महिला सशक्तिकरण : देश में महिलाओं का लिंगानुपात बढ़ा
प्रमोद भार्गव
भारत के लिए यह प्रसन्नता की बात है कि लिंगानुपात के अंतर्गत स्त्री का जो अनुपात घट रहा था, उसमें जनसांख्यिकीय बदलाव देखने में आया है। पहली बार महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक गिनने में आई है। साथ ही लिंगानुपात 1020 के मुकाबले 1000 रहा है। यह जानकारी राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के निष्कर्षों से मिली है। स्त्रियों की संख्या 1000 के पार हो रही है तो इसका अर्थ है कि भारत आर्थिक प्रगति के साथ-साथ लिंगानुपात में भी विकसित देशों के समूह के बराबर आ रहा है। इसके लिए महिला सशक्तिकरण के अंतर्गत मध्य-प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई लाड़ली लक्ष्मी योजना और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं रही हैं, जो शैक्षिक व वित्तीय समावेशन, लैंगिक पूर्वाग्रह तथा असमानताओं से लड़ने में सार्थक रही हैं। इन योजनाओं की सफलता के बाद, इन्हें केंद्र सरकार द्वारा देशभर में लागू किया गया, इसी का परिणाम है कि आज घर-आंगन और देश-प्रदेश में लड़की उनमुक्त भाव से खिलखिला रही है।
इन अभियानों के चलते 2015 के बाद से लिंगानुपात सुधरने में तेजी आई। परिणामस्वरूप 2019-20 में यह अनुपात 929 हो गया, जो 2011 की जनगणना में एक हजार की तुलना में 1020 था। छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में तो बेटियों की संख्या 1011 से 1048 तक हो गई है। जबकि राजिम और देवभोग इलाकों में लिंगानुपात 950 से 990 के बीच रहा है। केरल में यह औसत 959, मिजोरम में 958 और गोवा में 954 रहा है। जिस पंजाब और हरियाणा में लड़कियां 1000 की तुलना में 850 के लगभग रह गई थीं, वहां भी यह अनुपात 900 से ऊपर पहुंच गया है।
मध्य-प्रदेश के ग्वालियर-चंबल अंचल में पुत्र जन्म की मनौती के लिए एक लोकोक्ति प्रचलन में है-‘लाली तू जा, लाला को ले आ’ यानि बेटी के जन्म पर प्रार्थना की जाती है कि ‘बेटी तू तो जा अर्थात मौत को गले लगा ले और पुत्र के रूप में पुनर्जन्म ले।’ इस बीज मंत्र का जाप करते हुए नवजात बेटी की जीवन-लीला समाप्त कर देने के उपाय रच दिए जाते थे, लेकिन अब इस पूरे अंचल में लड़कियां मुस्कुरा रही हैं। मध्य-प्रदेश शासन की ‘लाडली लक्ष्मी योजना‘ के अस्तित्व में आने के बाद बेटी को आर्थिक सुरक्षा का जो आधार मिला है, उससे कुरीति का रूप ले चुकी मान्यता आमूलचूल बदलाव की स्थिति में है। इन योजनाओं के अमल में आने से भ्रूण हत्या पर अंकुश लगा है। जबकि प्रदेश के 15 जिलों में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार लिंगानुपात बद्तर हाल में है। प्रति एक हजार बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या मुरैना में 822, भिण्ड में 829, ग्वालियर में 848, दतिया में 857, षिवपुरी में 858, छतरपुर में 869, विदिषा में 875, सागर में 884, गुना में 885, टीकमगढ़ में 886, भोपाल में 895, होशंगाबाद में 896, पन्ना में 901, जबलपुर में 908 और श्योपुर में 909 है। मध्य-प्रदेश में वर्ष 1901 में यह अनुपात 990 था, जो वर्ष 1951 तक आते-आते 967 रह गया था। यानि प्रति एक हजार पुरुषों पर 33 महिलाएं कम थीं, किंतु वर्ष 2001 की जनगणना में यह घटकर 929 रह गया। अब सब जगह यह अनुपात बढ़कर 930-31 के आस-पास हैं। यह वृद्धि अप्रत्याशित कही जा सकती है।
पंजाब जिसे तुलनात्मक दृष्टि से आर्थिक रूप से समृद्ध और शिक्षित होने के कारण देश का आदर्श राज्य माना जाता है, वहां लिंगानुपात बेहद चिंताजनक था, यहां के फतेहगढ़ साहब जिले में एक हजार बालकों पर मात्र 754 बालिकाएं रह गई थीं। यह देश का ऐसा जिला था, जहां सबसे ज्यादा लिंगानुपात गड़बड़ाया हुआ था, किंतु अब यह अनुपात 900 के लगभग पहुंच गया है। देश के दस जिले ऐसे हैं, जहां लिंगानुपात जबरदस्त चिंताजनक स्थिति में है, उनमें सात पंजाब में स्थित हैं। इसके बाद दिल्ली, हरियाणा और गुजरात हैं। भ्रूण लिंग के विरुद्ध प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स (पीएनडीटी) 1994 कानून क्रियाशील होने के बावजूद भ्रूण लिंग परीक्षण पर अंकुश नहीं लग पाया था। बल्कि विडंबना यह है कि आज तक इस कानून के अंतर्गत एक भी चिकित्सक के विरुद्ध दण्डात्मक कार्यवाही अंजाम तक नहीं पहुंच पाई है। ऐसी ही आश्चर्यजनक परिस्थितियों के चलते एक सर्वेक्षण ने जो परिणाम दिए थे, वे चौंकाने वाले जरूर थे, लेकिन उनमें कड़वी सच्चाई भी थी। वैज्ञानिकों के एक समूह ने भारत में 2009 में साठ लाख लोगों पर एक राश्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण किया। प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया कि भारत में प्रति वर्ष पांच लाख कन्याएं जन्म ही नहीं ले पाती हैं। लांसेट चिकित्सा पत्रिका के इंटरनेट संस्करण में इस शोध-पत्र का हवाला देते हुए बताया था कि पिछले दो दशकों में एक करोड़ कन्याएं माताओं की कोख में ही मार दी गईं। परिणामस्वरूप भारत में लैंगिक संतुलन प्रभावित हुआ। इस शोध के मुखिया कनाडा के टोरंटो विश्वविद्यालय के डॉ. प्रभात झा हैं। शोध-पत्र के निष्कर्षों से भारतीय चिकित्सा संघ के उस अनुमान को बल मिला है, जिसमें कहा गया था कि हर साल पांच लाख कन्या भ्रूणों की कोख में ही हत्या कर दी जाती है।
इस जघन्य दुष्कृत्य में ग्रामीण अशिक्षित वर्ग की तुलना में शहरी उच्च शिक्षित वर्ग बड़ी संख्या में संलग्न है। अब तो भ्रूण लिंग परीक्षण के सिलसिले में अल्ट्रा सोनोग्राफी से भी आगे की तकनीक विकसित हो गई है। अमेरिकी मूल की यह कंपनी अत्याधुनिक तकनीक के माध्यम से मात्र पांच सप्ताह के गर्भस्थ भ्रूण के लिंग की पहचान करने का विज्ञापन बेवसाइट पर निडर होकर कर रही है। इस कुप्रथा का संबंध शैक्षिक जागरूकता से भी नहीं है। क्योंकि शिक्षा से सामाजिक संपर्क और संपन्नता तो बढ़ी, परंतु समता के मूल्य स्थापित नहीं हो पाए। इसके बाद अवतरित हुए नए उपभोक्तावादी समाज में बेटों की चाहत और बढ़ गई। पंजाब जैसे आधुनिक राज्य में यह चाहत तब और बढ़ गई, जब वहां गैर प्रवासी भारतीय (एनआरआई) पत्नियां भी पतियों द्वारा ठुकरा दी गईं। बताते हैं कि पूरे देश में एक लाख एनआरआई पत्नियां ऐसी हैं, जिनके पति उन्हें और नवजात शिशुओं को छोड़कर लापता हो गए। इनमें से आधी पंजाब की हैं। पंजाब में ऐसे हालातों के चलते भी कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा मिला हुआ था।
बालिकाओं की संख्या कम होना किसी भी विकासशील समाज के लिए बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब स्त्री की आर्थिक हैसियत तय हो और समाज में समानता की स्थितियां निर्मित हों? इस नजरिए से मध्यप्रदेश में ‘लाडली लक्ष्मी योजना’ एक कारगर औजार साबित हुई और इसीलिए इसे देश के मॉडल के रूप में मान्यता मिली। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब ने ही नहीं पूरे देश ने इस योजना का अनुकरण किया और बेटी बचाने के लिए जुट गए। क्योंकि बेटी बचेगी, तभी बेटे बचेंगे और सृष्टि की निरंतरता बनी रहेगी। जैविक तंत्र से जुड़े इस सिद्धांत को हमारे ऋषि-मुनियों ने भली-भांति आज से हजारों साल पहले समझ लिया था, इसीलिए भगवान शिव-पार्वती के रूप में अर्धनारीश्वर के प्रतीक स्वरूप मंदिरों में मूर्तियां गढ़ी गईं, जिससे पुरुष संदेश लेता रहे कि नारी से ही पुरुष का अस्तित्व अक्षुण्ण है। हमने शिव-पार्वती की पूजा तो की, लेकिन उनके एकरूप में अंतर्निहित अर्धनारीश्वर के प्रतीक को आत्मसात नहीं किया।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)