विषुव के कारण शारदीय ऋतु होती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि पृथ्वी की चार स्थितियों में से किस बिंदु को संवत्सर का प्रारंभ माना जाए। जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो हमें ध्यान आता है कि जैविक सृष्टि का प्रारंभ वनस्पतियों के उद्भव के साथ ही हुआ था। हम सभी यह भी जानते हैं कि सिर्फ बसंत ऋतु में ही नई कोपलों के द्वारा इस जगत में नवीनता की हरियाली द्वारा प्राणी मात्र में नूतन स्फूर्ति का संचार होता है। ऋग्वेद में बसंत ऋतु की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि इस ऋतु में रात्रि मधुबनी हो गई है, उषा मधुमय है, धरती की यह धूल भी मधुमय हो रही है, वनस्पतियां भी मधुमय होती हैं, सूर्य सभी के लिए मधुमय हो तथा गौ एवं दुग्धाहार भी सभी के लिए मधुमती हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस वसंत ऋतु में पूरी प्रकृति एवं सभी चराचर जीव आनंदित रहते हैं तथा इस ऋतु में दिन रात भी बराबर रहते हैं। साथ ही पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में स्थलीय जनसंख्या अधिक है, जिससे बसंत ऋतु के मानवीय जीवन पर पड़ने वाले विशेष प्रभाव के कारण इस गोलार्द्ध में बसंत विषुव से ही नवसंवत्सर का प्रारंभ माना गया है। तैत्तिरीय संहिता में भी स्पष्ट रूप से फाल्गुनी पूर्ण मास को संवत्सर का मुख बताते हुए उसके पश्चात संवत्सर प्रारंभ करने के लिए बताया गया है।
अगर हम उत्तरी गोलार्ध में पाश्चात्य परंपरा में भी वर्ष प्रारंभ करने का इतिहास देखें तो वह मार्च महीने से ही होता रहा है। मार्च का आशय भी आगे बढ़ने से ही है।पहली जनवरी से वर्ष प्रारंभ करने की परिभाषा ब्रिटिश पार्लियामेंट में पारित एक विधयेक के अनुसार सन् 1752 से अस्तित्व में आई और उसके पश्चात उपनिवेशवाद के प्रभाव के कारण पूरे विश्व में प्रचलित हो गई। इस प्रकार वैश्विक स्तर पर प्रचलित हो चुकी पहली जनवरी से वर्ष प्रारंभ की परिपाटी खगोलीय गणना एवं प्राकृतिक स्थितियों के विपरीत है। यह सिर्फ औपनिवेशिक मानसिकता को प्रदर्शित करती है।
इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में निहित वैज्ञानिकता हर किसी को अचंभित कर देती है। आज आवश्यकता है कि हम अपनी भारतीय संस्कृति में निहित वैज्ञानिकता को पूरे आत्मविश्वास एवं प्रमाणों के आधार पर प्रतिष्ठापित करें, ताकि अधिनायकवाद के स्थान पर विज्ञानवाद की स्थापना हो सके। साथ ही हमें जरूरत है भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक सुंदरता पर गर्व करने की और आने वाली पीढ़ियों को इसके बारे में समुचित जानकारी प्रदान करने की।