भारतीय परम्पराओं को अपनाने हेतु क्यों आतुर है विश्व?
प्रहलाद सबनानी
भारतीय परम्पराओं को अपनाने हेतु क्यों आतुर है विश्व?
आज अमेरिका, यूरोप एवं अन्य विकसित देश कई प्रकार की समस्याओं का सामना कर रहे हैं एवं इन समस्याओं का हल निकालने में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहे हैं। दरअसल विकास का जो मॉडल इन देशों ने अपनाया हुआ है, इस मॉडल में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे कई छिद्रों को भर नहीं पाने के कारण इन देशों में कई प्रकार की समस्याएं बद से बदतर होती जा रही हैं। जैसे प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से क्षरण होना, ऊर्जा का संकट पैदा हो जाना, वनों के क्षेत्र में तेजी से कमी होना, प्रतिवर्ष जंगलों में आग का लगना, भूजल का स्तर तेजी से नीचे की ओर चले जाना, जलवायु एवं वर्षा के स्वरूप में लगातार परिवर्तन होते रहना, नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में लगातार ह्रास होते जाना, सुख एवं शांति का अभाव होते जाना, इन देशों में निवास कर रहे लोगों में हिंसा की प्रवृत्ति विकसित होना एवं मानसिक रोगों का फैलना। इन सभी समस्याओं के मूल में विकसित देशों द्वारा आर्थिक विकास के लिए अपनाए गए पूंजीवादी मॉडल को माना जा रहा है।
पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न पदार्थों के अधिक से अधिक उत्पादन एवं उपभोग पर जोर दिया जाता है, जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण से इन संसाधनों का तेजी से क्षरण होने लगता है और ऐसा पूरे विश्व में हो भी रहा है, परंतु फिर भी चूंकि आर्थिक विकास की गति को बनाए रखना है। अतः इन प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर रोक लगाने के बारे में बिलकुल सोचा नहीं जा रहा है। इस प्रकार विकसित देश एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गए हैं जिससे निकलना अब उनके लिए सम्भव होता नहीं दिख रहा है।
विकसित देशों ने आज जो आर्थिक प्रगति की है उसकी बहुत बड़ी कीमत लगभग पूरे विश्व ने ही चुकाई है। इस विषय पर यदि विचार किया जाए तो ध्यान में आता है कि विकसित देशों यथा अमेरिकी नागरिकों जैसी जीवन शैली यदि अन्य देशों के नागरिकों द्वारा भी जीने के बारे सोचा जाए तो आज पूरे विश्व में इतने प्राकृतिक संसाधन शेष नहीं बचे हैं कि इस जीवन शैली को पूरे विश्व में उतारने के बारे में सोचा भी जा सके। फिर विकास के ऐसे मॉडल का क्या लाभ, जिसे पूरा विश्व अपना ही न सके। विकसित देशों की कुल जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का यदि 20 प्रतिशत है तो ये सम्पन्न देश पूरे विश्व के कुल संसाधनों के लगभग 80 प्रतिशत भाग का उपयोग करते हैं जबकि उनके पास पूरे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का केवल 50 प्रतिशत भाग ही है। विकसित देश अपने उपभोग एवं उत्पादन के स्तर को बनाए रखने के चलते विश्व के कुल ग्रीन हाउस गैसों का 80 प्रतिशत भाग वातावरण में भेजते हैं। अकेले अमेरिका ही एल्यूमीनियम का इतना कचरा फेंकता है कि इससे वर्ष भर में 6000 जेट विमान बनाए जा सकते हैं। हालांकि उक्त वर्णित आंकड़े आज के नहीं बल्कि कुछ पुराने समय के हैं, परंतु इससे स्थिति की भयावहता का पता तो चलता ही है।
विकसित देशों का पूंजीवादी विकास मॉडल चूंकि भौतिकवाद पर टिका हुआ है, अतः आर्थिक जगत की एक इकाई द्वारा दूसरी इकाई का शोषण करते हुए ही अपना विकास सुनिश्चित किया जाता है। ग्रामीण इकाई का नगर इकाई द्वारा, नगर इकाई का महानगर इकाई द्वारा, प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादक देश का औद्योगिक देश द्वारा, उपभोक्ताओं का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा, श्रमिकों का औद्योगिक इकाईयों द्वारा, छोटे उत्पादक का बड़े उत्पादक द्वारा शोषण करके ही अपने विकास की राह बनाई जाती है। आज पश्चिमी यूरोप या अमेरिका ने जो भी विकास हासिल किया है वह कुछ अन्य देशों का शोषण करते हुए ही प्राप्त किया है। ब्रिटेन यदि अपने आर्थिक विकास के लिए भारत का शोषण नहीं करता तो ब्रिटेन में औद्योगिक विकास सम्भव ही नहीं था। ब्रिटेन ने पहले भारत की औद्योगिक इकाइयों को तबाह किया एवं भारत से कच्चा माल ले जाकर ब्रिटेन में औद्योगिक इकाइयां खड़ी कर लीं और भारत में बेरोजगारी निर्मित करते हुए अपने देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित किए। इस प्रकार भारत के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करते हुए ब्रिटेन ने अपना आर्थिक विकास किया। यह पूंजीवादी मॉडल उपभोक्ता की मजबूरी का फायदा उठाकर, उसे या तो अधिक कीमत पर वस्तु बेचता है अथवा अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता की वस्तु बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाने की मानसिकता से कार्य करता है। इसी प्रकार श्रमिकों को कम पारिश्रमिक अदा कर अथवा उससे अधिक समय तक काम लेकर उसका शोषण करता है। पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत प्रत्येक इकाई के लिए समान विकास की भावना पनप ही नहीं पाती है एवं एक इकाई दूसरी इकाई का शोषण करती हुई दिखाई देती है। साथ ही इस मॉडल के अंतर्गत चूंकि समस्त इकाइयां तेजी से विकास करना चाहती हैं एवं येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक धनार्जन करना चाहती हैं इसलिए नैतिक, मानवीय एवं सामाजिक सरोकार कहीं पीछे छूट गए हैं।
केवल आर्थिक सम्पन्नता को ही विकास की निशानी मान लिया गया है, अतः विशेष रूप से विकसित देशों के नागरिकों में सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परेशानियों ने भी अपना घर बना लिया है। विकसित देशों में आज विवाह संबंधों में बढ़ती कुरीतियों के चलते पारिवारिक बिखराव की प्रक्रिया तेज हुई है। बहुत बड़ी संख्या में विवाह टूट रहे हैं एवं इनकी परिणति तलाक में हो रही है। विवाहेत्तर सम्बंध एवं विवाह पूर्व रिश्ते तथा विवाह के पूर्व ही बच्चियों का गर्भवती हो जाना तो जैसे आम बात हो गई है। कुछ विकसित देशों में तो स्कूल में बच्चों को कंडोम बांटने का निर्णय भी लिया गया था। हत्याएं, आत्महत्याएं, बलात्कार, चोरी डकैती, नशीली दवाओं का सेवन आदि जैसे अपराधों में वृद्धि दृष्टिगोचर है। कुल मिलाकर समाज में अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है। आज अमेरिकी की आधी से अधिक जनसंख्या किसी न किसी प्रकार के मानसिक रोग से पीड़ित है।
इसके ठीक विपरीत, लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक भारत आर्थिक रूप से एक समृद्धिशाली देश था और भारतीय नागरिकों को जीने के लिए चिंता नहीं थी एवं इन्हें आपस में कभी भी स्पर्धा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। देश में भरपूर मात्रा में संसाधन उपलब्ध थे, प्रकृति समस्त जीवों को भरपूर खाना उपलब्ध कराती थी अतः छल-कपट, चोरी-चकारी, शोषण, हत्याएं, आत्महत्याएं आदि जैसी समस्याएं प्राचीन भारत में दिखाई ही नहीं देती थीं। उस समय समाज में यह भी मान्यता थी कि हमारा जन्म उपभोग के लिए नहीं बल्कि तपस्या का लिए हुआ है। भारतीय दर्शन में तो न केवल मानव बल्कि पशु एवं पक्षियों के जीने की भी चिंता की जाती रही है। साथ ही, सनातन धर्म में धरा (पृथ्वी) को मां का दर्जा दिया गया है एवं ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक जीव को ईश्वर ने इस धरा पर खाने एवं तन ढंकने की व्यवस्था करते हुए भेजा है। इसलिए इस धरा से केवल उतना ही लिया जाना चाहिए जितना आवश्यक है। यह बात अर्थ पर भी लागू होती है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को उतना ही अर्थ रखना चाहिए जितने से आवश्यक कार्य पूर्ण हो सके बाकी के अर्थ को जरूरतमंदों के बीच बांट देना चाहिए, जिससे समाज में आर्थिक असमानता समूल नष्ट की जा सके। इस मूल नियम में ही बहुत गहरा अर्थ छिपा है। ईश्वर ने प्रत्येक जीव को इस धरा पर मूल रूप से आनंद के माहौल में रहने के लिए भेजा है। विभिन्न प्रकार की चिंताएं तो हमने कई प्रपंच रचते हुए स्वयं अपने लिए खड़ी की हैं। सनातन धर्म में उपभोक्तावाद निषिद्ध है। उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने से उत्पाद की मांग नियंत्रित रहती है एवं उसकी आपूर्ति लगातार बनी रहती है जिसके चलते मूल्य वृद्धि पर अंकुश बना रहता है और यदि परिस्थितियां इस प्रकार की निर्मित हों कि आपूर्ति लगातार मांग से अधिक बनी रहे तो कीमतों में कमी भी देखने में आती है। इससे आम नागरिकों की आय की क्रय शक्ति बढ़ती है एवं बचत में वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगती है।
आज केवल भारत ही “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना के साथ आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है, इसी कारण से पूरा विश्व ही आज भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है। ऐसा भी आभास होता है कि आज पूरा विश्व भारतीय परम्पराओं को अपनाने की ओर आगे बढ़ रहा है जैसे कृषि के क्षेत्र में केमिकल, उर्वरक, आदि के उपयोग को त्याग कर “ऑर्गेनिक फार्मिंग” अर्थात गाय के गोबर का अधिक से अधिक उपयोग किए जाने की चर्चाएं जोर शोर से होने लगी हैं। पहले हमारी आयुर्वेदिक दवाइयों का मजाक बनाया गया था और विकसित देशों ने तो यहां तक कहा था कि फूल, पत्ती खाने से कहीं बीमारियां ठीक होती हैं, परंतु आज पूरा विश्व ही “हर्बल मेडिसिन” एवं भारतीय आयुर्वेद की ओर आकर्षित हो रहा है। हमारे पूर्वज हमें सैकड़ों वर्षों से सिखाते रहे हैं कि पेड़ की पूजा करो, पहाड़ की पूजा करो, नदी की रक्षा करो, तब विकसित देश इसे भारतीयों की दकियानूसी सोच कहते थे। परंतु पर्यावरण को बचाने के लिए यही विकसित देश आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलनों का आयोजन कर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि पृथ्वी को यदि बचाना है तो पेड़, जंगल, पहाड़ एवं नदियों को बचाना ही होगा। इसी प्रकार कोरोना महामारी के फैलने के बाद पूरे विश्व को ही ध्यान में आया कि भारतीय योग, ध्यान, शारीरिक व्यायाम, शुद्ध सात्विक आहार एवं उचित आयुर्वेदिक उपचार के साथ इस बीमारी से बचा जा सकता है। कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे पूरा विश्व ही आज अपनी विभिन्न समस्याओं के हल हेतु भारतीय परम्पराओं को अपनाने हेतु आतुर दिख रहा है।