भारत अनेक नहीं, एक राष्ट्र है
बलबीर पुंज
क्या भारत एक राष्ट्र है? कई पाठकों को यह प्रश्न विवेकहीन और अनुचित लग रहा होगा। परंतु पिछले कई दिनों के घटनाक्रम में यह प्रश्न प्रासंगिक हो जाता है। हाल ही में जब निर्माणाधीन नए संसद भवन में राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह अशोक स्तंभ का विधिवत पूजा-अर्चना और वैदिक मंत्रोचार के साथ अनावरण हुआ, तब समाज के एक वर्ग ने कलुषित विमर्श बना दिया, जिसका एक काला इतिहास है। स्वतंत्र भारत में 50 वर्षों तक प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कांग्रेस दल सत्तारुढ़ रहा है, जिसके शीर्ष नेता राहुल गांधी का वह हालिया विचार पाठकों को स्मरण होगा, जिसमें वह “भारत को राष्ट्र नहीं, बल्कि राज्यों का संघ” मानते दिख रहे हैं। वास्तव में, यह चिंतन विदेशी और नास्तिक वामपंथी विचारधारा का प्रतिबिंब है, जिसमें वह भारत को अपने उद्भवकाल से भाषाई-सांस्कृतिक आधार पर बहु-राष्ट्रीय राज्यों का समूह मानता आया है, साथ ही वामपंथ यहां की आधारभूत हिंदू परंपराओं और उसकी समस्त ब्रह्मांड को जोड़ने वाली संस्कृति से घृणा करता है। इस दर्शन से कांग्रेस भी वर्ष 1969-71 से अभिशप्त है। यहीं से भारत के मूल विमर्श के ह्रास ने गति पकड़ी।
निर्विवाद रूप से भारत विविधताओं से भरा और बहुलतावाद से ओतप्रोत राष्ट्र है, जिसे इसकी प्रेरणा अनादिकाल से यहां की सनातन संस्कृति और कालजयी परंपरा से मिल रही है। युगों-युगों से हमारा देश ‘धर्म’-प्रधान रहा है। यहां धर्म का अर्थ न ‘मजहब’ से है और न ही ‘रिलीजन’ से। भारतीय संस्कृति में ‘धर्म’ अति व्यापक और उदार है। इसका आलोक ‘सहिष्णु’ या ‘सहनशील’ नहीं, अपितु वह विशाल मनोभाव है, जहां मतभिन्नता को स्वीकार्यता मिलती है। भगवान गौतमबुद्ध और सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानकदेव साहिब- इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी समरस दर्शन को एकेश्वरवादी मजहबी चिंतन और अनिश्वरवादी वामपंथी दर्शन के भारत आगमन के पश्चात चुनौती मिलने लगी और वह ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर प्रभावशाली होती गई।
भले ही भारत में भाषाई, क्षेत्रीय, सांस्कृतिक विविधता हो या मान्यताओं में भिन्नता हो, किंतु राष्ट्रीयता तो एक है। जून 1674 में महाराष्ट्र स्थित रायगढ़ किले में जब छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था, तब उनका जलाभिषेक पवित्र काशी के प्रकांड पंडित गागाभट्ट ने देश के अलग-अलग कोनों में बहने वाली सात नदियों- गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी और सिंधु के पानी से वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ किया था। यह भारत की भावनात्मक एकता को प्रतिपादित करता है। सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल और 1857 की क्रांति तक यह राष्ट्रीयता और भावनात्मक एकता अक्षुण्ण थी, जिसे कालांतर में पहले ब्रितानियों ने थॉमस बैबिंगटन मैकॉले, सर सैयद अहमद खां और मैक्स आर्थर मैकॉलीफ आदि के संयोजन से अपने औपनिवेशिक हितों के लिए विकृत किया, तो फिर उनके असंख्य मानसपुत्रों ने वामपंथियों के सहयोग से संकीर्ण ‘सेकुलरवादी’ चश्मा पहनकर इस विमर्श आगे बढ़ाया। यह दुर्भाग्य है कि इस नैरेटिव को कई स्वघोषित गांधीवादियों का समर्थन भी प्राप्त है। यह स्थिति तब है, जब स्वयं गांधीजी ने 1909 में ‘हिंद-स्वराज्य’ में एक स्थान पर लिखा था, “..दो अंग्रेज जितने एक नहीं, उतने हम भारतीय एक थे और एक हैं… विदेशियों के दाखिल होने से राष्ट्र खत्म नहीं जाते…।”
भारत सहस्राब्दियों से सांस्कृतिक रूप से राष्ट्र रहा है। 500-600 वर्षों से पहले तक राज्यों को एक-दूसरे से संपर्क और तारतम्य स्थापित करने में भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यही कारण था कि तब पर्याप्त यातायात और संचार व्यवस्था नहीं होने पर केंद्रीय रूप से राज्यों को नियंत्रित करना दुस्साध्य था, इसलिए राज्यों का बनना-बिगड़ना स्वाभाविक था। किंतु सबके लिए भारत, भावनात्मक रूप से और लोकमानस के चिंतन में सदैव एक राष्ट्र ही रहा। इस पृष्ठभूमि में भारत की सांस्कृतिक एकता और उसके राष्ट्र होने पर प्रश्न खड़ा करने वाले फ्रांस, जर्मनी और इटली के बारे में क्या कहेंगे?
फ्रांस की आधिकारिक भाषा फ्रेंच है, किंतु वहां अब भी 75 अन्य क्षेत्रीय भाषाएं बोली जाती हैं। जो लोग भाषाई आधार पर भारत को अलग-अलग ‘राष्ट्र’ के रूप में देखते हैं, क्या वे इस आधार पर वर्तमान फ्रांस को 75 देशों का समूह बताएंगे? मध्य यूरोप के 39 राज्यों को मिलाकर 18 जनवरी 1871 को जर्मनी का एकीकरण किया गया था। 19वीं सदी में एक राजनैतिक और सामाजिक अभियान ने विभिन्न राज्यों को संगठित करके 1870-71 में इटली का एकीकरण किया था। यह सब संचार-परिवहन क्रांति के बिना असंभव था। इन यूरोपीय देशों की राजनीति भी विविध है, किंतु ‘राष्ट्रीयता’ पर और अपनी ‘पहचान’ को लेकर सभी एकमत है।
साम्रज्यवादी चीन की क्या स्थिति है? वहां पांच प्रमुख, तो 20 से अधिक छोटे मजहब हैं। इसके साथ ही चीन में 13 से अधिक अस्पष्ट भाषाएं बोली जाती हैं। क्या चीन में मैंडेरिन भाषा का अन्य भाषाओं के साथ वैसा टकराव दिखता है, जैसा अक्सर भारत में हिंदी-संस्कृत का तमिल, कन्नड़ आदि भाषाओं को लेकर बनाया जाता है? वर्ष 1948-49 से चीन ने राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने हेतु देश की अन्य पहचानों के साथ ‘राष्ट्रीयता’ और ‘राष्ट्रीय पहचान’ को सुदृढ़ करने का काम किया है। यह बात अलग है कि उसके लिए चीन ने अपने राजनीतिक-वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप, मजहबी अलगाववाद और आतंकवाद की संभावनाओं को कुचलने के लिए अमानवीय आचरण और हिंसा को अपनाया है। तिब्बत में बौद्ध भिक्षुओं, तो शिन्जियांग में मुसलमानों का सांस्कृतिक संहार- इसका प्रमाण है। क्या भारत रूपी सभी लोकतांत्रिक और बहुलतावादी व्यवस्थाओं में इस व्यवहार का कोई स्थान है?
उपरोक्त पृष्ठभूमि में समस्त भारतीयों को राष्ट्रीयता के एकसूत्र में पिरोने के बजाय ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर मजहबी, जातीय और क्षेत्रीय भिन्नता पर बल दिया जा रहा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है, ताकि भारतीय समाज में राष्ट्रीयता, समरसता, एकता, आपसी-सामंजस्य, सह-अस्तित्व की भावना क्षीण हो जाए और इसका लाभ इंजीलवादियों और जिहादियों को मिले। मई 2014 से मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्रों को विशुद्ध बहुलतावादी व्यवस्था से चुनौती मिल रही है, जिसकी बौखलाहट देश भीमा-कोरेगांव हिंसा से लेकर, सीएए-एनआरसी विरोध, तथाकथित किसान आंदोलन, हिजाब प्रकरण, नूपुर शर्मा प्रकरण आदि में देख रहा है।