‘स्व’ के संघर्ष में भारतीय विज्ञान यात्रा के अल्प ज्ञात नायक

‘स्व’ के संघर्ष में भारतीय विज्ञान यात्रा के अल्प ज्ञात नायक

डॉ. नारायण लाल गुप्ता

‘स्व’ के संघर्ष में भारतीय विज्ञान यात्रा के अल्प ज्ञात नायकस्व’ के संघर्ष में भारतीय विज्ञान यात्रा के अल्प ज्ञात नायक

भारत के स्व की प्राप्ति के संघर्ष में प्राय: राजनीतिक आंदोलनों की चर्चा ही सबसे अधिक होती है, वैज्ञानिकों के योगदान की सबसे कम। भारत में अंग्रेजों का शासन मात्र आर्थिक उपनिवेशवाद तक सीमित नहीं था, बल्कि इस प्रक्रिया के केंद्र में बौद्धिक और सांस्कृतिक दासता की कालिमा घुली थी। भारत की प्रचुर प्राकृतिक संपदा के महत्व को पहचानते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना की ताकि वैज्ञानिक ढंग से भारतीय संसाधनों का उनके पक्ष में अनुकूलतम दोहन हो सके। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य का उद्देश्य मात्र धन-संपत्ति का अर्जन ही नहीं था। ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश एंपायर के संपादक रोजर लुईस ग्रंथ की भूमिका में लिखते हैं कि उनका बड़ा लक्ष्य भारतीय पहचान के स्थान पर ब्रिटिश विचार और कल्चर को प्रतिस्थापित करना था और इसका एक बड़ा हथियार विज्ञान के रूप में उनके पास था।

इन सर्वेक्षणों में स्थानीय प्रतिभाशाली भारतीयों को नौकरियां तो दीं, लेकिन उनका दर्जा द्वितीय श्रेणी का ही रखा।

दुर्भाग्य से इस बात को भारतीय विज्ञान के इतिहास के संदर्भ में बहुत अच्छी तरह से नहीं समझा गया है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद पूरी तरह नस्लवाद पर आधारित था।

जबरदस्त भेदभाव और शोषण के वातावरण में विज्ञान और उद्योग को साधन बनाकर भारत के स्वाभिमान की पुनर्स्थापना करने में सक्रिय विज्ञान जगत के लोगों के संघर्ष की यात्रा अत्यंत रोमांचक और प्रेरणादायी है। भारत के इन वैज्ञानिकों में से भी चंद नाम ही प्रकाश में आए तो कुछ अज्ञातअल्प ज्ञात ही रह गए; स्व के संघर्षयज्ञ में विज्ञान के माध्यम से आहुति देने वाले ऐसे ही कुछ वैज्ञानिकों के योगदान की चर्चा यहां है

डॉ. महेंद्र लाल सरकार, जिनके बिना शायद दुनिया रमन को ना जानती

भारतवर्ष में विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे स्व के संघर्षमय वातावरण को देखते हुए युवा वैज्ञानिकों के मन में भी इस प्रायोजित मिथक को तोड़ने की टीस थी कि भारतीय तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से सोच नहीं सकते, ना ही मौलिक शोध आदि कर सकते हैं उन्होंने उपनिवेशवादियों की इस मानसिकता के विरुद्ध विद्रोह किया तथा सीमित संसाधनों के साथ ही विज्ञान में स्व के स्थापना की अपनी महत्वाकांक्षी यात्रा को प्रारंभ किया। इन प्रयासों में अत्यधिक महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम थाडॉमहेंद्र लाल सरकार द्वारा इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस की स्थापना।

1863 में कोलकाता मेडिकल कॉलेज से एमडी डॉ. महेंद्र लाल सरकार बंगाल के एक बहुत लोकप्रिय एलोपैथिक प्रैक्टिशनर थे। वे ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की बंगाल शाखा के सचिव भी चुने गए थे। बाद के कुछ वर्षों में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कुछ बीमारियों का इलाज एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में प्रभावी ढंग से नहीं किया जा सकता, साथ ही भारत के सामान्य व्यक्ति के लिए अंग्रेजी दवाइयों का इलाज महंगा पड़ता है। उन्होंने कोलकाता के होम्योपैथिक चिकित्सक राजेंद्र लाल दत्त के साथ शोध करके पाया कि कुछ बीमारियों में होम्योपैथी अधिक सुरक्षित, प्रभावी एवं सस्ता विकल्प है। जब उन्होंने इन निष्कर्षों को ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन की बैठक में रखा, तो उन्हें जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा। अंग्रेजों के लिए होम्योपैथी की तरफदारी करना जर्मन खेमे में जाने जैसा था, जो उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। डॉसरकार को इस दुस्साहस का परिणाम झेलना पड़ा उन्हें ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के सचिव के पद से हटा दिया गया। कई जर्नल्स में उनके शोध पत्र छापने बंद कर दिए गए तथा उनकी चिकित्सकीय प्रैक्टिस पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए।

डॉ. सरकार ने हार नहीं मानी लेकिन इस घटना से उन्हें समझ में  गया था कि भारतीय शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों में विज्ञान की सच्ची भावना का विकास करने और उनकी योग्यता को एक उचित राष्ट्रीय मंच प्रदान करने के लिए अपनी स्वयं की वैज्ञानिक संस्थाएं होना जरूरी है। उनके आह्वान पर भारतीय राष्ट्रवादियों और दानदाताओं द्वारा एकत्रित 61 हजार की राशि से 15 जनवरी, 1876 को इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस’ (आईएसीएस) का श्रीगणेश हुआ संस्थान के उद्देश्यों में ब्रिटिश सरकार से स्वायत्तता तथा विज्ञान में आत्मनिर्भरता के राष्ट्रीय लक्ष्य शामिल थे।

इधर तिरुचिरापल्ली के मेधावी सीवी रमन, जिन्हें देश में वैज्ञानिक शोध के लिए कोई प्रमुख आजीविका उपलब्ध नहीं हुई, असिस्टेंट अकाउंटेंट जनरल होकर कोलकाता आए। वित्त और वाणिज्य संबंधी फाइलों की यांत्रिकता से उकताए उनके मन को अपनी रचनात्मकवैज्ञानिक ऊर्जा का उपयोग करने का अवसर तब मिला, जब उन्हें अपने निवास स्थान के पास में ही स्थित इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साइंस के परिसर में अपनी रुचि का वैज्ञानिक शोध करने का मौका मिला ऑफिस के कार्य के घंटों के अलावा बाकी संपूर्ण समय रमन आईएसीएस परिसर में सीमित संसाधनों वाली स्पेक्ट्रोस्कोपी लैब में काम करने के लिए स्वतंत्र थे। आईएसीएस के स्वतंत्र और स्वदेशी वातावरण में अंततः रमन के शोध को नोबेल पुरस्कार तक पहुंचाया। यदि महेंद्र लाल सरकार द्वारा स्थापित आईएसीएस नहीं होती तो क्या पता सीवी रमन अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा को दबाए हुए एकाउंट्स का कार्य करतेकरते ही सेवानिवृत्त हो जाते..!

माउंट एवरेस्ट या राधानाथ पर्वत कहानी कुछ और है

आज जिसे हम माउंट एवरेस्ट के नाम से जानते हैं, उसकी ऊंचाई की गणना की कहानी कुछ और ही है, जो भारत के प्रतिभाशाली गणितज्ञ राधानाथ सिकदर से जुड़ी हुई है राधानाथ सिकदर ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया में संगणक के पद पर कार्यरत थे और स्फेरिकल ट्रिग्नोमेट्री में उन्हें विशेषज्ञता हासिल थी। राधानाथ का काम भू गणितीय सर्वेक्षण करना था– आकाश और  गुरुत्वीय क्षेत्र में पृथ्वी के ज्यामितीय आकृति के अभिविन्यास का अध्ययन। उन्होंने केवल स्थापित विधियों का उपयोग किया बल्कि इन कारकों को सटीक रूप से मापने के लिए स्वयं की नई विधियों का आविष्कार किया। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी (जो उस समय पीक दत कहलाती थी) की ऊंचाई की गणना की थी

‘स्व’ के संघर्ष में भारतीय विज्ञान यात्रा के अल्प ज्ञात नायक

1851 में तत्कालीन सर्वेयर जनरल कर्नल वॉ के निर्देश पर राधानाथ ने पहाड़ों की ऊंचाई नापना शुरू किया था। प्रतिभाशाली गणितज्ञ, जिन्होंने शायद कभी पीक दत (जो बाद में माउंट एवरेस्ट कहलाया) को नहीं देखा था, ने पाया कि कंचनजंगा, जिसे दुनिया में सबसे ऊंचा माना जाता था, वास्तव में ऐसा नहीं था। पीक दत के बारे में विभिन्न अवलोकनों से डेटा संकलित करते हुए, वह अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह दुनिया में सबसे ऊंचा था। राधानाथ ने अपनी असाधारण गणितीय प्रतिभा का उपयोग करते हुए इस पर्वत चोटी (जिसे वर्तमान में माउण्ट एवरेस्ट कहा जाता है) की ऊंचाई 29 हजार फीट निकाली। कर्नल वॉ ने इस खोज को अपने नाम से प्रकाशित कराया, जिसमें बेईमानी की चरम सीमा पर जाते हुए राधानाथ को कोई क्रेडिट नहीं दिया गया

कर्नल वॉ ने अपने शोध पत्र में पीक दत का नाम अपने पूर्ववर्ती सर्वेयर जनरल जॉर्ज एवरेस्ट के नाम से माउंट एवरेस्ट रखा और दुनिया की सबसे ऊंची चोटी को मापने वाले राधानाथ सिकदर इतिहास में हाशिए पर धकेल दिए गए! हम आज भी उस चोटी को माउंट एवरेस्ट के नाम से ही पुकारते हैं। राधानाथ को और भी कई अवसरों पर नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ा। 1851 में सर्वेक्षण विभाग द्वारा एक सर्वेक्षण नियमावली (संपादककैप्टन एच.एल. थुलियर और कैप्टन एफ. स्मिथ) का प्रकाशन किया गया था।  मैनुअल की प्रस्तावना में उल्लेख किया गया कि मैनुअल के तकनीकी और गणितीय अध्याय बाबू राधानाथ सिकदर द्वारा लिखे गए थे।  यह नियमावली सर्वेक्षकों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई। हालाँकि, 1875 में प्रकाशित तीसरे संस्करण, यानी सिकदर की मृत्यु के बाद, ब्रिटिश शासकों ने भेदभावपूर्ण ढंग से उनका नाम प्रस्तावना से हटा दिया। वे जानते थे कि मृत व्यक्ति विरोध नहीं कर सकता। 

राधानाथ अपने भारतीय साथियों के स्वाभिमान और सम्मान के लिए प्रतिबद्ध थे। अंग्रेजों द्वारा सर्वेक्षण के कर्मचारियों के लिए अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करने तथा उन्हें पहाड़ी कुली कहने के विरुद्ध राधानाथ ने जोरदार विरोध प्रदर्शन किया।  हालांकि ब्रिटिश मजिस्ट्रेट वैनसिटार्ट ने उनके इस आपराधिक कृत्य पर 200 रुपये की राशि का जुर्माना लगाया पर वह समाज की नजरों में नायक थे स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद भी हम एवरेस्ट पर्वत चोटी को राधानाथ पर्वत चोटी कहने का संकल्प नहीं जुटा पाए हैं।

आत्मनिर्भर भारत के उद्घोषकप्रमथ नाथ बोस

जमशेदपुर, शायद आज वो जमशेदपुर नहीं होता, यदि प्रमथ नाथ बोस (पीएन बोस) नहीं होते। 24 फरवरी 1904 को टाटा समूह के संस्थापक जेएन टाटा को एक पत्र मिला, भारत के अत्यंत प्रतिभाशाली भू गर्भवेत्ता प्रमथ नाथ बोस का। पत्र में वे टाटा को अपनी खोज के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि मयूरभंज जिले के गोरुम हिसानी की पहाड़ियों में अच्छी गुणवत्ता के लोहे के अकूत भंडार हैं। साथ ही झरिया में कोयला भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। टाटा उन दिनों भारत में स्टील उद्योग की संभावनाओं को जर्मन भूगर्भवेत्ता रिटर श्वार्ज की रिपोर्ट के आधार पर महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में तलाश रहे थे, किंतु वहां के लौह भंडार की गुणवत्ता बहुत अधिक अच्छी नहीं पाई गई थी। पीएन बोस का पत्र मिलने के बाद दोराबजी टाटा ने एसीएम वेल्ड के नेतृत्व में एक सर्वेक्षण टीम का गठन किया, जिसने प्रमथ नाथ बोस द्वारा दी गई जानकारियों के आधार पर स्थल की जांच की प्रमथ नाथ बोस सही सिद्ध हुए इसके बाद साकची (1919 से परिवर्तित नामजमशेदपुर) में देश का पहला स्टील प्लांट लगाया गया.. जिसे हम आज टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी के नाम से जानते हैं।

12 मई, 1855 को बंगाल के एक गांव गायपुर में जन्मे प्रमथ नाथ बोस ने 1877 में लंदन में रॉयल स्कूल ऑफ माइन्स से जीवाश्म विज्ञान में सर्वाधिक अंकों के साथ स्नातक किया था। युवा प्रमथ नाथ के सामने दो विकल्प थे। वह इंग्लैंड में एक शानदार करियर की ओर आगे बढ़ सकते थे, या भारत की बेहतरी के लिए अपनी शिक्षा का उपयोग कर सकते थे। बोस ने दूसरा विकल्प चुना। इंग्लैंड में रहते हुए, उन्होंने सीखा कि औद्योगिक उत्थान ही एकमात्र तरीका था, जिससे भारत इंग्लैंड के चंगुल से बाहर निकल सकता था और यह केवल वैज्ञानिक तरीकों से ही संभव था। बोस भारत लौट आए और ज्योग्राफिकल सर्वे ऑफ इंडिया में सहायक अधीक्षक के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया। लेकिन अंग्रेजों के मन में रंगभेद भीतर तक जड़ें जमाए हुए था।

उस समय के जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रमुख एचबी मेडलिकॉट का सार्वजनिक रूप से कहना था –  प्राकृतिक विज्ञान में किसी भी तरह के मौलिक शोध के लिए भारतीय अयोग्य हैं। भारतीय प्रतिभाओं के प्रति उनकी इस भेदभावपूर्ण मानसिकता को झेलने की चरम सीमा पीएन बोस के सामने तब आई, जब 1903 में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निदेशक पद पर बोस से 10 साल जूनियर अंग्रेज टी हॉलैंड को नियुक्त कर दिया गया। स्वाभिमानी प्रमथ नाथ ने एक कम सक्षम कनिष्ठ सहयोगी की अधीनता को स्वीकार नहीं किया और अंग्रेजों द्वारा अपने साथी देशवासियों के विरुद्ध भेदभावपूर्ण नीतियों का हवाला देते हुए जीएसआई से इस्तीफा दे दिया। वह इस तथ्य से अवगत थे कि उनकी पिछली सभी भू वैज्ञानिक खोजों का उपयोग ब्रिटिशराज द्वारा किया जाएगा। जब उन्होंने स्वतंत्र रूप से मयूरभंज में लौह अयस्क के समृद्ध भंडार की खोज की तो स्टेट्समैन, द इंग्लिशमैन और माइनिंग जर्नल ऑफ लंदन आदि प्रमुख पत्रिकाओं के द्वारा उनकी इस खोज के बारे में दुनिया को बताया गया। यह समझते हुए कि उनकी खोज का लाभ विदेशी ले सकते हैं और भारत को भविष्य के लिए स्वदेशी उद्योगों के तीव्र विकास की जरूरत है, प्रमथ नाथ तुरंत इसे स्वदेशी उद्योगपति जमशेदजी टाटा के ध्यान में लाए और यह भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का एक पन्ना बन गया।

बोस ने भारत के प्रारंभिक स्वदेशी औद्योगिकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने पहली बार आसाम में पेट्रोलियम की खोज की। भारत और म्यांमार में कई खनिजों और कोयला भंडारों का उन्होंने पता लगाया। भारत में पहली स्वदेशी साबुन की फैक्ट्री लगाई। उन्होंने भारतीयों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए नेशनल बंगाल इंस्टिट्यूट, जिसे आज जादवपुर यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है, की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रमथ नाथ बोस स्वदेशी आंदोलन में अत्यंत सक्रिय रहे। उन्होंने भारत के इतिहास और स्वतंत्रता आंदोलन पर गंभीर शोधपरक लेखन भी किया, जिनमें तीन खंडों में लिखी गई ग्रंथ माला हिस्ट्री ऑफ हिंदू सिविलाइजेशन ड्यूरिंग ब्रिटिश रूल उल्लेखनीय है।

रॉस को नोबेल पुरस्कार लेकिन किशोरी मोहन अनिर्दिष्ट रहे

सत्य को बहुत लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता। प्रायः वह अप्रत्याशित दिशाओं से भी प्रकट हो जाता है। ऐसे ही एक सच को प्रकट करते हुए 2013 में साइंस एंड कल्चर पत्रिका के 22वें वॉल्यूम के पहले अंक में प्रकाशित पत्र ढहश ऋश्रूळपस र्झीलश्रळल कशरश्रींह ढेेश्र: ॠशपशींळलरश्रश्रू चेवळषळशव र्चेीिींळीेंशी रपवचरश्ररीळर उेपीीेंश्र  में डॉ. बीज़ल और डॉ. बोएटे लिखते हैं

….भले ही रॉस मलेरिया के संबंध में एक मात्र नोबेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता थे, किंतु वे ही अकेले नहीं थे, जिन्होंने यह परिकल्पना की थी कि मलेरिया का संचरण मच्छर द्वारा होता है उनके भारतीय शोध सहायक किशोरी मोहन बंधोपाध्याय के शोध कार्य के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। किंतु उन्हें रॉस के साथ पुरस्कार प्राप्त करने के योग्य नहीं माना गया, इसके पीछे औपनिवेशिक कारण थे।

औपनिवेशिक शासन के दौरान ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त करने के लिए भारतीय प्रतिभाओं का सहयोग तो लिया लेकिन उन्हें उनका न्यायोचित श्रेय नहीं दिया गया रोनाल्ड रॉस मलेरिया परजीवी की खोज के लिए 1902 में नोबेल पुरस्कार के एकमात्र प्राप्तकर्ता थे रॉस ने अपना संपूर्ण शोध कार्य भारत में ही किया था। इस शोध कार्य में उनके प्रमुख सहयोगी थे– किशोरी मोहन बंधोपाध्याय। लेकिन उन्होंने ना तो अपने शोध पत्र में और ना ही अपने नोबेल भाषण में अपने प्रतिभाशाली भारतीय शोध सहायक किशोरी मोहन के वैज्ञानिक योगदान का कोई उल्लेख किया।

किशोरी मोहन के योगदान को सम्मान दिलाने के लिए जगदीशचंद्र बसु, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, प्रफुल्ल चंद्र राय, उपेंद्रनाथ ब्रह्मचारी, बृजेंद्र नाथ सील, शिवनाथ शास्त्री आदि राष्ट्रवादियों ने संघर्ष किया जिसके फलस्वरूप 1903 में दिल्ली दरबार के दौरान ड्यूक ऑफ़ कनॉट ने किशोरी मोहन को किंग एडवर्ड गोल्ड मेडल से सम्मानित किया भारतीय वैज्ञानिकों और स्वतंत्रता सेनानियों ने कोलकाता में उनके कार्य की महत्ता को दर्शाने के लिए एक बड़ा समारोह भी आयोजित किया हालांकि देशवासियों ने उनके कार्य का सम्मान किया,,लेकिन रॉस ने 1923 में छपे संस्मरण ग्रंथ में, जिसमें मलेरिया के संबंध में स्वयं के शोध का विस्तृत ब्योरा था, किशोरी मोहन के नाम का जिक्र तक नहीं किया। किशोरी मोहन स्वाभिमानी भारतीय थे, 1927 में जब प्रेसिडेंसी जनरल हॉस्पिटल में रोनाल्ड रॉस का आना हुआ, तो किशोरी मोहन ने उनसे मिलने के लिए साफ मना कर दिया।

बाद का जीवन किशोरी मोहन ने समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने बंगाल के गांवों में मलेरिया उन्मूलन के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक अभियान चलाए बंगाल में काम कर रहे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ जुड़कर उन्होंने स्थानीय लोगों में स्व’ की चेतना जगाने में उल्लेखनीय योगदान दिया।  मलेरिया उन्मूलन और स्वतंत्रता आंदोलन में बंगाल के विभिन्न स्थानों के भ्रमण के दौरान हुए शोषण के अनुभवों के आधार पर उन्होंने गरीब और निम्नमध्यम वर्ग के लोगों की वित्तीय सहायता के लिए, अपनी लगभग संपूर्ण संपत्ति बेचकर पनिहारी को-ऑपरेटिव बैंक की स्थापना की। यह बैंक आज भी कार्यशील है। पनिहारी नगरपालिका द्वारा उनके सम्मान में एक सड़क का नामकरण किशोरी मोहन बनर्जी रोड किया गया है

भारत के टेलीग्राफ मैन  शिव चंद्र नंदी

इतिहास में 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष की असफलता के कई कारण हम पढ़ते हैं, लेकिन इसके एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण टेलीग्राफ की ओर इतिहासकारों ने समुचित ध्यान नहीं दिया। यदि संघर्ष में इसके महत्व को भारतीय पक्ष द्वारा समझा जाता तो शायद ब्रिटिश राज 1947 से 90 वर्ष पूर्व ही समाप्त हो जाता। 14 जुलाई, 2013 को टेलीग्राफ सेवाएं भारत में आधिकारिक रूप से समाप्त कर दी गईं। दुर्भाग्य से भारत में प्रारंभिक टेलीग्राफ सेवाओं का संपूर्ण श्रेय ब्रिटिश शासन को दिया जाता है, किंतु इस ढांचे को विकसित करने में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देने वाले प्रतिभाशाली भारतीय तकनीशियन शिव चंद्र नंदी का नाम इतिहास से प्रायः लुप्त ही मिलता है।

भारत में टेलीग्राफ की कहानी प्रारंभ होती है 1849 में; जब भारत के गवर्नर जनरल, जेम्स एंड्रू ब्राउन रामसे, जिन्हें प्राय: लॉर्ड डलहौजी के नाम से जाना जाता है,  कोलकाता में कार्यरत आइरिश चिकित्सक एवं केमिकल इंजीनियर विलियम ब्रुक ओशॉघनेसी को राजनीतिक और प्रशासनिक प्रबंधन की दृष्टि से अत्यंत महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट सौंपते हैंभारत में इलेक्ट्रिकल टेलीग्राफ लाइंस की स्थापना का। ओशॉघनेसी इस कार्य के लिए कोलकाता मिंट के प्रतिभाशाली एवं जिम्मेदार भारतीय शिव चंद्र नंदी को अपने सहयोगी के रूप में चुनते हैं और यह आइरिशभारतीय जोड़ी 1850 में अलीपुर से डायमंड हार्बर तक 27 मील लंबी पहली टेलीग्राफ लाइन के दोनों छोरों पर संदेशों का सफलतापूर्वक आदानप्रदान करती है।

इस सफलता से उत्साहित इस जोड़ी में से शिव चंद्र संपूर्ण भारत में टेलीग्राफ सेवा की स्थापना के लिए कंपनी के डायरेक्टर्स के समक्ष कोलकाता, आगरा, मुंबई, पेशावर, मद्रास, ढाका आदि को जोड़ने वाली 5 हजार किलोमीटर टेलीग्राफ लाइन का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। शिव चंद्र के आत्मविश्वासपूर्ण और तार्किक प्रेजेंटेशन से प्रभावित होकर कंपनी द्वारा एक बड़ी राशि स्वीकृत की जाती है, और भारत में तीव्र संचार की इस नई विधा को स्थापित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।

1856 तक ब्रिटिश भारत मेंहजार किलोमीटर टेलीग्राफ लाइन और 46 टेलीग्राफ ऑफिस स्थापित हो चुके होते हैं और वह भी प्रति मील लाइन पर होने वाले यूरोपीय व्यय से लगभग आधे पर। शिव चंद्र के निर्देशन में संपन्न इस कार्य में उस समय यह खर्च 550 रुपये प्रति मील आया था। शिव चंद्र की कार्य पद्धति बहुत रचनात्मक और आर्थिकवैज्ञानिक दृष्टि से अनुकूलतम थी। ओवरहेड टेलीग्राफ लाइंस का कार्य पूर्ण होने के पश्चात पद्मा नदी में पानी के नीचे विद्युत केबल्स की स्थापना की चुनौती थी। स्टीमर कंपनियां सीमा से अधिक पैसे मांग रही थीं। नंदी ने मछली पकड़ने वाली नावों का उपयोग करके बेहतर ढंग से काम संपन्न किया। उन्होंने ही पहली बार ताड़ के पेड़ों को टेलीग्राफ पोस्ट के रूप में उपयोग करने की डिजाइन प्रस्तुत की, जिसे बाद में टेलीग्राफ मैनुअल में भी शामिल किया गया। 1857 की क्रांति के समय भारतीय सेनानियों के पास संचार का इतना तेज और प्रभावी माध्यम नहीं था, जबकि मात्र कुछ समय पूर्व स्थापित टेलीग्राफ लाइन्स से ब्रिटिश पक्ष संग्राम से संबंधित सारी जानकारी को तुरंत और बेहतर ढंग से साझा कर पा रहा था और उसके अनुसार अपनी रणनीति बना अथवा बदल रहा था। परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में आना ही था।

टेलीग्राफ लाइन की स्थापना के लिए विलियम ब्रुक ओशॉघनेसी को रानी विक्टोरिया द्वारा नाइटहुड से सम्मानित किया गया तथा उन्हें टेलीग्राफ विभाग का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया, एक अन्य अंग्रेज को सुपरिंटेंडेंट बनाया गया, लेकिन रंगभेद और औपनिवेशिक मानसिकता के चलते प्रतिभाशाली भारतीय इंजीनियर को मात्र असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट तक ही पदोन्नत किया गया। बाद में जो कुछ लिखा और किया गया उसमें नंदी का नाम अंधेरे में खो गया और इतिहास के पन्नों में भारतीय टेलीग्राफ तंत्र पर ब्रिटिश सर्वोच्चता का ठप्पा लगा दिया गया।

(लेखक .भा.राष्ट्रीय शैक्षिक महासं  के अतिरिक्त महामंत्री हैं)

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