महमूद मदनी के नाम खुला पत्र
बलबीर पुंज
नमस्कार मदनी जी,
यह ठीक है कि मेरा आपसे निकटवर्ती परिचय नहीं, परंतु हमारे बीच जो भी थोड़ी बहुत बातचीत हुई है, उसमें मैंने आपको तथ्यों-तर्कों पर बात करते देखा है। अभी 28-29 मई को उत्तरप्रदेश स्थित देवबंद में जमीअत उलेमा-ए-हिंद की बैठक में आपने कहा, “…हमारी तहजीब, खाने-पीने के तरीके अलग हैं। अगर तुमको हमारा मजहब बर्दाश्त नहीं है तो तुम कहीं और चले जाओ। वो जरा-जरा सी बात पर कहते हैं कि पाकिस्तान चले जाओ। हमें तो मौका मिला था, लेकिन हमने उसे रिजेक्ट कर दिया। जो हमें पाकिस्तान भेजना चाहते हैं, वे खुद वहां चले जाएं… हम कहीं जाने वाले नहीं, क्योंकि यह देश हमारा है और हम यहां के बाशिंदे है…।” निसंदेह, किसी भी ‘भारतीय’ को ‘पाकिस्तानी’ कहना या पाकिस्तान भेजने की बात करना, उसे कलंकित करने जैसा है। उसका स्पष्ट कारण भी है, क्योंकि पाकिस्तान का जन्म ही भारत की समावेशी संस्कृति और उस पर विश्वास करने वाले हिंदुओं से घृणा के कारण हुआ है- इसलिए पाकिस्तान कोई देश नहीं, अपितु एक विषाक्त विचार है। यक्ष प्रश्न है कि पाकिस्तान को आखिर किसने बनाया? इसके निर्माता कौन थे? क्या वे बाहरी थे?
पाकिस्तान की नींव उस वैचारिक अधिष्ठान पर रखी गई है, जिसके वास्तुकार सर सैयद अहमद खां थे, जिन्होंने लगातार भारतीय महाद्वीप के मुसलमानों को ब्रितानी विरोधी स्वाधीनता आंदोलन से दूर रहने और ‘पीपल ऑफ द बुक’ के नाम पर ‘ईसाई’ अंग्रेजों का साथ देने का आह्वान किया था। इसी आधार पर उन्होंने ‘हिंदू’ और ‘मुस्लिम’- दो राष्ट्र की कल्पना प्रस्तुत करते हुए मेरठ में 16 मार्च 1888 को कहा था, “…क्या यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें?… उसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को हराएं। दोनों सत्ता में समान भागीदार बनेंगे- यह सिद्धांत असंभव और अकल्पनीय है… हमारे पठान बंधु टिड्डों की झुंड की तरह पर्वतों और पहाड़ों से निकलकर बाहर आएंगे और बंगाल तक खून की नदियां बहा देंगे…।” कालांतर में इसी मजहबी विभाजनकारी सोच ने कुटिल अंग्रेजों और वामपंथियों के सहयोग से इसी भूखंड के गर्भ से पाकिस्तान को जन्म दे दिया। सर सैयद आज भारत-पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमानों के आदर्श हैं। यह विडंबना ही है कि जिन भारतीय क्षेत्रों को आज पाकिस्तान कहा जाता है, तब वहां रहने वाले मुसलमानों ने ‘पाकिस्तान आंदोलन’ में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। सच तो यह है कि इसका नेतृत्व उस समय वर्तमान भारत के उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल के मुसलमान कर रहे थे। विभाजन पश्चात वे अधिकांश लोग यहां की अनुकूल परिस्थिति देखकर अपने ‘सपनों के स्वर्ग’ पाकिस्तान नहीं गए और यही रुक गए।
महमूद मदनी जी, यह सच है कि बहुत से मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना पसंद नहीं किया। क्यों? क्या इसलिए कि उन्हें यहां की मौलिक सनातन सनातन संस्कृति से प्रेम था?- नहीं। वे जानते थे, पाकिस्तान लेने का अर्थ होगा खंडित भारत का अधूरा इस्लामीकरण। यदि वे भी चले जाते, तो खंडित भारत पूरी तरह हिंदू बहुल होता और तब ‘दारुल-हरब’ को ‘दारुल-इस्लाम’ में परिवर्तित करना असंभव होता। मदनी जी, निसंदेह भारतीय उपमहाद्वीप के शत-प्रतिशत मुसलमान यहीं की संतानें है। परंतु क्या कारण है कि यहां का मतांतरित हिंदू-बौद्ध, अर्थात् वर्तमान मुस्लिम समाज का एक वर्ग अपनी मूल संस्कृति और पूर्वजों के बजाय उन इस्लामी आक्रांताओं से जोड़कर देखता है, जिन्होंने मंदिरों-देवालयों को जमींदोज किया और यहां असंख्य लोगों को मौत के घाट तक उतार दिया। हो सकता है कि आप कहें कि यह तो बहुत पुरानी बात है। फिर कश्मीर के घटनाक्रम पर आपका क्या विचार है? घाटी में तीन दशक पहले जिहादियों ने स्थानीय मुस्लिमों की प्रत्यक्ष-परोक्ष सहायता से सैकड़ों हिंदुओं को केवल उनकी आस्था के कारण मौत के घाट उतारा था और जो मुसलमान उनके इस मजहबी दायित्व के आड़े आए, उन्हें भी जान से मार दिया। क्या इसका कारण उस विषाक्त इको-सिस्टम में निहित नहीं, जिसमें बहुलतावाद, लोकतंत्र और सह-अस्तित्व की भावना का नितांत अभाव है और उसी से ग्रस्त पाकिस्तान और अफगानिस्तान, जहां हजारों वर्ष पहले वैदिक सनातन ऋचाओं-परंपराओं का जन्म हुआ था, वहां आज भारतीय संस्कृति के प्रतीक तो दूर उसके अनुयायी भी ढूंढने से नहीं मिलते है।
आप कह सकते है कि जब बात भारतीय मुस्लिमों की हो रही है, तो उसमें इस्लामी पाकिस्तान-अफगानिस्तान का क्या काम? यह स्थापित सत्य है कि जिन आक्रांताओं ने सोमनाथ, काशी विश्वनाथ, केशवराय मंदिर सहित सैकड़ों मंदिरों को ‘काफिर-कुफ्र’ मानसिकता से प्रेरित होकर तोड़ा और यहां की सनातन संस्कृति का इस्लामीकरण का असफल प्रयास किया, उन्हीं के नाम पर पाकिस्तान की मिसाइलों (बाबर, गोरी, गजनवी, अब्दाली) और युद्धपोत (टीपू सुल्तान) के नाम है, साथ ही वहां का बड़ा जनमानस उन्हीं इस्लामी आक्रमणकारियों को अपना नायक मानता है। जिस प्रकार 17वीं शताब्दी में ज्ञानवापी और मथुरा के मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों/ईदगाह का निर्माण किया गया, जिसका मौलिक उद्देश्य इबादत हेतु ना होकर केवल पराजितों को अपमानित करना था- उसके पक्ष में खड़े होकर आप और अन्य मुस्लिम जनप्रतिनिधि क्या संदेश देना चाहते है? क्यों आप खंडित भारत के मुसलमानों को इस्लामी आक्रांताओं और उनके कुकर्मों से जोड़े रखने को लालायित हैं?
इसी प्रकार के दूषित विचारों से भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग अपनी मूल संस्कृति और मातृभूमि से अलगाव की भावना से ग्रस्त है और वे स्वयं को केवल अखिल-इस्लामी पहचान से जोड़कर देखते हैं। हाल ही एक भाजपा नेत्री द्वारा पैगंबर साहब पर तथाकथित विवादित टिप्पणी की गई थी, जिस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। परंतु एक घोर इस्लामी और स्वयंभू पत्रकार राणा अयूब के भाई आरिफ ने अरब-मध्यपूर्वी देशों से भारत को कच्चे-तेल का आयात बंद करने का आह्वान कर दिया। ऐसे ही वर्ष 2020 में, बतौर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष, जफरुल इस्लाम खान ने अरब देशों से भारत पर कोप गिराने की धमकी दे दी थी। वास्तव में, यह रुग्ण मानसिकता कोई नई नहीं है। वर्ष 1707 में औरंगजेब के निधन के पश्चात जब वीर छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित परंपरा ‘हिंदवी स्वराज्य’ का परचम अटक से कटक तक लहरा रहा था, तब शाह वलीउल्लाह देहलवी ने ‘काफिरों’ से लड़ने हेतु अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली को भारत आने का आमंत्रण दिया था। यदि तब अब्दाली भारत नहीं आता, तो भारतीयों की जिहाद में हार नहीं होती और ना ही वे 1803 के युद्ध में ब्रितानियों से पराजित होते। संक्षेप में कहूं, तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता।
मदनी जी, आपके उपरोक्त वक्तव्य की पृष्ठभूमि में स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल द्वारा 3 जनवरी 1948 को कलकत्ता (कोलकाता) में दिया भाषण महत्वपूर्ण हो जाता है। तब उन्होंने कहा था, “…हिंदुस्तान में जो मुसलमान है, उनमें से काफी लोगों, शायद ज्यादातर लोगों ने पाकिस्तान बनाने में साथ दिया था। ठीक है। अब एक रोज में, एक रात में उनका दिल बदल गया.. यह मेरी समझ में नहीं आता। अब वे सब कहते हैं कि हम वफादार हैं और हमारी वफादारी में शंका क्यों करते हो? अपने दिल से पूछो! यह बात आप हमसे क्यों पूछते हो…।” सरदार पटेल के इन प्रश्नों के बाद क्या कुछ कहने या पूछने को बचता है?