भारत में हिंदू हो रहे हैं अल्पसंख्यक
रामस्वरूप अग्रवाल
भारत में हिंदू हो रहे हैं अल्पसंख्यक
भारत के कई राज्यों में हिंदू जनसंख्या तेजी से घटी है। कुछ में तो हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। इन राज्यों में मुसलमान व ईसाई बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यकों के अधिकार व सुविधाएं ले रहे हैं।
भारत की सबसे बड़ी अदालत-सर्वोच्च न्यायालय में बीते 28 मार्च को केन्द्र सरकार ने कहा है कि राज्य सरकारें चाहें तो हिंदुओं को अपने राज्य में ‘अल्पसंख्यक’ घोषित कर सकती हैं, यदि उस राज्य में हिंदू समुदाय बहुसंख्या में नहीं रह गया है।
तो क्या अपने ही देश में हिंदू अब अल्पसंख्यक बनता जा रहा है? जी हाँ, वर्तमान में 6 राज्यों एवं दो केन्द्र शासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गया है।
चिंताजनक है स्थिति
मिजोरम राज्य में हिंदू मात्र 2.75 प्रतिशत, नागालैंड में मात्र 8.75 प्रतिशत और मेघालय में मात्र 11.53 प्रतिशत रह गए हैं। जबकि इन राज्यों में 1941 तक हिंदुओं की जनसंख्या 99 प्रतिशत या इससे अधिक थी। अरुणाचल प्रदेश में आज हिंदुओं की जनसंख्या मात्र 29 प्रतिशत, मणिपुर में 31.39 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में मात्र 28.44 प्रतिशत तथा लक्षद्वीप में मात्र 2.5 प्रतिशत रह गई है। जबकि इन सभी राज्यों में हिंदू कभी न कभी बहुसंख्यक रहा है। हिंदू अपने ही देश के इतने बड़े भू-भाग में आज अल्पसंख्यक हो गया है- यह चिंता का विषय होना चाहिए।
परन्तु यहां प्रश्न दूसरा उभर रहा है। भारत में सामान्यत: मुसलमान एवं ईसाइयों को अल्पसंख्यक मान कर उन्हें विशेष सुविधाएं एवं लाभ दिया जाता रहा है।
अल्पसंख्यकों के अधिकार एवं लाभ
संविधान के अनुच्छेद 29 व 30 को मिलाकर अर्थ निकाला जाए तो ‘धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि एवं संस्कृति का संरक्षण करने के लिए अपनी रुचि एवं पसंद की शैक्षणिक संस्थाओं (यथा स्कूल, कॉलेज, मेडिकल, इंजिनियरिंग कॉलेज आदि) की स्थापना करने एवं अपने तरीके से प्रशासन करने का अधिकार दिया गया है।’ यह अधिकार बहुसंख्यक हिंदू समाज को नहीं दिया गया है। भारत में अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याण हेतु केन्द्र तथा राज्य स्तर पर विशेष योजनाएँ, सुविधाएं एवं लाभ देने की व्यवस्था रहती है। इसके लिए प्रतिवर्ष कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। अल्पसंख्यकों को बहुत कम ब्याज पर ॠण, छात्रवृत्तियाँ, सरकारी सेवाओं में चयन हेतु प्रशिक्षण, निःशुल्क कोचिंग, कौशल-विकास, छात्रावास आदि कई प्रकार के लाभ एवं सहायता दी जाती है। केन्द्र द्वारा अल्पसंख्यक कल्याण के लिए राज्य सरकारों को करोड़ों रुपयों की राशि का आवंटन किया जाता है। सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थाओं में अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों को प्रवेश में प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली की प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्था ‘जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय’ को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिला होने के कारण लगभग 50 प्रतिशत सीटों पर मुस्लिम समाज के बच्चों को प्रवेश दिया जाता है। वहां पर जाति आधारित आरक्षण लागू नहीं होता। 2014 से अब तक अल्पसंख्यक समुदाय के लगभग 5 करोड़ विद्यार्थियों को केन्द्र सरकार द्वारा छात्रवृत्ति दी जा चुकी है।
अल्पसंख्यक परिभाषित नहीं
संविधान में कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि अल्पसंख्यक किसे माना जाए। केन्द्र सरकार ने 1993 में ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग’ बनाकर उसकी धारा 2(सी) के अंतर्गत देश के 5 धार्मिक समुदायों-मुसलमान, ईसाई, पारसी, सिख एवं बौद्ध को अल्पसंख्यक घोषित कर दिया। सन् 2004 में इस सूची में जैन समुदाय को भी जोड़ा गया।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
परन्तु 2002 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘टीएमए पाई फाउंडेशन’ के वाद में 11 जजों की पीठ ने निर्णय दिया कि संविधान में अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकारों (अनुच्छेद 30) के संदर्भ में किसे अल्पसंख्यक घोषित किया जाए इसका निर्णय केन्द्रीय स्तर पर नहीं किया जाकर राज्यों के स्तर पर वहां की जनसंख्या को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अंतिम माना जाता है। परन्तु न तो केन्द्र ने अल्पसंख्यकों के संबंध में अपनी घोषणा वापस ली और न ही किसी राज्य ने अपने स्तर पर यह घोषणा की कि उस राज्य में अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाएं एवं लाभ किन समुदायों को मिलेंगे। परिणामतः देश के 8 राज्यों में मुसलमान व ईसाई बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यकों के अधिकार व सुविधाएं ले रहे हैं।
जनहित याचिका
दिल्ली के एक वकील अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में कुछ समय पूर्व एक जनहित याचिका प्रस्तुत कर कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व निर्णय को देखते हुए केन्द्र सरकार द्वारा 1993 में घोषित ‘अल्पसंख्यक समुदाय’ की सूची रद्द कर दी जाए और राज्यों को निर्देश दिया जाए कि वे अपने राज्य की जनसंख्या के अनुसार राज्य स्तर पर ‘अल्पसंख्यक समुदायों’ की घोषणा करें।
वर्तमान स्थिति
आज स्थिति यह है कि मिजोरम, मेघालय और नागालैंड में ईसाइयों की जनसंख्या 85 प्रतिशत या अधिक होते हुए भी वे वहां अल्पसंख्यकों के लिए घोषित सारी सुविधाओं, लाभ एवं अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं जबकि ये अधिकार व लाभ वहां के अल्पसंख्यक हिन्दुओं को मिलने चाहिए। जम्मू-कश्मीर एवं लक्षद्वीप में मुसलमान बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यकों को दिए जाने वाले लाभ ले रहे हैं जबकि वहां भी इसके हकदार हिंदू हैं।
यह कैसी स्वाधीनता?
प्रश्न स्वाभाविक रूप से लोगों के मन-मस्तिष्क में आता है कि तत्कालीन कांग्रेसी नेतृत्व ने भारत की कैसी स्वाधीनता स्वीकार कर ली? मुस्लिम नेतृत्व की मांग पर देश का विभाजन स्वीकार कर लेने के बाद जो भू-भाग भारत के नाम पर बच गया उसे ‘हिंदू-राष्ट्र’ घोषित नहीं किया। यहाँ तक कि जो मातृभूमि के टुकड़े करने के जिम्मेवार थे, उन्हीं को स्वाधीन भारत में विशेषाधिकार और विशेष सुविधाएं अल्पसंख्यक के नाम पर दी जाने लगीं और निरंतर दी जा रही हैं। अब जबकि हिंदू आठ राज्यों में अल्पसंख्यक हो गया है तो भी वे विशेष अधिकार एवं सुविधाएं उसे न देकर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों व ईसाइयों को ही दी जा रही हैं।
जिला आधारित अल्पसंख्यक दर्जे के पक्ष में है असम
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा जिलेवार जनगणना कराने के पक्ष में हैं। उन्होंने कहा कि यद्यपि असम में राज्य आधार पर हिंदू बहुसंख्यक समुदाय है, परन्तु असम के 9 जिलों में मुसलमान बहुसंख्यक समुदाय हो गया है, तब इन जिलों में उन्हें विशेष अधिकार और सुविधाएं क्यों? मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य सरकार राष्ट्रीय आधार पर अल्पसंख्यकों की घोषणा करने के नियम के बजाए जिलेवार धार्मिक समूहों को अल्पसंख्यक दर्जा देने के पक्ष में हैं।
मु. मंत्री बिस्वा सरमा ने बीती 30 मार्च को विधानसभा में बताया कि असम के चाय बागान के लोग अल्पसंख्यक श्रेणी में नहीं आते। उनके पास ओबीसी प्रमाण पत्र हैं फिर भी वे ईसाई के रूप में अल्पसंख्यक लाभ प्राप्त कर रहे हैं। बता दें कि 1951 में असम में 24.68 प्रतिशत मुस्लिम थे जो 2011 की जनगणना के समय बढ़कर 34.2 प्रतिशत हो गए हैं।