स्वाधीनता के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस
वर्ष 2018 में 21 अक्टूबर के दिन भारतवासियों ने एक अनूठा दृश्य देखा। 15 अगस्त को लालकिले पर ध्वजारोहण करने वाले भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने वर्ष में दूसरी बार लालकिले पर तिरंगा फहराया। यह अवसर था आजाद हिंद सरकार की 75वीं वर्षगांठ का।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज सरकार भारत की, भारतीयों द्वारा तथा भारत के लिए पहली सरकार थी। इससे पूर्व राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भी 1915 में काबुल में अंग्रेजों से स्वतंत्र भारतीय सरकार की घोषणा की थी। किंतु 21 अक्तूबर, 1943 को नेता जी द्वारा सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ा। इस सरकार को जापान तथा जर्मनी सहित नौ देशों की मान्यता प्राप्त थी। 30 दिसंबर को अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजाद हिंद सरकार ने आजाद भारत की घोषणा की। अंडमान निकोबार के नाम बदल कर ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ कर दिए गए।
23 जनवरी 1897 को उच्च शिक्षित बंगाली परिवार में जन्मे सुभाष चंद्र बोस की प्रतिभा देखकर सब सोचते थे कि वे ब्रिटिश सरकार में बड़े सिविल अधिकारी बनेंगे। परिवार के आग्रह पर सुभाष बाबू ने सिविल परीक्षा में अपनी योग्यता सिद्ध भी की किंतु इसके पश्चात उन्होंने अंग्रेजी सरकार का नौकर बनने की अपेक्षा देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का मार्ग चुन लिया।
शीघ्र ही वे कॉंग्रेस के प्रमुख नेता बन गए। 1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। सुभाष युवाओं में लोकप्रिय हो रहे थे। उनका मानना था कि केवल अहिंसक सत्याग्रहों से देश स्वाधीन नहीं होगा। इस विषय पर महात्मा गांधी के साथ उनका मतभेद हुआ और 1939 में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस की अध्यक्षता त्याग दी। 03 मई 1939 को उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक की स्थापना की। सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। सुभाष ने इस अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास प्रारंभ कर दिए। उन्होंने वीर सावरकर, डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे अग्रणी राष्ट्रभक्तों से भेंट की तथा ब्रिटिश शासन पर निर्णायक प्रहार के उद्देश्य से काम करने लगे।
1940 में अंग्रेजों ने उन्हें गृहबंदी बना लिया। 1941 में वे अंग्रेजों से बच निकले और गुप्त रूप से अफगानिस्तान होते हुए विदेश चले गए। यूरोप के कई देशों में उन्होंने हजारों देशभक्त भारतीय युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित किया।
इधर, वीर सावरकर देशभक्त युवकों को ब्रिटिश सेना में घुसाकर सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करने और फिर साथी सैनिकों को देशभक्ति के लिए प्रेरित कर सेना में विद्रोह करवाने की योजना पर कार्य कर रहे थे। विएना में सुभाष को जीवन संगिनी के रुप में एमिली शैंकल मिलीं। 1942 में इन दोनों की पुत्री अनिता बोस का जन्म हुआ किंतु विपरीत परिस्थितियों के कारण 1943 में सुभाष चंद्र बोस को अपने परिवार से दूर सिंगापुर जाना पड़ा। यहाँ सुभाष के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज सफलता की ओर बढ़ने लगी। सुभाष चन्द्र बोस ने जैसे ही दिल्ली चलो का उद्घोष किया, ब्रिटिश भारतीय सेना में विद्रोह होने लगे।
1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे एटली ने 1965 में भारत की निजी यात्रा में सीडी चक्रवर्ती के सामने अनौपचारिक रूप से स्वीकारा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बड़ी भूमिका थी। नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इंफाल तक आ चुके थे। आजाद हिंद फौज से प्रेरणा लेकर भारत की ब्रिटिश नौसेना तथा वायुसेना में विद्रोह हो गया था।
दुःखद तथ्य यह है कि जिस सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज को विदेशों से समर्थन प्राप्त हो रहा था। उनका अपने देश भारत में अहिंसा के नाम पर विरोध हो रहा था। इस विरोध के मूल में भारतीय वाममार्गी थे।
सुभाष ने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम प्रसारण जारी कर विजय के लिये उनका आशीर्वाद व शुभकामनाएं मांगी थीं, किंतु बर्मा और इम्फाल तक आ पहुँची आजाद हिंद फौज को अहिंसावादियों का समर्थन नहीं मिला। 1945 में जापान की पराजय के कारण नेताजी को अपना अभियान स्थगित करना पड़ा। 18 अगस्त 1945 को मंचूरिया के रास्ते में उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त होने का समाचार आया। उनकी मृत्यु को लेकर संशय आज भी बना हुआ है किंतु राष्ट्र के प्रति उनका अतुलनीय योगदान संदेह से परे है।
भारत माता की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महानायक के प्रति सारा राष्ट्र कृतज्ञ है, उन्हें नमन करता है।