माओवाद का खात्मा इसे उग्रवाद या अतिवाद मानकर नहीं किया जा सकता

माओवाद का खात्मा उग्रवाद या अतिवाद मानकर नहीं किया जा सकता

शुभम उपाध्याय

माओवाद का खात्मा उग्रवाद या अतिवाद मानकर नहीं किया जा सकता

छत्तीसगढ़ के बीजापुर क्षेत्र में माओवादियों से मुठभेड़ में जिस तरह 24 जवान वीरगति को प्राप्त हुए हैं उसके बाद से ही लगातार प्रदेश में माओवादियों के विरुद्ध आक्रोश का माहौल है।

सोशल मीडिया से लेकर तमाम नेताओं के बयानों में भी इस घटना का जिक्र हो रहा है। प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री की टिप्पणी एवं अमित शाह के जगदलपुर दौरे के बाद इस घटना को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी चर्चा की गई। लेकिन धीरे धीरे अब सब कुछ पहले की तरह भुला दिया जा रहा है।

पहले भी हमने देखा है कि जब छत्तीसगढ़ की धरती पर माओवादियों ने भीषण से भीषण हमले किए हैं उसके बाद भी किसी बड़े स्तर पर माओवादियों के खात्मे को लेकर कोई अभियान नहीं चलाया गया।

आम जनता को संदेश देने के लिए नेता जरूर बार-बार यह दावा करते नजर आते हैं कि माओवादी संगठन अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि माओवादियों ने बीते कुछ समय में लगातार अपने संगठन को ना सिर्फ मजबूत किया है बल्कि अपने क्षेत्रों में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने में बढ़ोतरी की है।

यदि हम सिर्फ मार्च माह की ही बात करें तो बीते 26 मार्च को माओवादियों ने बीजापुर के जिला पंचायत सदस्य की हत्या कर दी थी। इसके 1 दिन पहले 25 मार्च को माओवादियों ने बस्तर संभाग के ही कोंडागांव जिले में सड़क निर्माण में लगीं 1 दर्जन से अधिक गाड़ियों को आग लगा दी थी।

इससे पहले 23 मार्च को नारायणपुर जिले में माओवादियों ने सुरक्षाकर्मियों की एक बस को आईईडी विस्फोटक से उड़ाने के प्रयास किए थे, जिसमें 5 सुरक्षाकर्मी वीरगति को प्राप्त हुए थे। 20 मार्च को बीजापुर जिले में माओवादियों ने पुलिस के एक जवान की हत्या कर दी।

5 मार्च को नारायणपुर क्षेत्र में आईटीबीपी के 1 जवान की माओवादियों के द्वारा लगाए गए आईईडी विस्फोटक की चपेट में आने के कारण मौत हो गई। 4 मार्च को सीएएफ के 22वीं बटालियन के प्रधान आरक्षक की दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों द्वारा लगाए गए आईईडी विस्फोटक की चपेट में आने से मौत हो गई।

ये सब घटनाएं सिर्फ एक माह की हैं और माओवादियों ने इन्हें काफी बड़े स्तर पर अंजाम दिया है लेकिन इसके बावजूद राष्ट्रीय मीडिया और राष्ट्रीय परिचर्चा में माओवादियों के द्वारा किए जा रहे आतंक पर कोई चर्चा नहीं हो रही है।

वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के कारण पुलवामा में सुरक्षाकर्मियों पर एक बड़ा आतंकी हमला हुआ था। इस आतंकी हमले के बाद पूरे देश में आतंकियों के विरुद्ध गुस्सा था और सरकार के आदेश पर सेना ने सख्त कदम उठाते हुए पाकिस्तान की सीमा में स्थित आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की थी।

इससे पहले भी जब उरी में आतंकी हमला किया गया तब भी पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर क्षेत्र में घुसकर भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया था। सिर्फ पाकिस्तान के ही क्षेत्र में नहीं बल्कि उत्तर पूर्व के क्षेत्र में जब आतंकियों ने उत्पात मचाया तो म्यांमार की सीमा में भी घुसकर भी भारतीय सेना ने अपने ऑपरेशन को अंजाम दिया।

लेकिन जब भी बात माओवाद की आती है तो भले कुछ लोग अखबारों की रिपोर्ट और आलेखों में इसे लाल आतंक और वामपंथी आतंकवाद लिखते हों लेकिन जब सरकारी दस्तावेजों में माओवाद पर लिखा जाता है तो इसे वामपंथी उग्रवाद की संज्ञा ही दी जाती है।

राज्य सरकारें इन के लिए पुनर्वास योजना और तरह तरह की अन्य योजनाएं भी चलाती हैं। लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ समय में माओवादियों ने युद्ध छेड़ रखा है इससे यह बात स्पष्ट है ना ही उन्हें किसी तरह की शांति पर कोई यकीन है और ना ही वे भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास करते हैं। वे बस बंदूक की नली से सत्ता चाहते हैं।

जब ऐसे विचार रखने वाले लोगों के हाथों में बंदूकें थमा दी जाती हैं तो वे किसी आतंकवादी से कम नहीं कहे जा सकते। ऐसे में आवश्यकता है कि अब माओवादी आतंकवाद को वामपंथी उग्रवाद की श्रेणी से हटाकर अब पूरी तरह से आतंकवाद की श्रेणी में डाल दिया जाए। यह कोई उग्रवाद नहीं बल्कि पूरी तरह से आतंकवाद है।

यदि हम अंग्रेजी भाषा में भी कहें तो यह कोई एक्सट्रीमिज़म नहीं बल्कि टेररिज्म है।

इसके अलावा ऐसे सभी लोगों पर अब शिकंजा कसा जाना चाहिए जो माओवादियों, नक्सलियों को क्रांतिकारी कहते हैं। उनके इस गुरिल्ला युद्ध को क्रांति की संज्ञा देते हैं और उन्हें वैचारिक ढाल देकर बचाने का प्रयास करते हैं।

उन पत्रकारों, लेखकों, कार्यकर्ताओं और विचारकों को भी अब सोचना चाहिए कि आखिर कितनी लाशों के बाद वे माओवादियों का पक्ष रखना बंद करेंगे। उन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी अब यह विचार करना चाहिए कि आखिर और कितने जवानों के बलिदान के बाद उन्हें माओवादियों की हिंसा आतंकवाद दिखेगी।

अब समझना यह है कि माओवाद की जो मूल विचारधारा है उसमें सिर्फ आतंक भरा है। यह कोई उग्र या अतिवाद की विचारधारा नहीं बल्कि पूर्णत: आतंकवाद की विचारधारा है। और माओवाद का खात्मा उसे उग्रवाद या अतिवाद समझकर नहीं किया जा सकता बल्कि उसे आतंकवाद समझकर ही किया जा सकता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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