मातृ पितृ भक्त प्रताप
प्रताप जयन्ती के अवसर पर लेखमाला, भाग -1
अनमोल
महाराणा प्रताप का जन्म भारतीय पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया, तदनुसार 9 मई, 1540 को राजस्थान के मारवाड़ व मेवाड़ की सीमा बनाती अरावली पर्वतमाला पर स्थित कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। जिनको भारतीयता पर गौरव है वे सभी प्रतिवर्ष महाराणा प्रताप की जयंती तिथि अनुसार मनाते हैं। गुहिल वंश में जन्मे प्रताप को बचपन में सभी ‘कीका’ नाम से पुकारा करते थे।
प्रताप के दादा राणा सांगा थे। उनके पिता महाराजा उदयसिंह और माता राणी जयवंत कंवर थीं। मॉं राजस्थान के ही जालोर ठिकाने के अखेराज सोनगरा चौहान की पुत्री थीं। वे अपने पति मेवाड़ के महाराज उदयसिंह को राज्य के हितार्थ विषयों में परामर्श भी देती थीं और भगवान कृष्ण की निष्ठावान व प्रफुल्लित भक्त थीं। वे सदैव नियमों का दृढ़ता से पालन करती थीं। उन्होंने प्रताप को भी देश व धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास की नींव से पोषित किया तथा अनुशासन का पालन करना सिखाया। प्रताप मॉं से बहुत प्रेरित थे। आगे चलकर अपने जीवन में, प्रताप ने इन्हीं जीवन मूल्यों को आदर्श मानकर आचरण किया जो मॉं जयवंता बाई ने सिखाए।
कीका कुम्भलगढ़ में भील बालकों के साथ अधिक समय बिताते थे। माँ साहब के संरक्षण में जीवन मूल्य की शिक्षा के साथ आचार्य राघवेंद्र के सानिध्य में शिक्षा दीक्षा चल रही थी। बाल्यकाल में जब बच्चों को खिलौनों से खेलने का चाव होता है, उस समय प्रताप सामान्य खेलों के साथ ही युद्ध कला व धनुष-बाण, भाला आदि शस्त्र संचालन सीखने में अधिक रुचि रखते थे। भील सरदारों के संरक्षण में चित्तौड़ दुर्ग में घुड़सवारी व शिकार करना उनके शौक थे। बचपन से ही प्रताप बहादुर व दृढ़ निश्चयी थे। ऐश्वर्य पूर्ण जीवन से अधिक अपनी मातृभूमि माँ मेवाड़ की स्वतंत्रता, सुरक्षा व स्वाभिमान उन्हें प्रिय थे।
रविवार को जन्मे प्रताप जितने तेजस्वी व प्रखर थे उतने ही पितृभक्त भी थे। पिता राणा उदयसिंह अपने कनिष्ठ पुत्र जगमाल को राज्य का उत्ताराधिकारी बनाना चाहते थे। युवा प्रताप ने पिता के इस निर्णय का तनिक भी विरोध नहीं किया और मात्र 18 वर्ष की आयु में वे चित्तौड़गढ़ छोड़कर वनों में आ गए। निर्जन वनों में घूमते घूमते प्रताप ने अनेक कष्ट सहन किए, लेकिन पितृभक्ति के कारण उफ तक नहीं की।
उदयसिंह के देहावसान के समय प्रताप तो उन्हें मुखाग्नि देने पहुँचे जबकि जगमाल अंत्येष्टि स्थल तक पर नहीं आए। यह देखकर मेवाड़ के नागरिकों के मन में आशंका हुई, क्योंकि उस समय तक मेवाड़ में परम्परा थी कि सबसे बड़ा पुत्र पिता के दाह संस्कार के समय राजमहल में ही रहता था। प्रताप सिंह ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्वाभाविक उत्तराधिकारी के साथ पूर्ण योग्य व लोक इच्छित भी थे। दूसरी ओर भटियानी रानी के पुत्र जगमाल जो प्रताप से छोटे थे, महाराजा उदयसिंह प्रताप के स्थान पर उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। यह नियमों के विरुद्ध तो था ही, जनता की नजरों में जगमाल अयोग्य भी थे।
वहीं गोगुंदा के दाह संस्कार स्थल पर प्रताप एक बावड़ी के पास बैठ कर पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर मन में राज्य से बाहर जाने का विचार कर रहे थे। मेवाड़ के 16 राव उमरावों को यह सब समझ में आ गया। वे सभी मेवाड़ के साथ अन्याय होता हुआ नहीं देख सके। सब ने मिलकर फाल्गुन पूर्णिमा अर्थात 28 फरवरी 1576 को वीर प्रताप को मेवाड़ का महाराणा बनने के लिए मनाया और वहीं तत्क्षण उन्हें एक शिला पर बैठाकर मेवाड़ के तेरहवें शासक के रूप में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुनकर उनका सादगीपूर्ण राज्याभिषेक किया। यह स्थान ऐतिहासिक क्षण का साक्षी होते हुए भी अतीत से लेकर आज तक अपनी भव्यता व लोकप्रियता प्राप्त करने हेतु प्रतीक्षारत है।
क्रमश: