महाराणा प्रताप को राजनीति का मोहरा न बनाएं

महाराणा प्रताप को राजनीति का मोहरा न बनाएं

महाराणा प्रताप को राजनीति का मोहरा न बनाएं

उदयपुर। विधानसभा उपचुनाव की गहमागहमी के बीच रविवार रात कुंवारिया क्षेत्र में हुई एक नुक्कड़ सभा में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया द्वारा महाराणा प्रताप के संघर्ष को लेकर की गई टिप्पणी पर विरोध बढ़ गया। सोमवार को शहर में हुई भाजपा की एक बड़ी सभा में कटारिया के विरोध में नारेबाजी भी हुई।

अपनी सभा में, कटारिया प्रताप के संघर्ष की दुहाई देते हुए कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने प्रताप के लिए जंगलों में रोता-फिरता जैसे कई शब्द ऐसे कह दिए, जो लोगों को अच्छे नहीं लगे। इसका अनेक लोगों ने विरोध किया तो अनेक लोग उनका उद्देश्य गलत नहीं था मानते हुए समर्थन में उतर आए, दूसरी ओर कुछ लोगों का कहना है कि राजनीति अपनी जगह है, उसमें प्रताप जैसे व्यक्तित्व को मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए।

सुराज मंच ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा कि गुलाबचंद कटारिया ने भाषण के दौरान अतिरेक उत्साह में महाराणा प्रताप के उद्भट योद्धा होने का जो वर्णन किया, उसमें शब्दों के चयन को लेकर सवाल हो सकते हैं, लेकिन उनके महाराणा प्रताप के प्रति सम्मान और समर्पण पर प्रश्न नहीं किए जा सकते। एक राई का पहाड़ बनाना राजनीतिक प्रखण्ड का व्यवहार है। जिनके पुरखे महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर की ओर से युद्ध लड़े, आज वे महाराणा प्रताप के सम्मान के लिए लड़ने की बात कर रहे हैं। यह शुद्ध रूप से राजनीति है। यही वे लोग हैं जो राजपूतों के अकबर को समर्थन का बचाव करते हैं और जब प्रताप की सेना में भागीदारी करने वाले लोगों के परिवार से आने वाले व्यक्ति अपने भाषाई स्वरूप से कुछ सम्भाषण कर दें तो राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए सिगड़ी जला लेते हैं। इस समय एक किस्सा जरूर याद आ जाता है। मेवाड़ के प्रसिद्ध मेवाड़ी भाषा के कवि आदरणीय नाथूदान जी महियारिया ने दिल्ली में जयपुर महाराजा मानसिंह और मेवाड़ के तत्कालीन महाराजकुमार भगवतसिंह जी के मिलने और गले लगने पर एक छन्द लिखा। छन्द इस प्रकार है-

मान भगवत दोई मल्या, ई में हाण न लाभ,
जै मल जाता मान प्रताप, तो मिट जाती मुगलान,
मिट जाती मुगलान, सुणो आमेर नरेश,
नेहरू बेटी ले नहीं अब किण रेसी आमेर।।

शायद मेवाड़ की अस्मिता को बचाना मेवाड़ का दायित्व है। वैसे तो महाराणा प्रताप के सगे भाई तक उन्हें छोड़ अकबर के दरबार में चले गए, लेकिन इससे मेवाड़ के आत्मविश्वास में कोई अन्तर नहीं आया। महाराणा प्रताप ने पूरे शौर्य और उत्साह से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। राजनीति करने के लिए कोई कुछ भी कहे, लेकिन राजनीति करने के लिए महाराणा प्रताप को मोहरा बनाने का प्रयास नहीं करे। राजनीति अपनी जगह है और महाराणा प्रताप अपनी जगह। उन्हें प्रातःस्मरणीय ही रहने दें। गत दिनों में जो हुआ अब बन्द होना चाहिए। साथ ही उन लोगों को यह अधिकार बिल्कुल नहीं है जिनके पुरखों ने राष्ट्रद्रोह करते हुए चित्तौड़ का साथ छोड़ अकबर के दरबार में म्लेच्छों के रिश्ते और भोजन को स्वीकार किया था।

समाज का उद्वेलन महाराणा प्रताप के असम्मान को लेकर होना चाहिए। इसके लिए सामने आ रहे विविध संगठनों को सत्तर वर्षों तक राजनीति के सिरमौर रहे लोगों से प्रश्न करना चाहिए कि अब तक पाठ्यपुस्तकों में अकबर महान और महाराणा प्रताप पराजित क्यों हैं? वर्तमान सरकार के शिक्षा मंत्री ने हाल ही में पाठ्यक्रम में बदलाव कर महाराणा प्रताप के पाठ को कम किया है और अकबर और मुगल शासन को महिमा मंडित किया है। इसका जवाब भी तो मांगा जाना चाहिए।

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