डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में भीम-मीम एकता की सच्चाई व इस्लाम सम्बन्धी उनके विचार
डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में भीम-मीम एकता की सच्चाई व इस्लाम सम्बन्धी उनके विचार
आजकल एक नया प्रचलन चला है। अनुसूचित जाति के कुछ लोग अपने आपको मुसलमानों से जोड़ कर यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे हिन्दुओं से अधिक मुसलमानों के निकट हैं। जमीनी सच्चाई एवं एतिहासिक तथ्यों को सरेआम ठेंगा दिखाना इसी को कहते हैं। भारतवर्ष का इतिहास उठा कर देख लीजिये, बौद्ध विहारों को तहस-नहस करने वाले कौन थे? जातिवाद निश्चित रूप से अभिशाप था, लेकिन यदि कुछ हिन्दुओं ने जातिवाद के रूप में अत्याचार किए, तो मुसलमान भी पीछे नहीं थे। जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाले डॉ. अम्बेडकर मुसलमानों के अत्याचार से भली-भांति परिचित थे। अपने अनुभवों और विचारों को डॉ. अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” में संकलित किया था। उनके विचारों को पढ़कर भी जय भीम जय मीम का नारा लगाने वाले अनुसूचित समाज के सदस्य सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे तो इसे बेईमानी कहा जाएगा।
पढ़िए इस्लाम के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेडकर के विचार —
हिन्दू काफिर सम्मान के योग्य नहीं- मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है। उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासन हो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी स्थिति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे। (पृ. 304)
मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए- इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है। यह मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से भ्रातृभाव ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस मजहबी विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा हैं।
एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन है, वहीं उसका अपना विश्वास है। दूसरे शब्दों में, इस्लाम सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की आज्ञा नहीं देता। सम्भवतः यही कारण था कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।
एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल- लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और अन्य मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि अन्य मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारणा है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर गैर साम्प्रदायिक मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि गैर साम्प्रदायिक मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपि कांग्रेस और गैर साम्प्रदायिक मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ। (पृ. 414-415)
भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए- मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। यह इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी। (पृ. 49)
मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी- तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है। (पृ. 267)
हत्यारे मजहबी शहीद- महत्व की बात यह है कि मजहबी मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने ये कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके विपरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण। (पृ. 147-148)
हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां- आध्यात्मिक दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं, जैसे प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं। (पृ. 185)
इस्लाम और जाति प्रथा- जाति प्रथा को लीजिए। इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब कानूनन यह समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था।
सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-
”….गुलाम या दास प्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया….. किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दे…..”
”गुलामी भले ही विदा हो गई हो, परंतु जाति तो मुसलमानों में भी विद्यमान है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है।
1901 के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :
”मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस प्रांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुख्य सामाजिक विभाग मानते हैं-1. अशरफ अथवा शरु और 2. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और अज़लफ अर्थात् नीचा। अजलफ मुसलमानों को निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, या ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरज़ल’ भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।
इन वर्गों में भी सामाजिक वरीयता और जातियां हैं।
1. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।
2. ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान
(i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात् पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।
( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।
(iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।
(iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।
3. ‘अरजल’ अथवा निकृष्ट वर्ग
भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।
जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। वह है ‘पंचायत प्रणाली’ का प्रचलन।
वह बताते हैं :
”पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और……..अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकाय कार्यवाही करता है। अंतरजातीय-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है।
उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात् घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता। यदि ले भी ले तो भी उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह नया धंधा अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था….. हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।”
इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के लिए ये उदाहरण पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।” (पृ. 221-223)
इस्लामी कानून समाज-सुधार के विरोधी- मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखद है। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराइयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराइयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराइयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह अनुभव ही नहीं करते कि ये बुराइयां हैं।
परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी वर्तमान प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में 1930 में प्रस्तुत किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना उनके मजहबी ग्रंथ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा।
उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके विरुद्ध सविनय अवज्ञा अभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छेड़ा गया वह अभियान सफल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने विरोधी हैं।” (पृ. 226)
मुस्लिम राजनीतिज्ञों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध- मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उनके लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से न्याय पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के विरुद्ध श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के विरुद्ध गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह अनुभव करते हैं कि यदि वे जमींदारों के विरुद्ध अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के विरुद्ध भी संघर्ष करना पड़ सकता है।
मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के विरुद्ध श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावनाओं को आघात पहुंचाएगा। वे इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।” (पृ. 229-230)
मुस्लिम कानूनों के अनुसार भारत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान धरती नहीं हो सकती- इस्लाम के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सों में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। इसलिए इस्लाम के अनुसार भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की धरती नहीं हो सकती है।
यह मुसलमानों की धरती हो सकती है, किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनों समानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत है, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाता है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है।” (पृ. 296-297)
दार-उल-हर्ब भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने के लिए जिहाद- यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं है। मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके अंतर्गत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने के कारण सारे देश या तो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं।
तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हर्ब को दार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसे भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।”
”तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की सहायता भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।” (पृ. 297-298)
हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही?
”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुख्य कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं है, इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, मजहबी, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं, जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करती चली जाती हैं। दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं, दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया है, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।” (पृ. 336)
हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य- हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शब्दावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गांधी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।” (पृ. 178)
साम्प्रदायिक शान्ति के लिए अलपसंख्यकों की अदला-बदली ही एकमात्र हल- यह बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका अल्पसंखयकों की अदला-बदली ही है। यदि यही बात है तो फिर वह व्यर्थ होगा कि हिन्दू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं। यदि यूनान, तुर्की और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते। फिर यहाँ तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवश्यकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है। इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के लिए एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यन्त उपहासास्पद होगा। (पृ. 101)
विभाजन के बाद भी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की समस्या बनी ही रहेगी- यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि पाकिस्तान बनने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक समस्या से मुक्त नहीं हो जाएगा। सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता है, परन्तु हिन्दुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा। मुसलमान समूचे हिन्दुस्तान में छितरे हुए हैं। यद्यपि वे मुख्यतः शहरों और कस्बों में केंद्रित हैं। चाहे किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए, उसे सजातीय देश नहीं बनाया जा सकता। हिन्दुस्तान को सजातीय देश बनाने का एकमात्र तरीका है, जनसंख्या की अदला-बदली की व्यवस्था करना। यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा, हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी।” (पृ. 103)
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय- अब मैं अल्पसंख्यकों की उस समस्या की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरान्त भी पाकिस्तान में बनी रहेंगी। उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं। सबसे पहले, अल्पसंख्यकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं। भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है।” (पृ. 385)
अल्पसंख्यकों की अदला-बदली-एक संभावित हल- दूसरा तरीका है पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में उनका स्थानान्तरण करने की स्थिति पैदा करना। अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती है और वह पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए तैयार और इच्छुक हो जाएगी, यदि यह प्रदर्शित किया जा सके कि जनसंख्या का आदान-प्रदान सम्भव है। परन्तु इसे वे होश उड़ा देने वाली और दुरूह समस्या समझते हैं। निस्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशानी है। यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण एंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह समस्या न तो होश उड़ाने वाली है, और न दुरूह।” (पृ. 385)
(सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, खंड 15-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, 2000 से लिए गए हैं)
(साभार)