मक्का में पैगम्बर मुहम्मद की विनाश-लीला
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-16)
गुंजन अग्रवाल
विद्वानों का मत है कि बुत् (मूर्ति) शब्द ‘बुद्ध’ से व्युत्पन्न है। बौद्धकाल में जब बुद्ध को भी विष्णु का अवतार माना गया, तो मक्का में अन्य वैदिक देवों में बुद्ध भी सम्मिलित किए गए थे। उन्हीं को बुद्ध-बुद्ध कहते-कहते ‘बुत्’ उच्चारण हो गया और किसी भी मूर्ति पर लागू किया जाने लगा। बुद्ध की जो प्रशस्ति (गुणगान) होती थी, उसी से ‘बुतपरस्ती’— यह इस्लामी शब्द बन गया।
किन्तु, मक्कावासियों ने उनके मूर्तिभंजन का प्रतिकार किया और परिणामस्वरूप 16, जुलाई, 622 ई. को मुहम्मद साहब को अपने अनुयायियों के साथ मक्का से 320 किमी. उत्तर की ओर ‘यथरिब’ (Yathrib) पलायन करना पड़ा। मुसलमान इस घटना को ‘हिज़्र’ (Hijra) कहते हैं और इसी समय से ‘इस्लाम’ मज़हब और इस्लामी कैलेण्डर ‘हिज़री’ (Hijri) आरम्भ होता है। यथरिब में मुहम्मद साहब का स्वागत हुआ और कई संभ्रांत लोगों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। ये लोग ‘मुसलमान’ कहे जाने लगे। मुहम्मद ने अपने को शासक घोषित किया और यथरिब का नाम बदलकर ‘मदीनात् उन्-नबी’ (Madinat un-Nabi or City of the Prophet) (पैग़ंबर का नगर) कर दिया। बाद में ‘उन्-नबी’ का लोप हो गया और केवल ‘मदीना’ (Madinah) रह गया। मदीने में आठ वर्ष (622-630 ई.) रहकर मुहम्मद साहब ने लगभग दस हज़ार अनुयायी संगठित कर लिए तब 01 जनवरी, 630ई. को उन्होंने मक्का पर चढ़ाई की। चढ़ाई से पूर्व उन्होंने महादेव से प्रार्थना की कि “यदि मैंने मक्का पर विजय प्राप्त कर ली तो अन्य सभी 360 मन्दिरों को तोड़ दूँगा, पर आपको नहीं। आपको मैं चुमूँगा, आपके सामने झुकूँगा और आब-ए-ज़मज़म और खजूर के पत्तों से आपकी पूजा करूँगा।” (1)
और वास्तव में जब मुहम्मद साहब ने मक्का वापसी की और बद्र के युद्ध में मक्का के कुरैश-शासकों को हरा दिया तो मुहम्मद साहब के अनुयायियों ने मक्केश्वर-मन्दिर के चारों ओर स्थापित 360 मन्दिरों को ध्वस्तकर धर्मस्थान बिलकुल समतल कर दिया। कला-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र कुछ घंटों में नष्ट कर दिए गये। मक्केश्वर मन्दिर को भी लूट लिया गया, तथापि शिवलिंग को अपवित्र नहीं किया गया। उसे मन्दिर के गर्भगृह की पूर्वी दीवार के कोने में जड़ दिया गया। बाद में गर्भगृह को ‘काबा’ कहा जाने लगा और उसे इस्लाम का पवित्रतम स्थल घोषित कर दिया गया। मक्का पर इस्लामी शासन शुरू हो गया। मक्कावासियों को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया। उसी समय से मुहम्मद साहब ने मक्का में गै़र-मुसलमानों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया, जिसका आज तक पालन हो रहा है। वचन के अनुसार मुहम्मद साहब ने महादेव को चूमा, नमन किया और पूजा की। इस तरह नमष्ट (8 बार झुकना) ‘नमाज़’ हो गया, इड़ागृह (पूजनगृह) ‘ईदगाह’ हो गया, शिवबारात (शिवरात्रि) ‘शबेबरात’ हो गया। मुहम्मद साहब की मृत्यु (07 जून, 632 ई.; 12 रबी उल्-अव्वल, 11 हिज़्री) के छः वर्षों के भीतर काबा के चारों ओर ‘अल्-मस्ज़िद-अल्-हरम्’ की स्थापना कर दी गयी। चूँकि काबा में आराध्यदेव भगवान् मक्केश्वर, अर्थात् शंकर थे, इसलिए उनके मस्तक पर शोभित अर्द्धचन्द्र इस्लाम और अल्लाह के प्रतीक के रूप में ग्रहण कर लिया गया।
इनसाइक़्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम के अनुसार इस्लाम मज़हब में अर्द्धचन्द्र और तारे का प्रथम उल्लेख सन् 695 ई. के सिक्कों पर मिलता है। सन् 1453ई. के बाद से समूची दुनिया में इस्लाम के प्रतीक के रूप में इसका प्रयोग होने लगा। इससे पूर्व बैज़ेन्टाइनों (Byzantines) ने इसका प्रयोग लगभग 610 ई. में ज़ार हेराक़्ली (Tzar Heraklie) के जन्मदिन पर प्रारम्भ किया। 12वीं शती में इंग़्लैण्ड के राजा रिचर्ड (Richard I “the Lionhearted” : 1189-1199) ने शाही बैज पर अर्द्धचन्द्र और तारे का उपयोग किया था। ओट्टोमन द्वारा सन् 1453 ई. से पूर्व ही इसका उपयोग होने लगा था। सन् 1453 ई. में तुर्की के सुल्तान मुहम्मद II (Muhmed II : 1451-1481) ने अर्द्धचन्द्र को समूचे इस्लाम और तुर्की साम्राज्य के लिए निर्धारित कर दिया। सन् 1793 ई. में सुल्तान सलीम III ने इसमें तारे (Star) को भी जोड़ दिया। सन् 1844 ई. में तारे में 5 बिन्दु इस्लाम के पाँच स्तम्भों के प्रतीक के रूप में निश्चित कर दिए गये। (2)
अर्द्धचन्द्रांकित ध्वज विभिन्न मुस्लिम-साम्राज्यों और राष्ट्रों द्वारा, विशेषकर तुर्क़ी मूल द्वारा, उपयोग होता रहा है। अर्द्धचन्द्र का विभिन्न चिह्नों के साथ अपने ध्वज में उपयोग करनेवाले वर्तमान राष्ट्र हैं— अल्ज़ीरिया, अंगोला, अज़रबैज़ान, क़ोमोरोस, ईरान, मलेशिया, मालदीव, मौरितानिया, नेपाल, पाक़िस्तान, सिंगापुर, ट्यूनिशिया, तुर्क़ी, तुर्क़मेनिस्तान, उत्तरी साइप्रस का तुर्क़ी गणतन्त्र, उज़्बेक़िस्तान, एवं पश्चिमी सहारा। सन् 1744 ई. से 1891 ई. तक सऊदी अरब के राष्ट्रीय ध्वज पर भी अर्द्धचन्द्र अंकित था।
इस्लाम की मज़हबी परम्परा किसी चिह्न या प्रतीक को मान्यता नहीं देती। इसलिए स्वयं अल्लाह या पैग़ंबर का चित्र बनाने पर भी पाबन्दी है। इसीलिए अर्द्धचन्द्र और तारे का चिह्न भी इस्लाम के लिए कोई धार्मिक महत्त्व का नहीं है। यही कारण है कि बहुत-से इस्लामी विद्वान् इसे मस्ज़िदों, मीनारों अथवा इस्लाम के प्रतीक के रूप में ग्रहण करने का विरोध करते हैं।
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)
संदर्भ सामग्री